नेहरू की 125वीं जयंती : मोदी-दौर में नेहरू की विरासत के मायने
आज नेहरू की विरासत के अनेक सकारात्मक पक्ष भी खतरे में हैं. सिर्फ हमारे समाज और इतिहास में ही उनसे मुक्ति की कोशिश नहीं हो रही है, स्वाधीनता संघर्ष से उपजे जीवन मूल्यों और भारतीय राष्ट्र-राज्य के धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक विचारों पर भी ग्रहण लगे हुए हैं. हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती ऐसे वक्त […]
आज नेहरू की विरासत के अनेक सकारात्मक पक्ष भी खतरे में हैं. सिर्फ हमारे समाज और इतिहास में ही उनसे मुक्ति की कोशिश नहीं हो रही है, स्वाधीनता संघर्ष से उपजे जीवन मूल्यों और भारतीय राष्ट्र-राज्य के धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक विचारों पर भी ग्रहण लगे हुए हैं.
हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती ऐसे वक्त मनायी जा रही है, जब केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी ने ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के अपने अभियान के साथ राष्ट्र-राज्य की मूल अवधारणा के कुछ बड़े पहलुओं को भी जोड़ दिया है. कांग्रेस एक पार्टी है, लेकिन राष्ट्र के रूप में भारत का विचार बिल्कुल अलग पहलू है. नयी सरकार और भाजपा के राजनीतिक अभियानों से लगता है कि वे उन तमाम नेताओं की विरासत से भी देश को मुक्त करना चाहते हैं, जिनके संघर्ष और विचारों की रोशनी में आजादी की लड़ाई के दौरान इस आधुनिक राष्ट्र की बुनियाद पड़ी. नेहरू इस कतार में सबसे आगे हैं, जिन्होंने आजाद भारत को एक धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक समाज के रूप में विकसित करने का सपना बुना. संभव है, उनकी लोकतांत्रिकता में बहुत सारी समस्याएं और खामियां दिखें, पर इस बात से कौन इनकार करेगा कि आज दक्षिण एशिया के इस हिस्से में अप्रौढ़ ही सही, अगर हमारे समाज का एक विकासशील धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक स्वरूप बरकरार है, तो उसका बहुत-कुछ श्रेय खासतौर पर नेहरू को जाता है. नया निजाम नेहरू की विरासत के कुछ बेहद सकारात्मक पहलुओं से भी भारत को आज मुक्त करने की कोशिश करता नजर आता है.
क्या है नेहरू की विरासत, क्या हैं वे मूल्य, जिन्हें नेहरू ने भारत जैसे एक नये स्वतंत्र-सार्वभौम और धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए जरूरी माना था? नेहरू के अध्येता और आधुनिक भारत के लगभग सभी प्रमुख इतिहासकार मानते हैं कि नेहरू भारत के लिए धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र के अलावा वैज्ञानिक सोच या मिजाज (साइंटिफिक टेंपर) को सबसे महत्वपूर्ण मूल्य मानते थे. इस मायने में वह स्वाधीनता आंदोलन के अनेक शीर्ष नेताओं में गुणात्मक रूप से भिन्न नजर आते हैं. मौजूदा हुक्मरानों को नेहरू के यही मूल्य या भारत संबंधी विचार बिल्कुल नापसंद हैं. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भारत के बारे में सर्वथा अलग विचार हैं. समय-समय पर वह अपने उद्बोधनों में इसे उद्घाटित करते रहते हैं. वह भी देश को ताकतवर राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए वह आधुनिक-वैज्ञानिक सोच या दर्शन से ज्यादा अपने अतीत के पौराणिक आख्यानों और मिथकों में ‘छुपी सच्चाइयों’ को महत्व देते हैं. मौजूदा प्रधानमंत्री को धर्म के राजनीतिक मंसूबों या राजनीति के धार्मिक-आग्रहों से कोई परहेज नहीं. नेपाल के अपने आधिकारिक दौरे में काठमांडो स्थित पशुपतिनाथ मंदिर का वह सिर्फ दर्शन नहीं करते, बल्कि एक ‘बड़े पड़ोसी देश के अमीर हिंदू’ की तरह बेशकीमती पूजा सामग्री और तमाम कर्मकांडों के साथ मंदिर परिसर में असंख्य कैमरों की आखों के सामने बाकायदा रूद्राभिषेक भी करते हैं.
