पुरखों के देश से संपर्क तलाशती युवा पीढ़ी
म्यांमार में बसे भारतीय नेपीटो (म्यांमार) से ब्रजेश कुमार सिंह संपादक-राष्ट्रीय मामले, एबीपी न्यूज नेपीटो में आसियान की बैठक के आखिरी दिन म्यांमार इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर से बाहर निकलते समय एक कॉफी स्टाल पर निगाह पड़ी. स्टाल काफी सुंदर था, जिस पर सुपर कॉफी मिक्स के पैकेट दोनों तरफ सजा कर थे और एक युवक […]
म्यांमार में बसे भारतीय
नेपीटो (म्यांमार) से ब्रजेश कुमार सिंह संपादक-राष्ट्रीय मामले, एबीपी न्यूज
नेपीटो में आसियान की बैठक के आखिरी दिन म्यांमार इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर से बाहर निकलते समय एक कॉफी स्टाल पर निगाह पड़ी. स्टाल काफी सुंदर था, जिस पर सुपर कॉफी मिक्स के पैकेट दोनों तरफ सजा कर थे और एक युवक कुछ महिला कर्मचारियों के साथ सेंटर के अंदर या बाहर जा रहे हर शख्स को मुफ्त में कॉफी पिलाने में लगा हुआ था. न सिर्फ युवक, बल्किसाथ की युवतियां भी पारंपरिक म्यांमारी परिधान में थीं. पारंपरिक परिधान के तहत पुरु ष अमूमन शर्ट पहनते हैं, जिसे म्यांमार में लेगडॉन कहते हैं और कमर पर लुंगी बांधते हैं, जिसे पसो कहा जाता है. स्टॉल के करीब गया, तो युवक भारतीय जैसा लगा.
सोचा हिंदी में बात करता हूं, अगर भारतीय होगा तो समझता ही होगा. बस पूछने की देर थी कि वो युवक फर्राटेदार हिंदी बोलने लगा. मैने पूछा कि भारत से यहां आकर नौकरी कर रहे हैं या फिर खुद का कारोबार है. तब उस युवक ने अपनी पूरी पृष्ठभूमि बता दी. अपना हिंदू नाम राजीव जायसवाल बताया. तो म्यांमार में अपना आधिकारिक नाम चौ चौ वू. विजिटिंग कार्ड भी दिया, जिस पर आधिकारिक नाम ही अंगरेजी में लिखा था, कलम निकाल कर उस पर राजीव जायसवाल लिखा. मैने पूछा कि आखिर ऐसा क्यों, तो युवक ने बताया कि म्यांमार में हर भारतीय मूल के नागरिक के दो नाम हैं. एक तो म्यांमार की भाषा में और दूसरा भारतीय नाम. आगे उस युवक ने ये बताया कि उसके पूर्वज उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ से आये थे और उसका तो जन्म और पूरी परवरिश ही म्यांमार में हुई है.
दरअसल भारत और म्यांमार दोनों ही एक समय ब्रिटिश उपनिवेश थे. भारत ने 1947 में आजादी हासिल की, तो म्यांमार ने 1948 में. औपनिवेशिक काल से लेकर 1948 तक म्यांमार और भारत के लोगों के बीच न सिर्फ काफी आना-जाना था, बल्कि रंगून और मांडले जैसे तत्कालीन बर्मा के बड़े शहरों में भारतीयों की आबादी काफी अधिक थी. लेकिन 1960 में जब म्यांमार में सैनिक तख्तापलट हुआ, तो हालात बदले. भारतीयों के स्वामित्व में रहे उद्योग-धंधों का सैन्य सरकार ने राष्ट्रीयकरण कर दिया और हालात ऐसे बना दिये कि बड़े पैमाने पर भारतीय, जो पिछली कई पीढ़ियों से म्यांमार में रह रहे थे, भारत लौटने को मजबूर हुए.
हालांकि इस दौर में भी भारतीय मूल के लोगों का एक बड़ा वर्ग ऐसा रहा, जो रंगून और मांडले जैसे बड़े शहरों में तो बना ही रहा, ग्रामीण म्यांमार में भी खेती कर आजीविका चलाता रहा. ऐसे ही गांवनुमा कस्बों में से एक जियावडी भी है, जो म्यांमार की पुरानी राजधानी यांगोन और नयी राजधानी नेपीटो के बीच है. भारत से जब भी पत्रकार आते हैं, जियावडी का चक्कर जरूर लगाते हैं, क्योंकि वहां उन्हें लघु बिहार या फिर उससे भी आगे लघु भारत के दर्शन होते हैं.
