अतिशय भोग की आग में! – 2
भाईश्री महान स्वतंत्रता सेनानी और गांधी जी के प्रिय पंडित रामनन्दन मिश्र के पुत्र हैं. इनका नाम है उदय राघव. माता-पिता प्यार से अन्ना कह कर पुकारते थे. अन्ना के नाम से ही मित्र बुलाते हैं. अन्ना जी ने डॉक्टरी (एमबीबीएस) की पढ़ाई की. फिर अपने वृद्घ पिता की सेवा और आध्यात्मिक साधना में निमग्न […]
भाईश्री महान स्वतंत्रता सेनानी और गांधी जी के प्रिय पंडित रामनन्दन मिश्र के पुत्र हैं. इनका नाम है उदय राघव. माता-पिता प्यार से अन्ना कह कर पुकारते थे. अन्ना के नाम से ही मित्र बुलाते हैं. अन्ना जी ने डॉक्टरी (एमबीबीएस) की पढ़ाई की. फिर अपने वृद्घ पिता की सेवा और आध्यात्मिक साधना में निमग्न हुए. अब अध्ययन और साधना उनके जीवन के हिस्से हैं. अत्यंत मामूली ढंग से रहना. बहुत सादगी में जीना. पर दुनिया की ताजा और नवीन खबरों के साथ-साथ अध्यात्म का इतना गहरा अध्ययन जीवित लोगों में कम देखने को मिलेगा. उनके साथ बातचीत का पहला हिस्सा कल आपने पढ़ा, जिसमें उन्होंने बताया कि आज जो भी विकृतियां नजर आ रही हैं, उनका कारण है अतिशय भोग. इससे छुटकारा पाये बिना कोई मूल्य टिक नहीं सकता. आज पढ़िए, इस बातचीत की दूसरी और अंतिम किस्त.
हरिवंश
गतांक से जारी..
अगर ईश्वर हैं, तो जीवन में कैसे दिखते हैं? गांधी को, विवेकानंद को, रामकृष्ण परमहंस को, रमण महर्षि को या अन्य जो हमारे बड़े ऋषि-महर्षि हुए, उनको कहां दिखायी देते थे और कैसे प्रेरित करते थे?
ये सारे महापुरुष, जिनका तुमने नाम लिया या जिनका नहीं लिया, वे अपने-अपने ढंग से उस महान सत्य का परिचय देते थे. जिसको रामकृष्ण परमहंस काली कहते हैं, वही ब्रह्म है. वही रमण महर्षि की स्वरूपावस्था है. अपने-अपने ढंग से सब बात करते हैं. जिस काली से रामकृष्ण परमहंस की बात होती है, उसे वहां बैठे अन्य लोग नहीं देखते. उसे सिर्फ रामकृष्ण परमहंस देखते हैं. आप इसीलिए यहां तक कह देते हैं कि वो हैलुसिनेशन (दृष्टिभ्रम, माया) है. लेकिन ऐसा नहीं है.
रामकृष्ण परमहंस की मुहब्बत ऐसी है कि वह जो विराट है, वो उसके सामने, उसके प्यार की खातिर काली का रूप लेकर आ जाता है. यह बड़ा दुर्लभ है. यह सब के साथ नहीं होगा. रामकृष्ण परमहंस की मुहब्बत, तपस्या के कारण ऐसा होता है. यह उनका व्यक्तिगत है. इसी को रमण महर्षि ने अपने ढंग से बताया. अन्य महापुरुषों ने भी अपनी नजर से देखा, तो उसे अपने ढंग से बताया. चैतन्य महाप्रभु नाचते हैं, तो नंगा बाबा शांत बैठे रहते हैं. सब उसी के भिन्न-भिन्न एंगल्स (रूप) का परिचय देते हैं. देखने का अलग-अलग नजरिया है. क्या उस सत्य को पूरी तरह से कोई देख पाया है? उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. उस विराट को उसकी संपूर्णता में देखना संभव नहीं है.
