वोटर डाल-डाल तो नेताजी हैं पात-पात
झारखंड में विधानसभा चुनाव का शोर है. नेताजी हाथ जोड़े दरवाजे पर खड़े हैं. वोटरों के नखरे उठाते हैरान-परेशान हैं. कोई एक नखरा हो तो संभल जाये, पर जितने दर उतने नखरे. राजनीति क्या-क्या ना करवाये? पैसे का क्या मोल है, चारों ओर बस झोल है. हर उम्मीदवार की जेब तोल रहा वोटर है. भारी […]
झारखंड में विधानसभा चुनाव का शोर है. नेताजी हाथ जोड़े दरवाजे पर खड़े हैं. वोटरों के नखरे उठाते हैरान-परेशान हैं. कोई एक नखरा हो तो संभल जाये, पर जितने दर उतने नखरे. राजनीति क्या-क्या ना करवाये? पैसे का क्या मोल है, चारों ओर बस झोल है.
हर उम्मीदवार की जेब तोल रहा वोटर है. भारी जेब को प्रणाम, हल्के को दूर से ही राम-राम. नेताओं से अपने और अपने राज्य को पांच साल लुटवाने का हिसाब वोटर को इन्हीं 20 दिनों में चुकता करना है. किसी को निराश करके भला कैसे जाने देना है. जो नेता यह सोचते हैं कि वे वोट की कीमत दे रहे हैं, दरअसल वे निहायत बुड़बक हैं.
क्योंकि हमारे यहां पैसे लेकर भी काम नहीं करने का रिवाज है, और देने वाले अकेले तुम्ही नहीं हो. दो का चार, चार का बारह करना हमको भी आता है, यह हुनर भी तो हमने आपसे ही सीखा है. और तो और अभिवादन स्वरू प बढ़े हाथ को नहीं थामना भी तो अशिष्टता है. जो नेता अपनी जाति भिड़ा कर, भाई-भतीजावाद के रैपर में खुद को लपेट कर, दरवाजे की कुंडी खटखटा कर बैठक में दाखिल हो भी जा रहे हैं, उनके भी तोते हाथ में रह नहीं पा रहे. एक-एक जाति से दस-दस उम्मीदवार.
ऐसे में गांव और जिला-जवार के बहाने रिश्तेदारी ढूंढ़ने के अलावा कोई और रास्ता बचता नहीं. चुनाव के समय कुकुरमुत्ते की तरह रिश्तेदार उग आयें तो हैरानी नहीं. पर उनका जीवनकाल भी कुकुरमुत्ताें की तरह ही है, आज उगे, कल गायब. उनके हारने-जीतने का भी जीवन जगत पर कोई असर नहीं पड़ता. अब वोटर तो चालाक है, हर जात को पहचानता है. चुनाव में मिले आश्वासनों और भरोसे की घुट्टी को वह बीमारी ठीक करने वाला टॉनिक नहीं, बल्कि खारा पानी ही समझता है, जो ना पीने के काम आयेगा और ना ही कपड़े धोने के. अब उस खारे पानी को उबालने, उससे नमक छानने का टाइम किसके पास है.
ऐसे भी राजनीति में शुद्धीकरण की गुंजाइश है कहां? लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि वोटर इतना सयाना हो गया है कि उसे कोई ठग न पाये. हां, इतना जरू र है कि उन्हें रिझाने के पुराने तरीके अपना असर खो रहे हैं. ऐसे में विकास के नारे का छौंक लगना भी जरू री है. जो पैसे, मुर्गा-दारू , जात-पात, धर्म के शीशे में नहीं उतर सकें, उनके लिए यह फामरूला खाली नहीं जाता. कई बार आजमाया हुआ यह फामरूला आजकल सबसे हिट है. किसको इतनी फुरसत कि नेताओं से रोडमैप मांगे, पुराना रिकॉर्ड देखे. ऐसे भी नेतृत्व नया हो, तो समझो कि सब बातें हुईं पुरानी. यानी, जो हुआ सो भूल जाओ, नये नेतृत्व में आस्था जताओ. अनास्थावादी मत बनो. लोकतंत्र में किसी बात का महत्व है, तो वह है चुनाव जीतने का. ना उसके आगे कुछ और उसके पीछे. तो वोटर भी अपनी पूरी चालाकी और सामथ्र्य इसी समय लगाते हैं. फिर उसके बाद पांच साल न उसे मतलब है, न नेता को.
रंजीत प्रसाद सिंह
प्रभात खबर, जमशेदपुर
ranjeet.singh@prabhatkhabar.in