मोटे तौर पर बिहार के आरा, बक्सर, मोतिहारी जैसे जिलों से 19वीं सदी के आखिरी दशकों में आये मजदूरों ने इस कस्बे को बसाया. जियावडी के बसने की कहानी ये बतायी जाती है कि तत्कालीन आरा जिले के अंदर आनेवाले डुमरांव रियासत के जागीरदार राजा केशव प्रसाद सिंह को उनकी सेवा से खुश होकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने जियावडी के आसपास की करीब बीस हजार एकड़ जमीन 99 साल के पट्टे पर दे दी.
तब पूरा इलाका जंगल था. ऐसे में राजा के आदेश पर डुमरांव रियासत के तत्कालीन दीवान रायबहादुर हरिहर प्रसाद सिन्हा 1886 में करीब साढ़े तीन हजार किसानों को इस इलाके में लेकर आये, ताकि जंगल को साफ किया जा सके. चूंकि इलाका काफी बड़ा था, इसलिए 1902 में चार हजार किसान और लाये गये.
इनमें से ज्यादातर बिहार के थे, तो कुछ उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जैसे जिले से भी. इन किसानों को सपरिवार समुद्री मार्ग से जहाज से रंगून लाया गया, जहां से फिर ये जियावडी पहुंचे, जिसका आरंभिक नाम जयवती था. कालांतर में म्यांमार की स्थानीय भाषा के प्रभाव में इसका नाम बदल कर जियावडी हो गया.
बिहार से तब के बर्मा लाये गये किसानों ने जियावडी और आसपास के इलाकों को आबाद किया और कड़ी मेहनत के साथ यहां खेती शुरू की. यही वजह रही कि म्यांमार की पहली चीनी मिल इसी इलाके में शुरू हुई. आज भी इस इलाके में दाल, गन्ना और धान की खेती खूब होती है. म्यांमार में जियावडी जैसे सवा सौ कस्बे या गांव जयपुर, रामनगर, साधुगांव और गोपालगंज इलाके में हैं, जहां के बाशिंदे मोटे तौर पर हिंदू हैं और म्यांमार की स्थानीय भाषा के साथ अपने पुरखों की भाषा भोजपुरी या हिंदी धड़ल्ले से बोलते हैं. जहां तक पहनावे का सवाल है, म्यांमार के स्थानीय परिधान के अलावा साड़ी पहने महिलाएं भी नजर आती हैं.
जहां तक पूजा-पाठ का सवाल है, भारतीय मूल के हिंदू घरों में देवी-देवताओं की पूजा तो करते ही हैं, साथ में बौद्ध बहुल म्यांमार की लोक संस्कृति के साथ घुलते-मिलते हुए भगवान बुद्ध की पूजा भी करते हैं. म्यांमार में रहने वाले भारतीय मूल के हिंदू पूजा-पाठ के मौके पर ब्राह्मणों को दान देते हैं, तो बौद्ध भिक्षुओं को भी. होली और दिवाली भी ये मनाते हैं, शादियां भी हिंदू रस्म रिवाजों से ही होती हैं, बड़े उत्साह से दुल्हे की बारात निकलती है. जहां तक भाषा का सवाल है, सरकारी स्तर पर इसकी कोई खास औपचारिक व्यवस्था न होने के बावजूद पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को घर के अंदर ही भाषा ज्ञान दे देती है.
गांवों के अलावा यांगोन और मांडले जैसे बड़े शहरों में भी भारतीय मूल के लोगों की आबादी ठीक ठाक है. पुराने रंगून और अब के यांगोन की आबादी का करीब बीस फीसदी हिस्सा अब भी भारतीय मूल के लोगों का है. यांगोन के बबेडन इलाके की 29वीं स्ट्रीट तो भारतीय मूल के लोगों से भरी पड़ी है. यांगोन के कौंग्जीडैंग स्ट्रीट के पास काली माता का भव्य मंदिर भी है. यांगोन में हिंदी और भोजपुरी भाषियों के अलावा गुजराती, तमिल और मराठी बोलने वाले भारतीय मूल के लोग भी रहते हैं.
अमूमन भारतीय समुदाय के लोग होली पर किसी बड़े पार्क में एकत्र होते हैं, तो दिवाली पर किसी होटल में. म्यांमार का अपना होली उत्सव भी होता है, जो वाटर फेस्टिवल के तौर पर दुनिया के बाकी देशों में भी मशहूर है. भारत में मनायी जानेवाली होली के बाद बर्मा की ये होली मनती है और करीब दस दिनों तक उत्सव मनाया जाता है, जिसमें भारतीय मूल के लोग अपनी होली जैसे उत्साह से ही शरीक होते हैं.
