उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
संघ-भाजपा के लोग महेंद्र प्रताप को एक जननायक नहीं, बल्कि एक ‘सियासी-औजार’ भर मान रहे हैं. महेंद्र प्रताप के नाम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक संवेदनशील क्षेत्र में वे अपनी चुनावी-तैयारी को खास शक्ल दे रहे हैं.
देश के प्रमुख अखबारों के एक कोने में लखनऊ डेटलाइन से छपी एक खबर पर नजर गयी तो मैं चौंक-सा गया. 26 नवंबर को छपी यह खबर अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय (एएमयू) और भाजपा से संबंधित है. पार्टी की प्रदेश इकाई ने 1 दिसंबर को एएमयू के मुख्य द्वार पर ‘जाट-राजा’ महेंद्र प्रताप की याद में उनका जन्मदिन-समारोह आयोजित करने का ऐलान किया है. फिलहाल इसकी शुरुआत विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार से हो रही है, पर भविष्य में यह समारोह कैंपस के अंदर आयोजित किया जायेगा. संवाददताओं के बीच इस आशय का ऐलान स्वयं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने 25 नवंबर को लखनऊ में किया. इसमें संघ, विश्व हिंदू परिषद् और बजरंग दल सहित संघ से जुड़े तमाम संगठन बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेंगे.
लखनऊ, दिल्ली, मेरठ, अलीगढ़, मथुरा या वृंदावन के किसी हॉल या मैदान में उनका जन्मदिन समारोह आयोजित किया जाता, तो सबको खुशी होती. फिलहाल, एएमयू के मुख्य द्वार पर और निकट भविष्य में उसके अंदर ऐसा समारोह आयोजित करने का क्या मतलब है?
अलीगढ़ में इस मुद्दे पर राजनीतिक-दलबंदी जारी है. प्रशासन सतर्क है. आश्चर्य है कि केंद्र सरकार या भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से इस मुद्दे पर अब तक कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया है. लाल किले की प्राचीर से स्वाधीनता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिये भाषण को याद करते हुए ऐसा लग रहा था कि अगले दस वर्षो तक देश में किसी तरह का सांप्रदायिक तनाव न पैदा करने संबंधी अपने जन-आह्वान के मद्देनजर वह इस बारे में अविलंब हस्तक्षेप करेंगे.
अब थोड़ा जान लें कि भाजपा की प्रदेश इकाई ने जिन महेंद्र प्रताप को ‘जाट-राजा’ के विशेषण के साथ एएमयू में हर साल याद करने का फैसला किया है, वह कौन थे और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में उनका क्या योगदान रहा. भाजपा या संघ से जुड़े अन्य संगठनों के विचारों और महेंद्र प्रताप की सोच व विचारधारा के बीच का क्या कोई रिश्ता बनता है? महेंद्र प्रताप या महेंद्र प्रताप सिंह कोई प्राचीन काल के मिथकीय चरित्र नहीं हैं और न ही वह मध्यकालीन इतिहास में दर्ज कोई स्थानीय ‘हिंदू-राजा’ हैं! उनके बारे में उपलब्ध अधिकृत तथ्यों की जितनी खोज-पड़ताल हो सकी, उसके मुताबिक वह हाथरस के पास की एक छोटी सी रियासत-मुर्सन से संबद्ध थे.
उनका जन्म 1 दिसंबर, 1886 को हुआ और अप्रैल, 1979 में उनका देहांत हो गया. जींद (हरियाणा) के एक जाट-सिख रियासती खानदान में उनकी शादी हुई. सर सैय्यद अहमद खां द्वारा अलीगढ़ में स्थापित मोहम्मदन एंग्लो कॉलेज (अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय का शुरुआती रूप) के शिक्षकों ने उन्हें पढ़ाया. विश्वविद्यालय की स्थापना और उसके विस्तार में उनका और उनके परिवार का भी योगदान था. किशोरावस्था से ही महेंद्र प्रताप को अपनी रियासती-पृष्ठभूमि की तनिक भी परवाह नहीं थी. अपने कई परिजनों, खास कर ससुराल वालों की सलाह को खारिज करते हुए वह आजादी की लड़ाई में कूद पड़े. उनके कुछ परिजन-रिश्तेदार चाहते थे कि वह पढ़-लिख कर अपनी खानदानी रियासत को आगे बढ़ाएं.
