न भागने की जगह न छिपने का ठौर!

।। यूरोप से लौट कर हरिवंश ।। नोव्हेयर टू रन .. नोव्हेयर टू हाइड लगभग एक वर्ष पहले यूरोप होते हुए, लैटिन अमेरिका जाना हुआ था. एक दूसरी भूमिका में. अखबारनवीस की भूमिका में. इस बार 13.10.2014 को एयर इंडिया के ड्रीमलाइनर हवाई जहाज से, दिन के लगभग दो बजे फ्रैंकफर्ट (जर्मनी) के लिए रवाना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 28, 2014 4:52 AM
।। यूरोप से लौट कर हरिवंश ।।
नोव्हेयर टू रन .. नोव्हेयर टू हाइड
लगभग एक वर्ष पहले यूरोप होते हुए, लैटिन अमेरिका जाना हुआ था. एक दूसरी भूमिका में. अखबारनवीस की भूमिका में. इस बार 13.10.2014 को एयर इंडिया के ड्रीमलाइनर हवाई जहाज से, दिन के लगभग दो बजे फ्रैंकफर्ट (जर्मनी) के लिए रवाना हुआ. फ्रैंकफर्ट से जिनेवा (स्विट्जरलैंड) जाना था. फ्रैंकफर्ट, दिल्ली से लगभग साढ़े छह हजार किलोमीटर दूर है.
याद आता है, 1994 में अमेरिका (पहली विदेश यात्रा, यूएसआइएस के निमंत्रण पर) जाते हुए फ्रैंकफर्ट देखा था. पिछले साल भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री के साथ मैक्सिको जाने के दौरान पड़ाव के रूप में हम फ्रैंकफर्ट रुके थे. एक रात. थोड़ा घूमा भी. शहर का दृश्य देखा. पर अब भी फ्रैंकफर्ट की वह पहली यात्रा याद है. अब याद नहीं कि इस एयरपोर्ट से होते हुए, यह चौथी या पांचवी यात्रा है. पर पहली यात्रा याद है. क्योंकि तब पहली बार भारत से निकलना हुआ था.
पहली बार इतना बड़ा, इतना व्यस्त कोई हवाई अड्डा देखा. पश्चिमी मॉडल के विकास की पहली झलक देखी. पल-पल उतरते हवाई जहाज और पल-पल दुनिया के कोने-कोने के लिए उड़ते जहाजों को वहां देखा था. दुनिया में सबसे मशहूर पुस्तक मेला इसी शहर में लगता है. औद्योगिक चीजों की प्रदर्शनी, दुनिया में सबसे बेहतर यहीं लगती है. फ्रैंकफर्ट, दुनिया के मशहूर वित्तीय संस्थानों का मुख्यालय भी है. अत्यंत व्यवस्थित, सख्त जांच. किसी ने बताया था कि लगभग 80-90 वर्षो पहले, पहले विश्वयुद्ध के आसपास जर्मन लोगों ने जब इस एयरपोर्ट को बनाने की कल्पना की, तो उन्होंने सोचा कि अगले सौ वर्षो बाद इसकी जरूरत क्या होगी? हम इसे किस रूप में देखेंगे? आज एक तरह से यह एयरपोर्ट हब है, दुनिया के अलग-अलग देशों में जाने के लिए.
अमेरिका, लैटिन अमेरिका से लेकर एशिया या अन्य देशों में. पर इस एयरपोर्ट की सर्वाधिक आय कारगो (माल ढुलाई) से होती है. कहते हैं कि योजना के मूल ब्लूप्रिंट की लगभग साठ फीसदी जगह ही इस्तेमाल हो पायी है. अभी एयरपोर्ट विस्तार के लिए 40 फीसदी जमीन शेष है. विस्तार में न जायें, तो महज इसी एक उदाहरण से स्पष्ट है कि पश्चिम ने कैसे अपने विजन से अपना विकास किया. हमेशा सौ-पचास वर्ष आगे सोच कर. आज जब भारत की सड़कों, गलियों और अपने निर्माणों को देखता हूं, तो तरस आता है कि हम एक वर्ष आगे का भी सोच पाने की ताकत नहीं रखते. न वैसा काम करते हैं. न वैसी दृष्टि है. फिर भी दुनिया के समृद्ध देशों से मुकाबला करने का सपना देखते हैं.
