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आर्थिक तौर पर म्यांमार को पास लाने की कवायद

इंफाल-मांडले बस सेवा संबंधों में लायेगी गरमाहट नेपीटो, म्यांमार से ब्रजेश कुमार सिंह संपादक-राष्ट्रीय मामले, एबीपी न्यूज आसियान सम्मेलन और इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आने के कारण म्यांमार की राजधानी नेपीटो की तसवीरें आजकल टीवी के परदों और अखबार के पन्नों पर देख रहे हैं भारत के लोग. नेपीटो कैसा है, कब बना म्यांमार […]

इंफाल-मांडले बस सेवा
संबंधों में लायेगी गरमाहट
नेपीटो, म्यांमार से ब्रजेश कुमार सिंह संपादक-राष्ट्रीय मामले, एबीपी न्यूज
आसियान सम्मेलन और इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आने के कारण म्यांमार की राजधानी नेपीटो की तसवीरें आजकल टीवी के परदों और अखबार के पन्नों पर देख रहे हैं भारत के लोग. नेपीटो कैसा है, कब बना म्यांमार की राजधानी, कितना सुंदर है ये शहर, इसकी भी बात की जा रही है.
सामान्य तौर पर म्यांमार की खबरें भारतीय मीडिया में कम ही रहती हैं. अगर आती भी हैं तो मोटे तौर पर आंग सांग सू ची के आंदोलन या फिर आतंकी गतिविधियों और जातीय हिंसा की घटनाओं को लेकर.
हालांकि उत्तर-पूर्व में भारत की सीमा से सटा म्यांमार सांस्कृतिक तौर पर भी भारत के काफी नजदीक है, क्योंकि यहां रहने वाले ज्यादातर लोग बौद्ध धर्मावलंबी हैं. आजादी से पहले दोनों ही ब्रिटिश उपनिवेश थे और उस समय रंगून से लेकर मांडले तक भारतीय कारोबारियों की बड़ी तादाद थी. रंगून की चर्चा भारतीय शहरों में तो ठीक गांवों में भी उसी अंदाज में होती थी, जैसी चर्चा आज मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरू या कोलकाता की होती है.
लेकिन साठ के दशक में दोनों देशों के संबंधों में जो उदासीनता आयी, वो अभी तक गर्मजोशी भरे संबंधों के दौर में नहीं पहुंची है. इसका एक कारण म्यांमार का राजनीतिक घटनाक्रम भी रहा.
साठ के दशक में ही म्यांमार में सैनिक तख्तापलट हुआ और उसके बाद से आज तक तमाम राजनीतिक सुधारों के बावजूद यहां पूर्ण रूप से प्रजातंत्र नहीं आ पाया है. आंग सांग सू ची प्रजातंत्र के लिए ही आंदोलन करते हुए दो दशक तक नजर बंद रहीं. वर्ष 2010 में उन्हें नजरबंदी से आजादी मिली और 2012 के संसदीय उपचुनावों में वो अपने साथ पार्टी के 39 सदस्यों को भी जीत दिला पायीं, लेकिन अगले साल होने वाले चुनावों में उन्हें जीत हासिल होने पर भी राष्ट्रपति बनने का मौका मिलेगा, इसे लेकर आशंका बरकरार है.
भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सिंचित की हुई विदेश नीति के कारण वो म्यांमार से सैन्य शासन के दौर में दूर जाता रहा. ये दूरी आज भी किस कदर है, इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि पड़ोसी देश होने के बावजूद आज भी इंफाल और मांडले के बीच बस सेवा शुरू होने का सपना ही देखा जा रहा है. पिछले दो वर्षों से इसकी बात की जा रही है, लेकिन अभी तक सड़क ठीक करने का काम नहीं हो पाया है, जबकि महज साढ़े पांच सौ किलोमीटर की दूरी है दोनों शहरों के बीच. भारत-म्यांमार के बीच 2016 तक रेल सेवा भी शुरू करने की योजना है, लेकिन वाकई ऐसा होगा कब, किसी को नहीं पता.
यही हाल हवाई यातायात का है. आसियान सम्मेलन के सिलसिले में भारत से लोग जब म्यांमार आये, तो ज्यादातर को मजबूरी में थाईलैंड, मलेशिया या फिर सिंगापुर की हवाई सेवा का इस्तेमाल करते हुए यांगोन आना पड़ा, क्योंकि हमारी राष्ट्रीय हवाई सेवा एयर इंडिया हफ्ते में महज दो दिन यांगोन के लिए उड़ान भरती है, वो भी सीधे दिल्ली की जगह कोलकाता से. म्यांमार से भारत के जुड़ाव की हकीकत क्या है, इसका ये भी एक संकेत है. शायद यही वजह है कि जब बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार के दिन नेपीटो पहुंचे, तो म्यांमार के राष्ट्रपति से मुलाकात के दौरान सांस्कृतिक और वाणिज्यिक संबंध बढ़ाने के साथ ही यातायात संपर्क बढ़ाने पर जोर दिया.