महेंद्र प्रताप 1906 में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने कलकत्ता चले गये. दादा भाई नौरोजी, तिलक और विपिन चंद्र पाल से वह खासा प्रभावित थे. बुद्ध, मार्क्स, गांधी, टाल्स्टॉय के विचारों को उन्होंने ठीक से पढ़ा और समझा था. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारत को आजाद कराने के लिए विदेश में जो छिटपुट प्रयास हुए, महेंद्र उनमें बढ़-चढ़ कर शामिल थे. 1915-16 के दौरान अफगानिस्तान में भारत की जो पहली अस्थायी (निर्वासित) सरकार बनाने की कोशिश हुई, उसके नेतृत्वकारी दस्ते में महेंद्र प्रताप और मौलवी बरकतुल्ला शामिल थे.
वहां उन्होंने भारत की अस्थायी सरकार के गठन का ऐलान किया. उसकी कैबिनेट में पूरे भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व था. भारत आने पर वर्धा जाकर वह गांधी जी से भी मिले. गांधी ने उन्हें 1946-47 के सांप्रदायिक तनाव भरे माहौल में सद्भाव बनाने और लोगों की सेवा में जुटने की जिम्मेवारी सौंपी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया. एक समय लेनिन के आमंत्रण पर वह रूस भी गये. देश की आजादी के बाद वह सामाजिक-राजनीतिक-सामुदायिक स्तर पर सक्रिय रहे. पिछड़े किसान समुदायों के उन्नयन और पंचायती राज पर उनका ज्यादा जोर था.
दूसरे लोकसभा चुनाव में वह निर्दलीय प्रत्याशी बने और मथुरा से सांसद भी बने. बाद का ज्यादा वक्त उन्होंने सामाजिक-सामुदायिक कामकाज को दिया. कुछ समय जाट महासभा के अध्यक्ष भी रहे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक समय उन्हें ‘प्रेम-धर्म’ (रिलीजन ऑफ लव) की सेक्युलर धारणा के जनक के रूप में जाना-पहचाना गया. वृंदावन में उन्होंने प्रेम महाविद्यालय भी खोला था. अपनी सारी निजी संपत्ति, जमीन-जायदाद उन्होंने सामाजिक उपक्रमों और संस्थाओं को दान दे दी.
सोच और संवेदना के स्तर पर पूरी तरह सेक्युलर, आधुनिक और तरक्कीपसंद महेंद्र प्रताप को संघ परिवार से जुड़े किसी संगठन ने 1925 (संघ स्थापना वर्ष) से अब तक शायद ही कभी याद किया हो. लेकिन 2014 में भाजपा और संघ को उनके व्यक्तित्व में अचानक एक नया ‘हिंदू जाट-राजा’ मिल गया है. चलो, थोड़ी देर के लिए संघ के तर्क को ही गंभीरतापूर्वक लेते हैं कि ऐसे कार्यक्रमों के जरिये उसके सदस्य देश के विस्मृत नायकों को सामने ला रहे हैं, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति? काश, संघ-भाजपा का एजेंडा इतना ही पाक होता! सच तो यह है कि महेंद्र प्रताप को वे एक जननायक नहीं, एक ‘सियासी-औजार’ भर मान रहे हैं. उनके नाम पर पश्चिम यूपी के इस संवेदनशील क्षेत्र में वे अपनी चुनावी-तैयारी को खास शक्ल दे रहे हैं. उन्हें कोई परवाह नहीं कि महेंद्र प्रताप जैसे सेक्युलर व्यक्तित्व का वे खतरनाक ध्रुवीकरण के लिए दुरुपयोग कर इतिहास के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं!
झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के कई आदिवासी-बहुल क्षेत्रों में भी संघ की तरफ से इस तरह के ‘राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रयोग’ होते रहे हैं. एक समुदाय, क्षेत्र या समाज के किसी नायक-महानायक को किसी दूसरे समुदाय के खिलाफ खड़ा कर अपनी सियासी रोटियां सेंकने के अनेकों उदाहरण हैं. इसका उन्हें राजनीतिक फायदा भी मिला है.
यही कारण है कि सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमि के नाम पर विभाजन और विभेद की प्रवृत्ति के खतरे बढ़ रहे हैं. वे जानते हैं कि महेंद्र प्रताप की यादों के झंडे के नीचे जिस तरह की गोलबंदी हो रही है, वह जाटों के बीच पैदा हुए उस महान स्वाधीनता सेनानी की विचारधारा से बिल्कुल उलट है, पर वे यह भी जानते हैं कि सबसे मुखर मध्यवर्गीय समाज में बढ़ते वैचारिक-अंधेरे के इस दौर में जब हर शाम करोड़ों घरों में सूचना और ज्ञान के नाम पर एक खास ढंग के ‘मानस का निर्माण’ हो रहा हो, सच को झूठ और झूठ को सच साबित करना कितना आसान है!