म्यांमार के भारतीय मूल के हिंदू अब भी शादियां मोटे तौर पर अंदर ही करते हैं. हालांकि इतना खुलापन जरूर आ गया है कि हिंदू चाहे किसी भी इलाके या भाषा बोलने वाले क्यों ना हों, शादियां हो जाती हैं. म्यांमार में भारतीय मूल के मुसलिम भी हैं. मुसलिम यांगोन और मांडले जैसे दो बड़े शहरों के अलावा कुछ गांवों में भी हैं. म्यांमार के सबसे बड़े शहर यांगोन के मशहूर शेडेगॉन पैगोडा के पास ही आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर की कब्रगाह है, जो जफर शाह दरगाह के तौर पर भी जानी जाती है. शुक्र वार को यहां बड़ी तादाद में भारतीय मूल के मुसलिम नमाज अदा करते हैं. म्यांमार में भारतीय मूल के लोगों की कुल आबादी सत्तर हजार के करीब है, जिसमें से ज्यादातर हिंदू हैं.
जहां तक आजीविका का सवाल है, भारतीय मूल के लोग गांवों में खेती पर आश्रित हैं, तो शहरी इलाकों में रोजगार-धंधे करते हैं. म्यांमार की सरकारी सेवा में भारतीय मूल के लोग कम ही हैं. भारतीय मूल के लोगों की पुरानी पीढ़ी तो खास शिक्षा हासिल नहीं कर पायी थी, लेकिन नयी पीढ़ी शिक्षा पर भी ध्यान दे रही है. मसलन राजीव जायसवाल जैसे युवा सामान्य स्कूली शिक्षा हासिल करने के बाद एमबीए तक की पढ़ाई कर चुके हैं और उसके बाद खुद का व्यापार. राजीव की कंपनी बीस साल पुरानी है, जो उनके पिता ने शुरू की थी. अब कॉफी मिक्स के अपने धंधे को पूरे म्यांमार में फैला रहे हैं राजीव, खास तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों से संभावित चुनौती को लेकर. राजीव को पता है कि म्यांमार का बाजार तेजी से खुल रहा है, ऐसे में मुकाबले में बने रहने के लिए आक्र ामक रणनीति अख्तियार करनी होगी. इसलिए राजीव आसियान सम्मेलन जैसे बड़े मौकों पर अपने उत्पाद की मार्केटिंग का कोई मौका नहीं छोड़ते, भले ही इसके लिए लोगों को मुफ्त में कॉफी ही क्यों न पिलानी पड़े.
राजीव जैसे भारतीय मूल के पढ़े-लिखे हुए लोग अपने पुरखों के देश से रिश्ता बनाने में लगे हुए हैं. पिछले महीने ही राजीव अपने एक रिश्तेदार के सामाजिक कार्यक्रम में शरीक होने प्रतापगढ़ गये थे. लेकिन राजीव की शिकायत ये है कि भारत और म्यांमार के बीच सांस्कृतिक संबंध इतने पुराने होने के बावजूद व्यापार बढ़ाने या ज्यादा संपर्क के साधन बनाने के लिए भारत की तरफ से पहल न के बराबर हुई है. भारतीय मूल के लोगों को इस बात की टीस है कि म्यांमार का एक पड़ोसी चीन बड़े पैमाने पर म्यांमार के बाजार पर कब्जा कर चुका है, जबकि म्यांमार से एक हजार किलोमीटर से भी अधिक की सीमा साझा करने वाला भारत इस मामले में उदासीन है.
सड़क और रेल संपर्क तो है ही नहीं, भारत के लिए सीधी हवाई उड़ानें भी कम ही हैं. ऐसे में म्यांमार में रहने वाले भारतीय मूल के लोग ये उम्मीद कर रहे हैं कि मोदी आसियान की बैठक के दौरान भारत और म्यांमार के बीच सड़क और रेल संपर्क बनाने की जो बात कर रहे हैं, उस पर तेजी से अमल करें.
मोदी को भी इनकी भारत से उम्मीदों का खुद अहसास हुआ, जब अपने तीन दिवसीय दौरे के आखिरी दिन वो भारतीय समुदाय के लोगों से मिले. गुरु वार की शाम आधे घंटे तक नेपीटो के मैक्स होटल में वो हर उस शख्स से मिले, जो म्यांमार के किसी न किसी कोने से यहां पहुंचा था. मोदी ये कहते नजर आये कि भारतीय मूल के लोग अपना एक पांव भारत में बनाये रख सकें, इसकी वो कोशिश करेंगे. मोदी की बात म्यांमार में बसे भारतीय मूल के लोगों को अच्छी भी लगी, उन्होंने मोदी-मोदी के नारे भी लगाये, अब उम्मीद ये कि मोदी की अगुवाई वाले सरकार के दौर में पुरखों के देश से संपर्क और गहराये. आखिर पीएम मोदी ने उनके मन में भी उम्मीद जो जगा दी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)