अच्छा है कि सम्मेलन के पहले दिन नवाज शरीफ पाकिस्तान के विकास, विजन 2025 और 19वां शिखर सम्मेलन इसलामाबाद में कराने की बात कर रहे थे, लेकिन यदि वे सचमुच ‘विवादमुक्त दक्षेस’ की कामना कर रहे थे, तो उन्हें 26/11 को भी याद कर लेना चाहिए था.
पाकिस्तान को चाहिए कि वह चीन को यूरोपीय संघ का सदस्य बनाये जाने का प्रस्ताव दे. यह एक अच्छा कूटनीतिक मजाक होगा. वैसा ही मजाक, जो अभी काठमांडो में 18वें दक्षेस बैठक में चल रहा है.
चीन, भौगोलिक रूप से पूर्वी एशिया का देश है. यह सच है कि चीन की सीमाएं भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, भारत और अफगानिस्तान से मिलती हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चीन को सार्क का सदस्य बना लें. सीमाएं रूस की भी, दक्षेस के आठवें सदस्य अफगानिस्तान से मिलती हैं. फिर तो रूस को भी सार्क का सदस्य बन जाना चाहिए. यदि ऐसा होता है, तो दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) का नाम बदल देना होगा और चीन समेत सार्क के सभी नौ ‘ऑब्जर्वर’ देशों को भी इसमें शामिल कर लेना होगा.
यह कुछ पटरी से उतरा हुआ प्रस्ताव है, जिसकी शुरुआत नेपाल ने ही 12-13 नवंबर, 2005 को ढाका शिखर सम्मेलन में की थी. उस समय नेपाल के तत्कालीन नरेश ज्ञानेंद्र ने चीन को सार्क की सदस्यता प्रदान करने का प्रस्ताव दिया था. बाद के दिनों में बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका भी ‘चीन बुलाओ, सार्क बचाओ’ अभियान का हिस्सा बन गये. शिखर सम्मेलन से ठीक पहले नेपाल के तीन मंत्रियों रामशरण महत (वित्त), महेंद्र बहादुर पांडे (विदेश) और मिनेंद्र रिजाल (सूचना प्रसारण) ने बयान दिया था कि चीन को सार्क का सदस्य बनाया जाना जरूरी है. क्या हो सकता है इसके पीछे नेपाल का मकसद? सार्क सम्मेलन पर चीन की छाया क्यों गहरी हो रही है? इन प्रश्नों की पड़ताल ठीक से की जानी चाहिए.
26-27 नवंबर का शिखर सम्मेलन काठमांडो के जिस राष्ट्रीय सभा गृह में संपन्न हो रहा है, उसे 43 साल पहले चीन ने बनवाया था. 2015 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनपिंग नेपाल आ रहे हैं. इसलिए संभव है नेपाली नेता चीन को प्रसन्न करने के लिए इस तरह का प्रस्ताव दे रहे हों कि देखिये, राजा की गद्दी जाने के बाद भी सार्क में चीन को शामिल किये जाने के एजेंडे से हम पीछे नहीं हैं. ऐसा पहली बार हुआ कि नेपाल में सार्क सम्मेलन के दौरान मोदी जी की सुरक्षा का घेरा चीन ने तैयार किया था. इसकी समीक्षा की जानी चाहिए कि क्या इसके लिए सार्क के आठ देश सक्षम थे? सार्क सम्मेलन की चौकसी के लिए चीन ने 10 करोड़ युआन की सुरक्षा सामग्री दी थी. इनमें स्कैनर, सीसीटीवी कैमरे, मैटल डिटेक्टर और 10 लग्जरी बुलेटप्रूफ गाड़ियां चीन से भेजी गयी थीं. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने ‘ऑल वेदर फ्रेंड’ चीन की बुलेटप्रूफ कार पर सवार होने में कोई दिक्कत नहीं हुई. इस साल जून में नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला चीन गये थे, तभी चीन ने दक्षेस सम्मेलन की सुरक्षा के वास्ते इन उपकरणों और वाहनों को भेजना तय कर लिया था. चीन को दक्षेस शिखर सम्मेलन की सुरक्षा की इतनी चिंता क्यों रही है? क्या चीन इस तरह का सुरक्षा कवर देकर सार्क नेताओं की निगरानी कर रहा था? या फिर सार्क में पैसे का टोटा पड़ गया है? मोदी जी को चाहिए था कि नेपाल को हेलीकॉप्टर भेंट करने के बदले इस बार दक्षेस की सुरक्षा के लिए जो कुछ भी संसाधन और आर्थिक सहयोग की जरूरत पड़ती, उसे भारत मुहैया कराता. दक्षेस में भारत अब तक इसलिए दबंग है, क्योंकि यहां चीन नहीं है. गौरतलब है कि भारत के समर्थन के कारण ही अफगानिस्तान दक्षेस का आठवां सदस्य बन पाया.
