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सेना के रवैये में बदलाव के संकेत

शुजात बुखारी वरिष्ठ पत्रकार मानवाधिकार संस्था- जम्मू-कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसायटी के अनुसार, अब तक 58 कोर्ट मार्शल में सिर्फ दो में सजाएं दी गयी हैं. न्याय देने के लिए जरूरी है कि लंबित मामलों का समुचित निपटारा हो. तीन कश्मीरी युवाओं को साल 2010 में एक फर्जी मुठभेड़ में मार देने के आरोप में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 21, 2014 5:55 AM
शुजात बुखारी
वरिष्ठ पत्रकार
मानवाधिकार संस्था- जम्मू-कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसायटी के अनुसार, अब तक 58 कोर्ट मार्शल में सिर्फ दो में सजाएं दी गयी हैं. न्याय देने के लिए जरूरी है कि लंबित मामलों का समुचित निपटारा हो.
तीन कश्मीरी युवाओं को साल 2010 में एक फर्जी मुठभेड़ में मार देने के आरोप में सेना के कोर्ट मार्शल में एक कर्नल सहित पांच सैनिकों को उम्रकैद दिये जाने के फैसले पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं. उत्तरी कश्मीर के एक गांव से ‘आतंकवादी’ करार देकर सेना द्वारा उठाये गये और नियंत्रण रेखा के नजदीक मचिल में मार दिये गये तीन नागरिकों के परिवारजनों ने इस फैसले का स्वागत तो किया है, लेकिन वे इससे भी बड़ी सजा चाहते थे- ‘हत्यारों के लिए मौत की सजा’.
फैसले से 10 दिन पहले कश्मीर में सेना को बहुत बड़ी शर्मिदगी उठानी पड़ी थी. श्रीनगर के बाहरी हिस्से में सैनिकों ने एक चलती कार पर गोलीबारी कर दो किशोरों की हत्या कर दी थी. सेना के उत्तरी क्षेत्र के सर्वोच्च कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल हूदा ने गलती मानी और सेना की ओर से इस घटना की जिम्मेवारी ली. बीते 14 नवंबर को भी सेना को आलोचना का सामना करना पड़ा, जब दक्षिण कश्मीर में आतंकियों से मुठभेड़ के बाद सेना द्वारा कथित रूप से एक नागरिक को मार दिया गया. उसी दिन उत्तर कश्मीर के हंदवारा शहर के एक स्थानीय विधायक राशिद शेख ने दो सैनिकों पर सादी वर्दी में एक नागरिक की हत्या करने का आरोप लगाया.
हालांकि, सेना ने इन घटनाओं में शामिल होने से इनकार किया है, लेकिन मुकदमे दर्ज हो चुके हैं.
इन हंगामों के बीच मचिल मुठभेड़ मामले में आया ‘सकारात्मक’ फैसला बहुत प्रभावकारी नहीं हो सकता है. हालांकि, पांच दोषियों को सैनिक अदालत द्वारा उम्रकैद की सजा देना महत्वपूर्ण मामला है, क्योंकि सेना दो दशकों से अधिक समय से अपनी ज्यादतियों को मानने से इनकार करती रही है, लेकिन फिर भी यह भरोसा बहाल होने की संभावना नहीं है कि सेना न्यायपूर्ण निर्णय कर सकती है. इसका कारण है कि सेना और अर्ध-सैनिक बलों की गलतियों को बार-बार ऊंचे स्वर में दोहराये जानेवाले ‘राष्ट्र के लिए’ के नारे से ढंक दिया जाता है. कश्मीरियों को भारतीय मीडिया से भी शिकायत है कि वह दोषी सैनिकों के बारे में खबर देते हुए खुद ही ‘राष्ट्रवाद’ का भावनात्मक शिकार है.
विवादास्पद आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट (आफ्स्पा) के तहत मिले विशेषाधिकार सेना के लिए दोषी सैनिकों को बचाने में ढाल का काम करते हैं. पिछले हफ्ते पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम ने आफ्स्पा को ‘घृणित’ बताते हुए कहा था कि एक आधुनिक और सभ्य समाज में इसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए. माना जाता है कि बतौर गृह मंत्री उन्होंने इस कानून में कुछ संशोधन प्रस्तावित किये थे, लेकिन रक्षा मंत्रलय के विरोध के कारण वे खारिज कर दिये गये. प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर के अनुसार, इस मुद्दे पर पुनर्विचार होना चाहिए. नैयर ने डेक्कन हेराल्ड में छपे अपने एक लेख में लिखा है, ‘महज संदेह के आधार पर किसी को मार देने का अधिकार एक लोकतांत्रित देश के लिए अतिरंजित है.’
लेफ्टिनेंट जनरल हुदा का सैनिकों द्वारा दो किशोरों की हत्या का सार्वजनिक स्वीकार और मचिल मामले का फैसला 20 से अधिक वर्षो के सेना के रवैये में बदलाव का संकेत है, लेकिन लोगों का भरोसा जीतने के लिए बहुत कुछ करना होगा. सूचना के अधिकार के तहत 23 फरवरी, 2012 को जम्मू-कश्मीर गृह विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार 70 मामलों में जांच की अनुमति लंबित पड़ी हुई थी. ये मामले हिरासत में हुई मौतों और फर्जी मुठभेड़ों में सैनिकों के शामिल होने से जुड़े हैं.
जब राज्य सरकार या पुलिस अपनी जांच में पाती है कि घटना में सेना के जवान शामिल हैं, तो वह आगे की कार्रवाई के लिए रक्षा मंत्रलय से औपचारिक अनुमति मांगती है, जिसे अधिकतर मामलों में ठुकरा दिया जाता है. एक अन्य जानकारी के मुताबिक, सीमा सुरक्षा बल ने 1990 के बाद से हत्या और बलात्कार के विभिन्न मामलों में अपने 40 जवानों को सजा दी है, लेकिन ये सजाएं अपेक्षाकृत कम हैं. सोपोर में छह जनवरी, 1993 को 40 से ज्यादा लोगों की हत्या को सीमा सुरक्षा बल ने ‘शरारत’ भर कह कर दोषी जवानों को मामूली सजाएं दी. मार्च, 2000 में पांच निदरेष नागरिकों को फर्जी मुठभेड़ में मार देने की पथरीबल घटना में दोषी सैनिकों को सैनिक अदालत ने बरी कर दिया. सेना न तो पारदर्शिता बरतती है और न ही नागरिक अदालतों को सहयोग करती है.
मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज मानते हैं कि मचिल फैसला न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को परिलक्षित नहीं करता है, बल्कि यह दर्शाता है कि सेना के हित कैसे न्याय और उत्तरदायित्व के ऊपर हैं. मानवाधिकार संस्था- जम्मू-कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसायटी के अनुसार, अब तक 58 कोर्ट मार्शल में सिर्फ दो में सजाएं दी गयी हैं. न्याय देने के लिए जरूरी है कि लंबित मामलों का समुचित निपटारा हो.
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