हम एक छोटे रूप में देखते हैं उसे. मेरा जो अनुभव है, उसके अनुसार एक अनुभवकर्ता जब डूबने लगता है, तो उसके अंतिम क्षण तक एक सीमा है, उसके देखने की. वह कहता है कि ‘अहम ब्रह्मास्मि’. यही बहुत है. इसे कम मत आंको. क्योंकि इसके बाद अनुभवकर्ता डूबने लगता है. वह समाने लगता है. जैसे रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि नमक का पुतला समुद्र में जाता है, तो गल जाता है. एक ग्लास पानी को आप समुद्र में डाल देंगे, तो फिर क्या उसे वापस खोज पायेंगे? वह तो समुद्र के साथ मिल गया. घुल गया. इसी तरह उस विराट को उसकी संपूर्णता में समेटना संभव नहीं है. इसलिए क्या होता है कि अलग-अलग नजरिये से आपको उसका परिचय मिलता है.
बुद्ध के, राम के, कृष्ण के विजन सचमुच शानदार हैं. नानक, कबीर, तुलसी, मीरा, रमण महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, ये सब अपने-अपने ढंग से उस विराट का परिचय दे रहे हैं. आप देखिए कि आप कितने भाग्यवान हैं कि उस विराट के अलग-अलग रूप आपको किताबों में पढ़ने को मिल रहा है. उसी विराट को सभी महापुरुष अपने-अपने ढंग से कहते हैं. किसी भी धर्म के, किसी भी देश के महापुरुष, संत-महात्मा वगैरह. लेकिन इस विराट को संपूर्णता में समेटना संभव नहीं है. वह कैसा है, कहने में विनम्रता होनी चाहिए. हमको कहने से पहले इस बात का एहसास होना चाहिए कि उस विराट की
संपूर्णता का परिचय हम नहीं दे सकते. हम जो बोल-कह रहे हैं, वो एक मामूली प्रयास है, एक खास दृष्टिकोण से. इसलिए सोने से मढ़ी हुई सींग वाली गायों को महर्षि याज्ञवल्क्य, अपने शिष्यों से कहते हैं कि ले जाओ बांध कर अपने आश्रम! फिर उन्हें पता चलता है कि ये सब गायें आर्यवर्त्त के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी के लिए सुरक्षित हैं, जिसका फैसला जनक की राजसभा में हो रहा है. जनक आते हैं. उन्हें सादर सभा में ले जाते हैं. तो वहां पहले से मौजूद ऋषि उनसे पूछते हैं कि क्या तुम खुद को आर्यवर्त्त का सबसे बड़ा ज्ञानी समझते हो, जो उन गायों को बांध कर ले गये? इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य हाथ जोड़ लेते हैं और कहते हैं कि ऐसा नहीं है.
मुझे आश्रम में गायों की जरूरत थी. क्योंकि मेरे साधकों, मेरे बच्चों को दूध नहीं मिल रहा था. इसलिए मैंने अपने शिष्यों से कहा कि इन गायों को आश्रम में ले जायें. मैं तो इस पथ पर चलने वाला एक साधारण इंसान हूं. लेकिन जब गायों को मैंने अपने आश्रम में भेज दिया है, तो आपके प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश मैं जरूर करूंगा. तब ऋषिगण उनसे प्रश्न करते हैं और याज्ञवल्क्य उनका जवाब देते हैं. इसके विषय में अधिक जानकारी के लिए आप वृहदारण्यक उपनिष्द पढ़िए.
इसका बड़ा सुंदर प्रसंग है, वहां. इसलिए इस परंपरा में यहां, जिस देश में हम रहते हैं, यहां जैसी बातें कही गयी हैं, विचारी गयी हैं, वह हमारे जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करती हैं. थोड़ी गहराई में डूबने के लिए कहती हैं, हमें अनुप्रेरित करती हैं कि हम इंद्रिय सुखभोग को बहुत महत्व नहीं दें. मैं यह नहीं कहता कि आप उपवासी होकर धरती पर रहने आये हैं. ऐसा नहीं है. महात्मा बुद्ध भी कहते हैं कि दो अंतों (टू एक्सट्रीम्स) का त्याग करो. मध्यम मार्ग अपनाने की प्रेरणा देते हैं, यहां पर बुद्ध. वह भी कहते हैं कि उपवासी होने की जरूरत नहीं है. कभी-कभार थोड़ा बहुत चलता है.