चीन बार-बार सदस्यता से वंचित रह जाता है, तो उसका कारण भारत है. दक्षेस में भारत का कद छोटा करने की कवायद में नेपाल ही नहीं, पाकिस्तान भी उतनी ही शिद्दत से सक्रिय है. इसके बावजूद, भारत ने नेपाल में सहयोग के आयाम को आगे बढ़ाया है. काठमांडो के बीर अस्पताल में डेढ़ अरब रुपये का नेशनल ट्रॉमा सेंटर खोलना, पांच सौ और हजार रुपये के भारतीय नोट के नेपाल में चलने देने से रोक हटाना, दिल्ली-काठमांडो बस सेवा, अरुण तेस्ने जल विद्युत परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए नौ एमओयू पर हस्ताक्षर इसके सुबूत हैं. मगर, इसके बावजूद नेपाल की चीन-भक्ति में कमी आयेगी?
मोदी जी जनकपुर, लुंबिनी और मुक्तिनाथ अगली बार जायेंगे. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने नेपाल की जनता को इसका भरोसा दे दिया है. मोदी की जनकपुर यात्र के स्थगित किये जाने को भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसे पेश किया गया, मानो पूरा मधेस मोदी के जनकपुर नहीं आने से आंदोलित है, मर्माहत है. मुख्य वजह स्थानीय राजनीति थी. नेपाली कांग्रेस, जनकपुर के जानकी मंदिर में मोदी की सभा चाहती थी, बाकी बीस पार्टियां बारहबीघा नामक मैदान में समारोह करना चाहती थी. ऐसा नहीं है कि सिर्फ राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण प्रधानमंत्री मोदी की जनकपुर यात्र रद्द की गयी. इसके पीछे सुरक्षा भी एक बड़ा कारण रहा है. नेपाली समाचार पत्र ‘अन्नपूर्णा पोस्ट’ ने 19 नवंबर को सुषमा स्वराज और शेर बहादुर देउबा की दिल्ली में मुलाकात के हवाले से लिखा था कि भारत को इस समय दो चीजों से मतलब है-एक, सार्क सम्मेलन के समय नेपाली नेता आपस में लड़े-भिड़े नहीं. दूसरा, प्रधानमंत्री मोदी की चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था हो. इससे पहले भारतीय खुफिया एजेंसियों ने नेपाल को अलर्ट किया था कि सार्क सम्मेलन के दौरान इंडियन मुजाहिदीन, अल कायदा किसी बड़े ‘टारगेट’ को उड़ा देने की योजना बना रहे हैं. यह संभव था कि आतंकवादी 26/11 की छठी बरसी पर काठमांडो में कोई कांड करते, लेकिन पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मौजूदगी के कारण शायद ऐसे किसी कारनामे को अंजाम देने के पक्ष में आतंकवादी न रहे हों.
पिछले तीस वर्षो में सार्क के 17 शिखर सम्मेलन हुए, उसमें से दो-चार को छोड़ सारे शिखर सम्मेलनों में भारत-पाक के मुद्दे हावी रहे थे, मीडिया का फोकस भी इन्हीं दो देशों के नेताओं पर रहता था. अच्छा है कि नवाज शरीफ सम्मेलन के पहले दिन पाकिस्तान के विकास, ‘विजन 2025’ और 19वां सार्क शिखर सम्मेलन इसलामाबाद में कराने की बात कर रहे थे. लेकिन, यदि नवाज शरीफ सचमुच ‘विवादमुक्त दक्षेस’ की कामना कर रहे थे, तो उन्हें छह साल पहले 26/11 को याद कर लेना चाहिए था. अपने पूरे भाषण में आतंकवाद और अलगाववाद को समाप्त करने की उन्होंने चर्चा तक नहीं की. हां, नरेंद्र मोदी ने नवाज शरीफ को 26/11 की याद दिला ही दी. दक्षेस के मंच पर मुंबई हमले की चर्चा करना कूटनीति के हिसाब से सही था या गलत, इसकी समीक्षा तो होगी ही. यदि नवाज शरीफ, तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हैं, तो दक्षेस में विकास और विश्वास के नये संकल्पों का क्या होगा?
पुष्परंजन
संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
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