125वीं जयंती पर नेहरू की दुर्गति!

मजबूरीवश पगड़ी माथे से उतार कर किसी के पैरों में रख दी जाये, तो यह पगड़ी का दुर्भाग्य नहीं होता. पगड़ी का असल दुर्भाग्य तब होता है, जब उसे पहनने लायक कोई माथा ही नहीं मिले. जवाहरलाल नेहरू का प्रतीक फिलहाल ऐसी ही पगड़ी में बदल गया है. केंद्र में सत्तासीन भाजपा और कांग्रेस दोनों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 13, 2014 11:32 PM

मजबूरीवश पगड़ी माथे से उतार कर किसी के पैरों में रख दी जाये, तो यह पगड़ी का दुर्भाग्य नहीं होता. पगड़ी का असल दुर्भाग्य तब होता है, जब उसे पहनने लायक कोई माथा ही नहीं मिले. जवाहरलाल नेहरू का प्रतीक फिलहाल ऐसी ही पगड़ी में बदल गया है.

केंद्र में सत्तासीन भाजपा और कांग्रेस दोनों नेहरू नाम की पगड़ी अपने-अपने सिर पर सजाना चाहती हैं, लेकिन इस पगड़ी का आकार अपने सिर के माप के हिसाब से फिट करना चाहती हैं.

मुद्दा नेहरू की 125वीं जयंती पर होनेवाले समारोह से संबंधित है. केंद्र सरकार ने इस आयोजन के लिए राष्ट्रीय समिति से कांग्रेस अध्यक्ष को बाहर रखा है. दूसरी ओर, कांग्रेस द्वारा आयोजित समारोह में देश-विदेश से गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया गया है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं! यह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है या निजी प्रतिशोध का परिचायक! तर्क दोनों के पास हैं. कांग्रेस का कहना है कि जो लोग सही मायनों में लोकतंत्र और नेहरू के आदर्शो पर यकीन रखते हैं, सिर्फ उन्हें ही आमंत्रित किया गया है.

भाजपा का तर्क है कि चूंकि प्रधानमंत्री किसी एक दल का नहीं, बल्कि पूरे देश का होता है, इसलिए प्रधानमंत्री को न बुला कर कांग्रेस ने देश का अपमान किया है. दोनों के तर्क दोषपूर्ण हैं, क्योंकि वे नेहरू के व्यक्तित्व से न्याय नहीं करते. नेहरू राजनीतिक असहमति और विपक्ष की ताकत के बढ़वार के पक्षधर थे. उनका कहना था, ‘मैं नहीं चाहता कि भारत में लाखों लोग एक इंसान की हां में हां मिलाएं.

मैं भारत में सशक्त विपक्ष देखना चाहता हूं.’ उनकी इसी सोच के अनुरूप अंतरिम सरकार में डॉक्टर भीम राव आंबेडकर, षणमुखम शेट्टी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी शामिल हुए थे. इसी सोच पर चलते हुए 1952 के चुनाव में 45 फीसदी मतों के साथ 489 में से 364 सीटें जीतनेवाली कांग्रेस ने 10.59 फीसदी मतों के साथ 12 सीटें जीतनेवाली विपक्षी सोशलिस्ट पार्टी के आचार्य नरेंद्र देव, जेबी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण को भी कैबिनेट में शामिल करना चाहा था. लेकिन, बड़े अफसोस की बात है कि राजनीतिक विपक्ष और वैचारिक असहमति के प्रति ऐसी उदारता न तो कांग्रेस के पास है और न ही भाजपा के पास. प्रतीक को अपनी सुविधा की राजनीति में फिट करने की इस खींच-तान में दरअसल अपमान तो नेहरू के लोकतांत्रिक विचारों का ही हो रहा है.

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