भगवान ने जिह्वा दी है, तो थोड़ा सा खा लिया. लेकिन आज तो पूरा शास्त्र खड़ा है, रेसिपीज का. सुबह से शाम तक बस यही दिखाते रहते हैं. जो भोजन, आदि शंकराचार्य के लिए क्षुधा निवारक औषधि (क्षुधा नामक रोग की औषधि) था, वह आज एक बहुत बड़ा शास्त्र या क्या कहें, मेरे पास इसके लिए शब्द नहीं है, बन गया है. मेरा विचार यही है कि एक असंतुलित जीवन है, एक असंतुलित समाज है.
युवाओं के बारे में जानना चाहता हूं. एक खबर पढ़ रहा था कि दुनिया में सबसे अधिक आत्महत्याएं भारत में हो रही हैं. युवा जीवन शुरू करते हैं. बेहतर जीवन पाते हैं. नौकरी पाते हैं. इसे हम एव्रीथिंग नाऊ जेनरेशन (सबकुछ तुरंत पाने की इच्छा रखनेवाली पीढ़ी) भी कहते हैं.
यह एकदम समानांतर है. हम भारतीय हैं, इसलिए आत्महत्या करते हैं. अगर हम अमेरिका में हैं, तो हत्या करते हैं. आप देखिए, अमेरिका में पिछले कुछ वर्षो में स्कूलों में, सड़क पर, कॉलेजों में हत्याओं का कैसा सिलसिला शुरू हो गया है. यहां तक कि नेवल बेस (नौसैनिक अड्डे) में घुस कर पिछले साल 12-13 लोगों को मार दिया. स्कूलों में आये दिन संहार होता रहता है. अब वो चूंकि अमेरिकी हैं, उनका संस्कार कुछ और है, इसलिए वो हत्या करते हैं. और हम चूंकि भारतीय हैं, हमारा संस्कार कुछ और है, हम थोड़े और ढंग से पले-बढ़े हैं, इसलिए हम दूसरे का जीवन नहीं लेते हैं, अपना ही जीवन ले लेते हैं.
इसका कारण मूल रूप से एक ही है. अतिशय भोग. उसकी लालसा, उसकी कामना. और उसका अभाव हमें आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करता है. कुछ जेनुइन भी है. जैसे किसान कर्ज लेकर बीज लाता है, खाद लाता है, और फसल नहीं होती है, तो आत्महत्या कर लेता है. कहां से चुकायेगा कजर्? लड़कियां बेची जाती हैं. उनका सौदा होता है. इसलिए अगर आप युवाओं के संदर्भ में पूछते हैं, तो मैं कहूंगा कि वह करेगा क्या? उसे चाहत का बड़ा सुंदर, गुलाब का बाग आप दिखाते हैं.
गुलाब के बाग में उसे आप रोज ले जा रहे हैं. कैसे ले जायेंगे रोज, बाग में सबको? आप कुछ चीजें सभी लोगों को दे सकते हैं, लेकिन आप सभी लोगों को सभी चीजें नहीं दे सकते हैं. यह संभव नहीं है. लेकिन आपने उसे जो दिखाया, उससे उनके भीतर एक लालसा जग गयी कि हमारा भी ऐसा घर होता, हमें भी यह सब मिलता, मेरे बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़ते, मुङो भी अच्छी चिकित्सकीय सुविधा मिलती.. वगैरह.
यह कैसे संभव है? सड़क पर ये जो युवा घूम रहा है, वह रमण महर्षि नहीं है. वह रामकृष्ण परमहंस नहीं है. वह एक साधारण इंसान है, जिसके ऊपर इन सारी चीजों का, दिखाये गये सपनों का एक गहरा असर पड़ता है. बाजार सजा हुआ है और उस बाजार से हम गुजर रहे हैं, तो आप क्या आशा करते हैं? क्या मैं बुद्ध की तरह तटस्थ होकर चला जाऊंगा? नहीं. मैं तो इंसान हूं. मेरी भी इच्छा है. मुङो भी इच्छा होती है, शर्ट-पैंट पहनने की, आइपैड, आइपॉड, लैपटॉप लेने की. मोबाइल की.
