कमजोर राजनीतिक नेतृत्व है समस्या की जड़

विद्युत चक्रवर्ती राजनीतिक विश्लेषक संसाधनों का सही मायने में उपयोग तभी हो सकता है, जब राजनीतिक नेतृत्व का नजरिया स्पष्ट हो. क्योंकि किसी भी समस्या का समाधान राजनीतिक स्तर से ही संभव है. संसाधनों के साथ ही झारखंड में छोटे उद्योगों और कृषि क्षेत्र के विकास की काफी संभावनाएं हैं. सरकार स्थानीय जरूरतों को ध्यान […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 28, 2014 1:58 AM
विद्युत चक्रवर्ती
राजनीतिक विश्लेषक
संसाधनों का सही मायने में उपयोग तभी हो सकता है, जब राजनीतिक नेतृत्व का नजरिया स्पष्ट हो. क्योंकि किसी भी समस्या का समाधान राजनीतिक स्तर से ही संभव है. संसाधनों के साथ ही झारखंड में छोटे उद्योगों और कृषि क्षेत्र के विकास की काफी संभावनाएं हैं. सरकार स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अगर विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाये, तो झारखंड का सही तरीके से विकास हो सकता है.
झारखंड में देश के कुल प्राकृतिक संसाधनों का 40 फीसदी हिस्सा उपलब्ध है, लेकिन यह राज्य विकास के मामले में सबसे पिछड़ा हुआ है. इसकी वजह साफ है कि राज्य में राजनीतिक नेतृत्व कभी भी मजबूत नहीं रहा है. राजनीतिक नेतृत्व की कमी के कारण राज्य न सिर्फ विकास के मामले में पिछड़ा है, बल्कि गरीबी, अशिक्षा के मोरचे पर भी स्थितियों में कोई बदलाव नहीं आया है. लंबे संघर्ष के बाद झारखंड का गठन हुआ. आंदोलनकारियों को उम्मीद थी कि संसाधन और वन संपदा के अकूत भंडार के बल पर राज्य समुचित विकास के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ पाने में सफल होगा.
लेकिन गठन के बाद से ही ये सपने बेमानी साबित होने लगे. झारखंड की बुनियाद कैसी होगी, यह उसी समय पता लग गया था, जब आदिवासियों के शोषण के खिलाफ आंदोलन करनेवाले और सबके स्वीकार्य नेता शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोरचा के सांसदों ने 1993 में केंद्र में नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने के लिए रिश्वत ली थी. भले ही तकनीकी कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने झामुमो सांसदों पर सांसद रिश्वत कांड में मामला चलाने की इजाजत नहीं दी, फिर भी संभावना थी कि बिहार से अलग होने के बाद झारखंड न सिर्फ औद्योगिक तौर पर विकास करेगा, बल्कि प्रशासनिक तौर पर भी बेहतर शासित राज्य बनेगा. लेकिन गठन के कुछ वर्षो बाद ही झारखंड भ्रष्टाचार की शरणस्थली बन गया. प्राकृतिक संसाधन राजनीतिक वर्ग के लिए लूट का सबसे बड़ा साधन बन गये.
आगे चल कर विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट होने लगी. राजनीतिक अस्थिरता ने इस लूट को व्यापक बना दिया. सत्ता की अनिश्चितता ने प्रशासनिक कामकाज पर भी प्रतिकूल असर डाला. साथ ही राज्य में अपराधियों, नेताओं और कॉरपोरेट के बीच सांठगांठ बन गयी. यही नहीं राजनीतिक अस्थिरता के कारण राज्य में नक्सलियों का प्रभाव कम होने की बजाय बढ़ता गया. यह सही है कि नक्सलवाद विकास में सबसे बड़ा बाधक है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि झारखंड बनने के बाद नक्सलवाद का प्रभाव कम होने की बजाय क्यों बढ़ा है?
इसका सबसे बड़ा कारण है प्रशासन की नाकामी. अस्थिर सरकार, लचर प्रशासन और नेताओं और नक्सली संगठनों के बीच सांठगांठ. अक्सर नेताओं के नक्सली संगठनों से मिलीभगत की खबरें आती रहती हैं. हाल ही में झारखंड सरकार के एक मंत्री को इस कारण अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. ऐसे में झारखंड में नक्सलवाद कम होने की उम्मीद बेमानी है.
आज झारखंड नक्सल आंदोलन का केंद्र बिंदु बन गया है. एक ओर सरकार की नाकामी और दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद यहां के लोग गरीबी और भूखमरी के शिकार हैं. सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लोगों को नहीं मिल पा रहा है. इसका प्रमुख कारण है सरकार के सभी विभागों में भ्रष्टाचार. ऐसा लगता है कि राज्य की पूरी सरकारी मशीनरी ध्वस्त हो चुकी है.किसी भी राज्य के विकास के लिए 14 वर्षो का समय कम नहीं होता है.
लेकिन झारखंड ने इस दौरान विकास की बजाय दुर्दशा अधिक देखी है. विकास के नाम पर आदिवासियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन करने की कोशिश की गयी. पहले से ही गरीबी की मार ङोल रहे इन आदिवासियों के विकास के लिए सरकार ने कोई पहल नहीं की. ऐसे भी आदिवासी बहुल इलाकों में शिक्षा एक बड़ी समस्या रही है. देश के अधिकांश आदिवासी क्षेत्रों में शैक्षणिक स्तर काफी नीचे है. झारखंड में हालात इससे भी खराब हैं. शैक्षणिक व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोशिश राज्य में नहीं की गयी. कोई भी राज्य बिना बेहतर शिक्षा व्यवस्था के आगे नहीं बढ़ सकता है. मजबूत शैक्षणिक व्यवस्था विकास की नींव होती है. झारखंड में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षण व्यवस्था काफी लचर है. साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी अच्छी नहीं है.
बुनियादी सुविधाओं का अभाव, लचर कानून व्यवस्था से विकास नहीं हो सकता है. शिक्षा की कमी और सरकार की नाकामियों का फायदा उठा कर नक्सली संगठन अपनी पकड़ स्थानीय लोगों के बीच बनाते हैं. छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड ने शुरुआती समस्याओं के बावजूद विकास को प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ने की कोशिश की. इन राज्यों में गठन के बाद से ही स्थिर सरकारें भी रही हैं. छत्तीसगढ़ में भी नक्सली समस्या कम गंभीर नहीं है, लेकिन सरकार ने इसके बावजूद विकास को प्राथमिकता दी.
साथ ही, गरीबों को राहत पहुंचाने के लिए जन-कल्याणकारी योजनाओं को बेहतर तरीके से लागू करने की कोशिश की. आज छत्तीसगढ़ में देश की सबसे बेहतर जन-वितरण प्रणाली है. झारखंड को इन प्रयोगों से सीख लेकर आगे बढ़ने की पहल करनी होगी. लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए.
संसाधनों का सही मायने में उपयोग तभी हो सकता है, जब राजनीतिक नेतृत्व का नजरिया स्पष्ट हो. क्योंकि किसी भी समस्या का समाधान राजनीतिक स्तर से ही संभव है. संसाधनों के साथ ही झारखंड में छोटे उद्योगों और कृषि क्षेत्र के विकास की काफी संभावनाएं हैं. सरकार स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अगर विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाये, तो झारखंड का सही तरीके से विकास हो सकता है. उम्मीद है कि विधानसभा चुनाव का परिणाम एक नये झारखंड की बुनियाद रखने में कामयाब होगा और झारखंड आनेवाले समय में एक समृद्ध राज्य के तौर पर उभर कर हमारे सामने आयेगा.
(बातचीत : विनय तिवारी)

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