भारत की तरफ से पिछले दशकों में म्यांमार को लेकर जो उदासीनता रही, उसी का परिणाम है कि दोनों देशों के बीच महज दो बिलियन डालर का कारोबार होने की बात कहते हुए विदेश विभाग के प्रवक्ता को भी तकलीफ हो रही थी. एक तरफ जहां म्यांमार का भारत के साथ कारोबार और आर्थिक जुड़ाव काफी कम है, वही चीन के साथ काफी अधिक.
इसका बड़ा उदाहरण खुद म्यांमार की राजधानी नेपीटो शहर है, जिसे खड़ा करने में चीन की कंपनियों की सबसे अधिक भूमिका रही है. चीन का प्रभाव किस कदर है म्यांमार पर, इसकी झलक भारत सहित दुनिया के तमाम देशों से आसियान की कवरेज करने आए पत्रकारों को भी दिखी, जब म्यांमार इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर के मीडिया सेंटर के बाहर रखे तमाम अखबार या तो मोटे तौर पर चीन की बात रख रहे थे या फिर चीन विशेष परिशिष्ट छापे हुए थे.
म्यांमार में सबसे अधिक विदेशी निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में हो रहा है और इसमें प्रभुत्व चीन की कंपनियों का है, रोड, एयरपोर्ट, इमारतें बनाने से लेकर बांध और पुल बनाने तक. यही हाल तेल और प्राकृतिक गैस के मामले में है. चीन के अलावा यहां अमेरिका, रूस, कोरिया, मलेशिया, थाइलैंड और ब्रिटेन की कंपनियों की भरमार है. लेकिन बगल में मौजूद भारत की नुमांइदगी गिनी-चुनी कंपनियां करती हैं, मसलन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में टाटा मोटर्स तो तेल और प्राकृतिक गैस में एस्सार.
भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने का सपना देख रहे प्रधानमंत्री मोदी को पता है कि अगर भारत को आगे बढ़ना है, तो उन बाजारों में भी भारत और उसकी कंपनियों को प्रवेश करना होगा, जिसमें विकास की संभावनाएं काफी अधिक हैं. ऐसे बाजारों में म्यांमार प्रमुख है, जो बाकी दुनिया के लिए धीरे-धीरे खुल रहा है और इंफ्रास्ट्रक्चर से लेकर तेल, प्राकृतिक गैस और पर्यटन के क्षेत्र में यहां संभावनाएं काफी अधिक हैं. इसी के मद्देनजर म्यांमार के राष्ट्रपति ने जैसे ही मोदी को द्विपक्षीय वार्ता के लिए अगले साल म्यांमार आने क न्यौता दिया, उन्होंने तुरंत उसे लपक लिया. मोदी बेहतर संबंधों की जमीन भी तैयार करने में लग गये हैं. म्यांमार के राष्ट्रपति यू थिया सीन और आंग सांग सू ची दोनों को याद दिलाना नहीं भूले कि भारत और म्यांमार के सांस्कृतिक रिश्ते कितने पुराने हैं और दोनों देश साथ मिलकर कैसे आर्थिक उन्नति कर सकते हैं.
आर्थिक तौर पर नजदीकी संस्कृति और सड़क दोनों के जरिये आती है, इसका अहसास है मोदी को. इसलिए वो एक तरफ जहां अपने अगले म्यांमार दौरे में ऐतिहासिक मंदिरों वाले शहर बगान में जाने की योजना बना चुके है, तो भारत, म्यांमार और थाईलैंड के बीच प्रस्तावित सड़क परियोजना को भी गति देने की कोशिश में लगे हैं. मोदी को उम्मीद है कि इंफाल-मांडले बस सेवा भी भारत और म्यांमार के संबंधों में वैसी ही गरमाहट ला सकती है, जैसा दिल्ली-लाहौर बस सेवा ने एक समय भारत-पाकिस्तान रिश्तों के मामले में किया, तो कोलकाता-ढाका बस सेवा ने भारत-बांग्लादेश मामले में. उम्मीद पर दुनिया कायम है और इसलिए भारत-म्यांमार संबंधों को नई ऊंचाई पर ले जाने की कवायद में लगे हैं मोदी आसियान सम्मेलन में उपस्थिति के बहाने.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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