मेरे यहां जो काम करता है, उसने भी अभी सात हजार का मोबाइल खरीदा है. क्योंकि उसकी भी इच्छा है. वह भी उसमें सिनेमा देखेगा. भजन नहीं सुनेगा. सिनेमा देखेगा. गंदी फिल्में देखेगा. उसके अंदर भी वो लिप्सा जग गयी. बहुत रेयरली कोई होता है, जो उस लिप्सा को समझा-बुझा कर शांत कर पाये. इसलिए युवा की बात क्या करें? वह बेचारा करे, तो क्या करे? आज हमारे नेता कहते हैं कि हमारे आइआइटी का नाम नहीं हो पा रहा है. ये नहीं हो रहा है. वो नहीं हो रहा है.
ये सब होगा कैसे? आज कोई आइआइटी या आइआइएम में ज्ञान पाने जाता है? वह तो लाखों रुपये की नौकरी पाने जाता है. वह जानता है कि वहां से पढ़ेंगे, तो आसानी से अच्छी नौकरी मिल जायेगी. जब ‘मंगलयान मिशन’ पर पीएम ने बधाई दी, तो इसरो के चेयरमैन ने पत्रकार-सम्मेलन में एक पत्रकार के सवाल के जवाब में कहा कि मुश्किल से आइआइटी के 18-20 फीसदी इंजीनियर हमारे यहां हैं. शेष इंजीनियर साधारण कॉलेज से आये हैं. यह बयान कैसे समाज का रिफलेक्शन (प्रतिबिंब) है, इसे समझिए. इसरो अध्यक्ष ने आइआइटी की थोड़ी प्रतिष्ठा बचाते हुए कहा कि नहीं, साधारण कॉलेज के इंजीनियरों को हम अपने ढंग से तैयार कर लेते हैं.
आज ही इंटरनेट पर पढ़ा कि मुंबई विश्वविद्यालय ने हार्वर्ड को, एमआइटी को, सभी को बीट कर (पछाड़) दिया. विश्व में सबसे अधिक अरबपति मुंबई विश्वविद्यालय ने ही पैदा किये हैं. जब ऐसी परिस्थिति है, शिक्षा संस्थानों की, तो युवा करेंगे क्या? उन्हें सिखाया क्या जाता है? मेरे मित्र ने अपने बेटे के सामने बहुत गुस्से में कहा था, तो बेटे ने कहा कि आपने मुझे कोलकाता के कॉलेज में क्यों भर्ती कराया. वहां तो यही सब बातें होती हैं. बड़ी-बड़ी नौकरी, घर और गाड़ी वगैरह की बातें. युवाओं के लिए एक हमदर्दी है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है. उनके सामने जो आदर्श खड़ा है, उसी के पीछे वो भाग रहे हैं.
आप कैसे उनका मुंह मोड़ दीजिएगा? उन्हें कैसे समझा दीजिएगा कि भोग का रास्ता छोड़ दो. जब तक वह घटित नहीं हो जायेगा. आप अक्सर दिल्ली जाते हैं, इसलिए एक सवाल का जवाब दीजिए कि जिन कारणों से पिछले साल आप बाल-बाल बचे थे, बद्रीनाथ में, उन कारणों में से दस फीसदी को भी सरकार हटा पायी? जो रुपये-पैसे सरकार ने खर्च किये वो तो सब डूब गये. बह गये. इस बार तो चार धाम की यात्र नहीं हो पायी. रोज जहां 40-50 हजार आदमी जाते थे, वहां अब 100-150 भी नहीं जा पा रहे हैं. वह सड़कें आप बना नहीं पाये. वह सुविधा आप श्रद्धालुओं को फिर नहीं दे पाये हैं, लेकिन जो बिजली बनाने और सुरंग बनाने का काम हो रहा था, वह जारी है. क्या सीखा हमने केदारनाथ हादसे से? क्या परिवर्तन? कैसा परिवर्तन? हम कुछ भी नहीं सीख रहे हैं, उन संकेतों से.
कश्मीर में बाढ़ आयी. पहाड़ पर बाढ़ आयेगी? कहीं तो कुछ गड़बड़ी है. जहां पहाड़ हो और वहां बाढ़ आये, वह भी ऐसी कि 14-15 दिन रहे और पूरे शहर में तबाही मचाये. श्रीनगर में बाढ़ आयी. बद्रीनाथ पहाड़ है, लेकिन वहां बाढ़ आयी. क्यों? इसलिए युवा की बात नहीं है. वह अच्छे रास्ते पर, अच्छे लोगों के पीछे क्यों जायेगा? आपका समय था, तो आपने एसी वगैरह चला लिया और जब हमारी बारी आयी तो आप कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिग है, एसी मत चलाओ. हम क्यों मानेंगे आपकी बात? हम भी भोग करेंगे. हम भी एसी लगायेंगे. प्रश्न है कि उन युवाओं को कैसे उस भोगवादी या उनकी विचारधारा से हटाया जाये? मैंने कहा न मनुष्य को पशुता के आधार से हटा कर अध्यात्म का, भगवान का आधार देना ही एकमात्र उपाय है. यह ईश्वरीय शक्ति से ही संभव है.
