संत रामपाल की घटना और हरियाणा में भाजपा की नवगठित सरकार की विफलता भारतीय संविधान पर न मिटनेवाला धब्बा बन गया है. हरियाणा सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों का पूरा करने में विफल हुई है.
संविधान के गर्भ से उपजी सरकार अगर संविधान की रक्षा में विफल रहती है, तो केंद्र सरकार का क्या फर्ज है? यह नरेंद्र मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है. अब उसे तय करना है कि वह संवैधानिक दायित्वों को पूरा कैसे करती है.
हरियाणा के हिसार स्थित सतलोक आश्रम के संचालक स्वयंभू संत रामपाल, पंजाब एवं हरियाणा हाइकोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हुए अदालत में फिर पेश नहीं हुए. इस पर अदालत ने रामपाल को ड्रामेबाज बताया और सरकार को भी आड़े हाथों लिया और किसी भी तरह उसे शुक्रवार को पेश करने का आदेश दिया है. इस बीच भारी पुलिस बंदोबस्त के बावजूद रामपाल के फरार होने की खबरें भी आ रही हैं. यह घटनाक्रम महज एक आरोपी के अदालत का सामना करने से बचने का मामला नहीं है, बल्कि सरकार, प्रशासन और कानून-व्यवस्था के साथ-साथ हमारे समाज पर एक गंभीर सवाल भी है. लोकतंत्र को कानून का शासन कहा जाता है.
इस कानून आधारित शासन को कबीलाई तरीके से चुनौती देने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती. अगर कोई ऐसा करता है, तो इसका अर्थ है कि लोकतंत्र के मान और मूल्यों पर उसका विश्वास नहीं है. अगर हरियाणा के हिसार सरीखी घटनाएं आये दिन होती हैं, तो इसके कारण किसी व्यक्ति या संस्था की ताकत में नहीं, बल्कि खुद हमारे लोकतंत्र के सामाजिक और राजनीतिक चरित्र में खोजे जाने चाहिए. लोकतंत्र का कानून आधारित शासन होना जितना बड़ा सच है, उतना बड़ा सच यह भी है कि विधान की रचना और उसका अनुपालन चुनाव में जीत कर आनेवाले प्रतिनिधियों पर निर्भर करता है. यह जरूरी नहीं कि हर निर्वाचित प्रतिनिधि साख के मामले में अपने इलाके में सर्वोच्च हो. लोगों की निष्ठा के केंद्र में एक से ज्यादा व्यक्ति और संस्थाएं होती हैं. भारत जैसे देश में, जहां जाति एवं धर्म की संरचनाएं बहुत मजबूत हैं, ज्यादातर जन-प्रतिनिधि अपनी साख को बनाने-बचाने के लिए अकसर इलाके की जाति-धर्म की संरचनाओं से गंठजोड़ करते हंै. हरियाणा में कोई जन-प्रतिनिधि खाप-पंचायतों के गणित की अवहेलना करके विधानसभा या लोकसभा में पहुंचने की उम्मीद नहीं कर सकता. ठीक इसी तरह वह इस बात की उपेक्षा नहीं कर सकता कि हरियाणा के मध्यवर्ग के मूल्यबोध को ऐतिहासिक रूप से आर्य समाज ने गढ़ा है.
स्वाभाविक रूप से इस वर्चस्व के बरक्स हरियाणा के कुछ हिस्सों में धार्मिक मनोभाव की नुमाइंदगी करती कई और सत्ताएं मठ और आश्रम के रूप में उठ खड़ी हुई हैं. पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए भक्तों की भीड़ जुटा कर अपने आश्रम को एक अभेद्य किले में बदल देनेवाले संत रामपाल ऐसी ही एक संस्था (सतलोक आश्रम) के मुखिया हैं और इस झमेले के केंद्र में है इस आश्रम के समर्थकों का आर्य समाजियों के साथ हुआ हिंसक टकराव. दरअसल, जनता की आस्था और निष्ठा का केंद्र बननेवाली ये सत्ताएं धन और ताकत के मामले में बहुधा स्थानीय कानून-व्यवस्था के लिए एक कड़ी चुनौती साबित होती हैं.
मठ, महात्मा और भक्तों की तिकड़ी अपने आप एक स्वायत्त राजनीतिक सत्ता का रूप ले लेती है. स्वयं को महात्मा घोषित करनेवाले बाबा संज्ञाधारी लोग वैध सत्ताओं के समान ही चंदे या दान के रूप में एक तरह से राजस्व वसूली करते हैं, जागीरें कायम करते हैं और इस जागीरदारी के भीतर भक्तजनों पर आदेश और अनुसरण की एक अटूट श्रृंखला बनाते हैं. राज्यसत्ता के बरक्स शक्ति का समानांतर केंद्र बननेवाले मठ और मठाधीश, इलाके के जन-प्रतिनिधियों के लिए एक मजबूरी भी होते हैं और माध्यम भी. राजनेता जानते हैं कि वोट बटोरने के लिए ही नहीं, बल्कि चुने जाने के बाद प्रभाव कायम रखने के लिए भी ऐसे मठाधीश का आशीर्वाद जरूरी है.
जन-प्रतिनिधियों का यही रवैया मठाधीशों को कानून तोड़ने का हौसला देती है. यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर चार दिन तक हरियाणा सरकार कर क्या रही थी. यही वजह है कि भारत को ‘सॉफ्ट स्टेट’ कहा जाता रहा है. भूलना नहीं चाहिए कि कांग्रेस की इसी विफलता पर सवार होकर भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ हुई है. संवैधानिक मूल्यों को खुलेआम चुनौती देनेवाले गिरोहों को अगर समय रहते काबू में न लाया गया तो भारत को बचा पाना मुश्किल होगा.