मोरचाबंदी चाहे राजनीतिक हो या कूटनीतिक, अकुशल नेतृत्व और दृष्टिहीनता के कारण उसका अंजाम हताशा में ही प्रकट होता है. प्रदेश की राजनीति पर चुनावी रंग गहराने के साथ जिन रूपों में महत्वाकांक्षा प्रकट हो रही है, वह जनाकांक्षा को मन मुताबिक मोड़ने के प्रयास से भरी हुई है.
झामुमो का घोषणा पत्र पहले स्थानीयता जैसे मसलों पर चुप था, बाद में इस बारे में पूछे जाने पर उसे छपाई में त्रुटि बताया गया. मुख्यमंत्री के लिए आदिवासी की अनिवार्यता की बात करनेवाले हेमंत सोरेन अब और आगे बढ़ कर कहने लगे हैं कि झामुमो की सरकार बनी तो बाहरी को नौकरी नहीं मिलेगी. कुछ दिन पहले तक उनकी पार्टी झारखंड में रहनेवाले सभी लोगों को झारखंडी मानती थी. उसी पार्टी से आनेवाले मुख्यमंत्री यदि अब ऐसा कहने लगे हैं तो कहना होगा कि विकास को लेकर जनता की आकांक्षाओं से उन्हें कोई सरोकार नहीं है. ऐसे सियासी रुख आनेवाले दिनों में झारखंड की चुनावी राजनीति को हताशा की किस गर्त में ले जायेंगे, यह देखना अभी बाकी है.
डोमिसाइल की तोप चला कर बाहरी-भीतरी करनेवाले बाबूलाल मरांडी को अपनी सियासी जमीन बचाने में कितना पसीना छूट रहा है, यह कौन नहीं जानता. चुनाव में लोक-लुभावन वादों, नारों और दावों में मतदाता को उलझानेवाली पार्टियां लोगों को रिझाने के क्रम में भूल जाती हैं कि उनके अंदाज जनता-जनार्दन में झुंझलाहट भी पैदा करते हैं.
झारखंड निर्माण के प्रबल विरोधी लालू यादव जो यह कहते नहीं थकते थे कि झारखंड उनकी लाश पर बनेगा, उन्हीं लालू यादव को इस सियासी माहौल में लगने लगा है कि 81 सीटों वाली विधान सभा में राजद को 15 सीट भी मिल जाये तो झारखंड में उनकी ही सरकार होगी. खुद को किंग मेकर कहनेवाले लालू को भी पता है कि ऐसा कहने के बाद उनके सहयोगी दल बिदक भी सकते हैं. महत्वाकांक्षा जब सर चढ़ कर बोलने लगती है तो फिर लोग उसे साकार करने के लिए अपेक्षित दक्षता और कौशल को गैरजरूरी मान बैठते हैं. राजनीति में भी अभी यही हो रहा है. सत्ता हासिल करने के लिए पार्टियां जनता को अभी सब्जबाग दिखा रही हैं, लेकिन अगर जनता की उम्मीदें फिर टूटीं तो उसमें हताशा और गहरी हो जायेगी.