इस देश में परंपरा रही है, नचिकेता जैसी. वह छोटा बालक तो सच बोलता है. जिसे सबकुछ देने को तैयार हैं. उन अलभ्य चीजों को भी देना चाहते हैं जो सभी इंसानों को नहीं मिलतीं, तब भी वह जानना चाहता है कि मृत्यु क्या है? इस देश में ऐसा कैसे हुआ?
धीरे-धीरे इसका स्तर नीचे गिरा है, तपस्या के अभाव में. बात बहुत गहरी है. यह नित्य परिवर्तनशील जगत है. यहां कुछ भी टिकता नहीं है. आपका शरीर भी परिवर्तनशील है. अब ऐसे नित्य परिवर्तनशील जगत में जहां पर कुछ भी नहीं टिकता है, आप किसी एक भावना को टिका कर रखना चाहते हैं, तो आपको त्याग करना पड़ेगा, तपस्या करनी होगी. आप किसी सद्भावना को, किसी हायर वैल्यू को, उच्च मूल्यों को, किसी जीवन-आदर्श को, किसी समाज में टिका कर रखना चाहते हैं, तो उस समाज के लोगों को तप-त्याग करना होगा. तब वो चीज समाज में टिकती है.
आज क्यों नचिकेता का आदर्श पीछे छूट गया? क्यों गांधी का आदर्श छूट गया? क्यों विनोबा का आदर्श छूट गया? क्यों ये आदर्श आज अप्रासंगिक हो गये? क्योंकि उस रास्ते पर चलने में कष्ट है. दूसरों के लिए थोड़ा त्याग है. मेरी जेब में पांच सौ रुपये हैं. मैं आसानी से पांच सौ की चीज खरीद सकता हूं. लेकिन मैं ऐसा न करके 100-200 रुपये की चीज खरीद लेता हूं और बाकी बचे रुपयों से मैं दूसरे की जरूरतों की चीजें पूरा करने में लगा हूं. पर इसमें कष्ट है. त्याग है, ऐसा करने में.
मैं ऐसा क्यों करूं? इसलिए अगर आप इस नश्वर जगत में, नित्य परिवर्तनशील जगत में किसी चीज को टिकाये रखना चाहते हैं, तो निजी जीवन में तपस्या करनी पड़ेगी. सामूहिक जीवन में कुछ लोगों को तपस्या करनी पड़ेगी. एक हजार लोगों के समूह में 5-10 लोगों को वैसा जीवन जीना पड़ेगा. वैसा त्याग-तपस्या वाला जीवन जीना पड़ेगा समाज में. तब जाकर समाज में इसका असर पड़ेगा. और समाज को नयी दिशा मिलेगी.
समाज ऐसे नहीं खड़ा होता है. यह एक प्रवाह है, जिसमें सब बह जाता है. इसलिए धरती कभी छोटी नहीं हुई. बराबर ऋषि-मुनि इस देश में रहे. आश्चर्य की बात है कि आज करीब 25-30 वर्षो से यह देश सूना है. कोई नहीं है. इसलिए इस नित्य परिवर्तनशील जगत में किसी चीज को अपरिवर्तनशील रखना है, जो बदले नहीं, वह टिके आपके जीवन में, तो तपस्या और साधना छोड़ कर कोई दूसरा रास्ता नहीं है. न पहले था और न आगे कभी होगा. भोगी मन त्याग-तपस्या की प्रेरणा नहीं देता. मन कैसे बदलोगे? हृदय-परिवर्तन होगा कैसे? सरकारों को बदल कर, कानून बना कर मन नहीं बदल सकते. ईश्वरीय शक्ति ही व्यापक स्तर पर हृदय-परिवर्तन में सक्षम है. उस ईश्वरीय शक्ति का आवाहन करना होगा. समाप्त