जी-20 में मोदी की कामयाबी के मायने
मोदी ने यह प्रमाणित कर दिया है कि वह जब देश से बाहर रहते हैं, तब भी देश में गरम बहस के मुद्दे को भूलते नहीं. जर्मन बनाम संस्कृत वाली बहस ने भी मोदी तथा एंजेला मार्केल की मुलाकात का रुख मोड़ दिया है- मार्केल ही याचक मुद्रा में नजर आने लगी हैं. जी-20 शिखर […]
मोदी ने यह प्रमाणित कर दिया है कि वह जब देश से बाहर रहते हैं, तब भी देश में गरम बहस के मुद्दे को भूलते नहीं. जर्मन बनाम संस्कृत वाली बहस ने भी मोदी तथा एंजेला मार्केल की मुलाकात का रुख मोड़ दिया है- मार्केल ही याचक मुद्रा में नजर आने लगी हैं.
जी-20 शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए नरेंद्र मोदी के ऑस्ट्रेलिया रवाना होने से पहले उनकी इस यात्रा के बारे में नुक्ताचीनी आरंभ हो गयी थी. आलोचकों का मानना था ‘दिग्विजयी’ राजनयिक अभियान को जारी रखने के चक्कर में भारत के नये प्रधानमंत्री देश के सामने मुंह बाये खड़ी चुनौतियों से मुंह चुरा रहे हैं. दूसरी तरफ प्रशंसक समर्थकों का कहना है कि अरसे से जड़ विदेश-नीति को तत्काल गतिशील बनाये बिना भारत प्रगति कर ही नहीं सकता. पड़ोस हो अथवा बड़ी शक्तियां, भूमंडलीकरण के इस युग में आंतरिक तथा विदेश-नीति में फर्क करना कठिन होता जा रहा है.
जैसा कि मोदी की आदत है, इस यात्रा पर निकलने के पहले ही उन्होंने नया चुस्त फिकरा गढ़ डाला था. नरसिंह राव के कार्यकाल से प्रचलित ‘लुक इस्ट’ की जगह ‘एक्ट इस्ट’ को प्राथमिकता देने की बात मोदी करने लगे. इस नये मुहावरे का शब्दार्थ और भावार्थ समझने-समझाने में विश्लेषक व्यस्त हैं! हमारी राय में सबसे पहले यह समझ लेना जरूरी है कि यह दौरा सिर्फ ऑस्ट्रेलिया तक सीमित नहीं है, वास्तव में पड़ोस, दक्षिण पूर्व एशिया, भारत वंशजों के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है. म्यांमार की राजधानी नाय-प्यी-दो में आयोजित आसियान सम्मेलन का सदुपयोग मोदी ने इस संवेदनशील पड़ोसी के बारे में स्वयं को आश्वस्त करने के लिए किया और न केवल इसलामी सल्तनत ब्रूनेई के सुल्तान के साथ मुलाकात की, वरन् विपक्ष की प्रतिनिधि आंग सान सू की से भी भेंट की. म्यांमार की अलग यात्रा किये बिना ही उस देश के आर्थिक विकास में योगदान की पेशकश कर डाली. मोदी वहां बचे-खुचे भारतवंशियों को भी नहीं भूले. कुल मिला कर दशकों से सक्रिय चीन के साथ स्पर्धा या मुठभेड़ की मुद्रा अख्तियार किये बिना उभयपक्षी संबंधों में गतिरोध काफी हद तक दूर किया जा सका.
ऑस्ट्रेलिया के बारे में दो-चार बातें रेखांकित करने की जरूरत है. वहां की सरकार 2004 से ही मोदी और गुजरात के साथ दोस्ताना रिश्ते कायम करने में लगी हुई थी. आज तब बोई फसल को काटने का वक्त आ पहुंचा है. यह उल्लेखनीय है कि जहां अन्य देशों से पूंजी निवेश को आकर्षित करने की बात होती है, ऑस्ट्रेलिया में भारत के अदानी समूह द्वारा साढ़े सात अरब डॉलर निवेश का समाचार इस घड़ी सुर्खियों में है! यह निवेश खनिज खदानों के क्षेत्र में हैं, जहां पर्यावरण से जुड़ी संवेदनशीलता के कारण सरकारी अनुमतियां हासिल करना कठिन होता है. यह बात कम लोग याद रखते हैं कि खनिज-खदान क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया की जरूरतें तथा विशेषज्ञता दुनियाभर में मशहूर हैं. मध्य प्रदेश के विभाजन के पहले बैलडीला परियोजना में ऑस्ट्रेलिया की हिस्सेदारी चर्चित रही है. भले ही परमाण्विक ईंधन वाला मुद्दा हाल के दिनों में हमारी ‘प्राथमिकता’ में छाया रहा है, यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सहयोग सहकार की बहुत गुंजाइश है.
ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के आकार का एक अनोखा देश है. वह भौगोलिक रूप से एशिया में स्थित है, पर राजनीतिक -सामरिक विरासत के मामले में यूरोप की ही संतान है. इसके अलावा शीत युद्ध के लंबे दौर में वह अमेरिका तथा ब्रिटेन का संधिमित्र रहा है. वह खुद को नयी दुनिया का अभिन्न अंग समझता है और दावा करता रहता है कि उसकी संस्कृति बहुलवादी समन्वयात्मक है, क्योंकि वह आव्रजकों का देश है. प्राकृतिक संसाधनों से असाधारण रूप से संपन्न ऑस्ट्रेलिया की तुलना इस मायने में अफ्रीकी महाद्वीप से की जा सकती है कि इन संसाधनों पर दुनिया भर की नजर रहती है- अपने राष्ट्रहित में इनके दोहन के लिए. खाद्य सुरक्षा हो या ऊर्जा सुरक्षा, ऑस्ट्रेलिया को अंतिम सीमांत या गुप्त खजाना बतलानेवाले बेबुनियाद बात नहीं करते. विडंबना यह है कि भारत के लिए ऑस्ट्रेलिया की अहमियत क्रिकेट तक ही सीमित रही है!
हाल के वर्षो में यह बदलाव जरूर आया है कि पढ़ने और पढ़ाने के बहाने रोजी-रोटी कमाने के लिए भारतीय बड़ी तादाद में ऑस्ट्रेलिया जाने और वहां बसने लगे हैं. बीच-बीच में गोरे नस्लवादी ऑस्ट्रेलियाई नागरिकों की हिंसा का ये शिकार भी होते रहे हैं. इस कारण ऑस्ट्रेलिया भारत के बीच राजनयिक तनाव भी पैदा हुआ है. जो भारतीय अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन नहीं जा पाते, उनकी मंजिल ऑस्ट्रेलिया है. पशुपालन, खेती तथा वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में सहकार की असीम संभावनाएं हैं, जिनकी नींव राष्ट्रकुल परिवार के अच्छे दिनों में डाली जा चुकी है.
जहां तक सामरिक संवेदनशीलता का सवाल है ऑस्ट्रेलिया अपने उत्तर में फैले इंडोनेशिया के प्रति सुकर्णो के राज के ‘क्रांतिकारी युग’ से ही आशंकित रहता आया है. वहां कट्टरपंथी इसलाम से प्रेरित दहशतगर्दी के तहत कुछ ही बरस पहले बाली नाइट क्लब बम धमाके हो चुके हैं. इसके अलावा दैत्याकार चीन के दक्षिण की तरफ विस्तारवादी प्रसार ने भी उसे चौकन्ना किया है. ऑस्ट्रेलिया की आर्थिक खुशहाली और तरक्की दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ जुड़ी है. वियतनाम, मलेशिया को वह अपना स्वाभाविक बाजार-मित्र पड़ोस समझता है, इसीलिए आसियान में उसकी गहरी दिलचस्पी रही है. मजेदार बात यह है कि प्रशांत महासागर के रास्ते अमेरिका के पश्चिमी तट तक पहुंचानेवाले वैकल्पिक मार्ग के कारण भी ऑस्ट्रेलिया महत्वपूर्ण है. इस वक्त रूस के साथ हल्के मनमुटाव की वजह से एवं चीन की बौना बना देनेवाली छत्रछाया से बाहर निकलने को आतुर ऑस्ट्रेलिया भारतीय विकल्प का महत्व समझता है. इस बात को मोदी बखूबी समझते हैं.
निश्चय ही यह मोदी के ‘करिश्मे’ का असर है कि ऑस्ट्रेलिया पहुंचने पर जापानी प्रधानमंत्री उनके सम्मान में भोज देते हैं- ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री तो गदगद हैं ही. ओबामा इस बात से प्रसन्न हैं कि खाद्यान्न अनुदान विषयक गतिरोध समाप्त हो गया है, तो चीनी राष्ट्रपति के साथ एक मुलाकात में गलतफहमियां दूर करने का एक और मौका मोदी को मिला है. यह भी ना भूलें कि काले धन के सवाल का अंतरराष्ट्रीयकरण कर मोदी ने एक तुरूप चाल चल दी है. इसलामी दहशतगर्द हों या संगठित अपराधी, काले धन पर ही टिके रहते हैं. इसे रेखांकित कर मोदी ने यह प्रमाणित कर दिया है कि वह जब देश से बाहर रहते हैं, तब भी देश में गरम बहस के मुद्दे को भूलते नहीं. जर्मन बनाम संस्कृत वाली बहस ने भी मोदी तथा एंजेला मार्केल की मुलाकात का रुख मोड़ दिया है- मार्केल ही याचक मुद्रा में नजर आने लगी हैं. कुल मिला कर जी-20 के शिखर सम्मेलन में मोदी ने भारत को निश्चय ही निरंतर पहली पंक्ति में स्थापित करने में सफलता प्राप्त की है.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com