नेहरू के धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक मिजाज में अंधविश्वास और कर्मकांडों के सार्वजनिक-प्रदर्शन के लिए कोई जगह नहीं. संस्कृतियों और सभ्यताओं के महान अध्येता नेहरू के लिए धर्म का मतलब सिर्फ कर्मकांड नहीं है. परंपरा और विरासत के प्रतीकों से उन्हें कोई परहेज नहीं, पर वे उन्हें आधुनिकता के नये परिप्रेक्ष्य और अंतर्वस्तु के साथ पेश करते हैं. ‘द डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ इसका ठोस प्रमाण है. यही नहीं, पूरी दुनिया को देखने-समझने का उनके पास एक सुसंगत नजरिया है, जो ‘ग्लिम्प्सेज ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री’ से साफ नजर आता है. यही कारण है कि नये कल-कारखानों और नवगठित उपक्रमों में उन्हें ‘आधुनिक भारत के नये मंदिर’ नजर आते हैं. सकारात्मक सोच के साथ वह एक जनोन्मुख मध्यमार्गी के तौर पर उभरते हैं. इसलिए वह समाज और राजनीति के अनेक मुद्दों पर अपने समकालीन कांग्रेसी दिग्गजों-डॉ राजेंद्र प्रसाद, पटेल, पीडी टंडन, केएम मुंशी आदि से बिल्कुल अलग नजर आते हैं. अपने पत्रों और वक्तव्यों के जरिये वह अपने समकालीन नेताओं को आरएसएस या हिंदू महासभा जैसे संगठनों के ‘खतरनाक विचारों’ व कार्यकलापों के प्रति लगातार आगाह भी करते रहते हैं (नेहरू-पटेल : एग्रीमेंट विदिन डिफरेंस, 1933-50, एनबी ट्रस्ट).
इसका दूसरा पहलू कुछ कम दिलचस्प नहीं. अपने समय के कई बड़े सवालों पर नेहरू की कथनी-करनी में फर्क भी है. समझौते का यह दलदली-मध्यमार्ग ही है, जो उन्हें वैचारिक अंतर्विरोधों का शिकार बनाता है. आखिर अपने समय का इतना बड़ा तरक्कीपसंद नेता अपने सोलह वर्षो के कार्यकाल में राष्ट्रीय-संपदाओं के राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स के खात्मे या बुनियादी भूमि-सुधार, सबके लिए समान प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा का तंत्र खड़ा करने का साहस क्यों नहीं जुटा सका? नेहरू पूरी दुनिया में एक डेमोक्रेट के रूप में जाने गये, लेकिन आजादी के पहले ही दशक के दो बड़े फैसले उनकी लोकतांत्रिक-सहिष्णुता पर सवाल उठाते रहे! केरल में इएमएस नेतृत्व वाली वामपंथी सरकार का जबरन बर्खास्त किया जाना और कश्मीर में अपने मित्र शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर उनकी सरकार गिराना.
सबाल्टर्न-विमर्श के एक कोने में नेहरू की राजनीतिक विरासत पर एक और बहुत लाजिमी सवाल उठाया जाता है. नेहरू ने भारत जैसे असमानतामूलक वर्ग-वर्ण विभक्त समाज में ‘एफर्मेटिव एक्शन’ (आरक्षण सहित) जैसे कदमों से अपने को दूर क्यों रखा? काका कालेलकर आयोग के गठन के बावजूद उनके राज में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था संभव नहीं हो सकी. उन्हें क्यों लगता था कि इससे राजनीति का माहौल विषाक्त या जातिवादी हो जायेगा? वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एचआर भारद्वाज ने अपनी किताब में बड़े गर्व से साबित किया है कि नेहरू नौकरियों में सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण के खिलाफ थे. सवाल है, क्या आरक्षण के बगैर उस वक्त सब कुछ श्रेष्ठ और सुंदर था? नेहरू-सोच की इन सीमाओं ने भारत को समावेशी और समतामूलक समाज बनाने के उनके अपने आह्वान को भी कमजोर किया. विपन चंद्रा जैसे वामपंथी या रामचंद्र गुहा जैसे मध्यमार्गी इतिहासकार नेहरू-चिंतन के इस पहलू पर खामोश दिखते हैं. जहां तक दलित-उत्पीड़ित आरक्षण का प्रश्न है, उसे संविधान सभा ने ही हल कर लिया था. उसका श्रेय इतिहास हमेशा डॉ आंबेडकर को ही देगा, जिन्होंने जीवन-र्पयत समाज के सबसे उत्पीड़ित वर्गो के लिए संघर्ष किया.
नेहरू को याद करते हुए हमें समाज-इतिहास के ऐसे जरूरी सवालों पर भी संवाद की दरकार है. विडंबना है या दुर्योग, आज नेहरू की विरासत के अनेक सकारात्मक और उपयोगी पक्ष भी खतरे में हैं. सिर्फ हमारे समाज और इतिहास में ही उनसे मुक्ति की कोशिश नहीं हो रही है, स्वाधीनता संघर्ष से उपजे जीवन मूल्यों और भारतीय राष्ट्र-राज्य के धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक विचारों पर भी ग्रहण लगे हुए हैं. ऐसे में नेहरू अपनी तमाम कमियों के बावजूद हमारी बहुरंगी संस्कृति व विभिन्नता में एकता के राष्ट्रीय मूलाधार के प्रतीक-पुरुष लगते हैं.. उन्हें नमन!
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
urmilesh218@gmail.com