लगभग आठ घंटे की उड़ान के बाद जिनेवा पहुंचना होता है. भारतीय समय के अनुसार रात के बारह बजे. विमान में हरियाणा के एक युवा उद्यमी बगल में बैठे हैं. कहते हैं, कांग्रेस के हुड्डा औद्योगिक विकास या औद्योगिक शांति की दृष्टि से हरियाणा के सबसे अच्छे मुख्यमंत्री रहे हैं. इससे पहले के मुख्यमंत्रियों के वह नाम गिनाते हैं. साथ ही आंतक से जुड़ी उनकी बातें भी सुनाते हैं. उनका व्यवसाय महाराष्ट्र में भी है.
बताते हैं कि महाराष्ट्र में बहुत खराब हाल है. खासतौर से वह दो क्षेत्रीय दलों के नाम लेते हैं. एक दल, जो लोकसभा चुनावों में एनडीए के साथ था, और दूसरा दल जो यूपीए के साथ. वह कहते हैं कि ये दोनों दल दाऊद के गुर्गो से भी अत्यंत बुरे, क्रूर और कठोर हैं. वह यह भी सुनाते हैं कि पिछले कुछेक वर्षो से बिहार से मजदूर नहीं आते. वह कहते हैं कि पहले बिहार के मजदूरों की बहुतायत थी. पर अब बिहार से मजदूरों का आना घटा है, इसके पीछे बिहार के विकास की वह चर्चा करते हैं. यह भी सूचना देते हैं कि इन दिनों उनके यहां सबसे अधिक उत्तर प्रदेश से मजदूर आते हैं. विकास का पैमाना मापने का उनका अपना तरीका है. कहते हैं कि आज देश का सबसे कुशासित और पिछड़ा प्रदेश, उत्तर प्रदेश है. यहां से सबसे अधिक मजदूर उनके हरियाणा या महाराष्ट्र स्थिति कारखानों में काम करते हैं.
वह जर्मनी जा रहे हैं. अपने व्यापार के सिलसिले में. मानते हैं कि उचित राजनीतिक माहौल मिले, तो भारतीय उद्यमी भी दुनिया के बाजार में बहुत बेहतर तरीके से मुकाबला कर सकते हैं. बहरहाल, भारतीय समयानुसार रात दो बजे के आसपास, एक घंटे की प्रतीक्षा और फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट के एक किनारे से दूसरे किनारे तक घूमते-घामते सख्त चेकिंग के बाद जिनेवा की फ्लाइट मिलती है. लुफ्तांजा की फ्लाइट बी-737.
एक घंटे की उड़ान के बाद जिनेवा उतरना होता है. अभी-अभी बरसात हुई है. शहर की सड़कें धुली, पुछी. बारिश में इस खूबसूरत शहर में उतरना हुआ, वह भी आधी रात के बाद. उत्सुकता है, देखने की. पर यहां आना एक दूसरे सिलसिले में हुआ है. एक दूसरी भूमिका में. आना तो लगभग तीन दिन पहले चाहिए था, पर जयप्रकाश नारायण की स्मृति में (11.10.2014) आयोजित एक कार्यक्रम के कारण, न आने का मन था. पर आयोजकों ने कहा कि नहीं, विलंब से भी इसमें आये. भारतीय संसदीय मंडल के साथ यह यात्रा थी. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन के नेतृत्व में.
छह-सात लोगों की टीम थी. इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन में शिरकत करने. यह एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है. इसकी स्थापना 1889 में फ्रांस और ब्रिटेन ने मिल कर की थी. यह दुनिया का पहला स्थायी फोरम था, जहां अलग-अलग विषयों पर राजनीतिक विमर्श होते रहे. शुरू में यह संस्था या इस संस्था में निजी तौर पर सांसद आते थे. पर अब यह एक अंतरराष्ट्रीय फोरम है और दुनिया के स्वतंत्र, स्वायत्त देशों की संसदों का संगठन. 163 देशों के संसद सदस्य इसके यानी इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन के सदस्य हैं. 10 क्षेत्रीय संसदीय संस्थाएं एसोसिएट मेंबर हैं और आइपीयू को संयुक्त राष्ट्र में स्थायी पर्यवेक्षक (आब्जर्वर) की जगह है. इसी आइपीयू के 131वें आयोजन में शरीक होना था. पर यह विषयांतर है.
फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर उतरते ही, विदेशी अखबार पढ़ने को मिले. फाइनेंशियल टाइम्स, द वाल स्ट्रीट जर्नल जैसे दुनिया के मशहूर अखबार. दोनों की हेडलाइन समान थी. दोनों की लीड खबरें एक जैसी. पूरी दुनिया के लिए बेचैन करनेवाली खबर यह है कि दुनिया में जो बढ़ते देश, बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं थीं, वे अब सुस्त या धीमी गति में आ गयी हैं. चीन जिस तेज गति से बढ़ रहा था, उसमें ढलान है. यूरोप का परफारमेंस (कामकाज) कमजोर हुआ है.
लैटिन अमेरिका की प्रगति उतार पर है. आंकड़े और तथ्य बताते हैं कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं में धीमी आर्थिक प्रगति का एक नया दौर शुरू हुआ है. इससे सबसे अधिक पश्चिम के विकसित देश चिंतित हैं. उन्हें डर है कि पूरी दुनिया के स्तर पर हाल में एक झलक मिली थी कि दुनिया विकास के रास्ते पर है, वह भ्रम न साबित हो. इन दिनों विकास को लेकर दुनिया की दृष्टि सकारात्मक हो गयी थी. अखबारों की यह खबर पश्चिम समेत दुनिया को बेचैन करनेवाली है. पश्चिम के जो देश अपनी-अपनी अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उनके लिए भी यह बुरी खबर है.
चार वर्षो में सबसे नीचे के स्तर पर तेल की कीमतें गयी हैं. यूरोप या यूरो जोन का सबसे मजबूत देश जर्मनी था या रहा है, उसके यहां आर्थिक प्रगति घटने लगी है. ब्राजील और रूस भी स्लोडाउन के रास्ते पर हैं, यह बात आइएमएफ के प्रबंध निदेशक ने हाल में कही थी. चीन का वार्षिक जीडीपी इस तिमाही में घट रहा है. ब्राजील के जीडीपी में 0.3 फीसदी प्रगति की सूचना है. 13.10.2014 के द वाल स्ट्रीट जर्नल का हेडलाइन था, द ग्लोबल साइंस ऑफ स्लोडाउंस वेक्स आफिशियल्स यानी दुनिया की आर्थिक मंदी के संकेत से शासक प्रभावित हैं. इस खबर से दुनिया के महत्वपूर्ण शेयर बाजारों में बेचैनी छा गयी थी.
इसी तरह फाइनेंशियल टाइम्स की लीड खबर का शीर्षक था, इमजिर्ग मार्केट्स स्लोडाउन फ्यूल्स कंसर्न फॉर ग्लोबल आउटलुक. नीचे सबहेड के रूप में लिखा था, अनईज्ड दैट लो ग्रोथ हैज बिकम ‘द न्यू नार्मल’ आफ्टर द फाइनेंशियल क्राइसिस. यानी दुनिया में 2008 के वित्तीय संकट (फाइनेंशियल क्राइसिस) के बाद स्लो ग्रोथ यानी कम दर का विकास एक सामान्य स्थिति बनती जा रही है. दुनिया के देशों के वित्त मंत्री और सेंट्रल बैंकों के हेड एकत्र हुए थे. अक्तूबर 2014 में.
आइएमएफ के वाशिंगटन आयोजन में. उन्होंने साफ चेतावनी दी कि आर्थिक प्रगति कम होने का विश्वव्यापी असर होगा. साथ ही दुनिया पर मंडरा रहे दूसरे बड़े खतरे भी गिनाये गये. यानी रूस और यूक्रेन का मामला, पश्चिम अफ्रीका में इबोला का आतंक और पश्चिमी व पूर्वी देशों यानी मध्यपूर्व के खतरे. कहा गया कि इन तीन खतरों से दुनिया प्रभावित होगी. पांच वर्षो तक लगातार मंदी के दौर को फेस करने या उसका सामना करने के बाद दुनिया के देश के केंद्रीय बैंक (भारतीय रिजर्व बैंक की तरह) अब यह कह रहे हैं कि वे डरे-सहमे हैं. उनके प्रयासों से अब बाजार में ऊर्जा नहीं आ रही हैं. देश चलानेवाले ये केंद्रीय बैंक मानते हैं कि अपने अधिकार के तहत लगभग सारे कदम वे उठा चुके हैं.
यानी अपने अधिकार के उपयोग की सीमा तक पहुंच चुके हैं, पर आर्थिक प्रगति को तेज प्रगति के डगर पर डाल पाने में विफल हैं. दुनिया की अर्थनीति चलानेवाले अब इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि नीति-नियंताओं (शासक या सरकार) के हाथों में जितनी तरह के हथियार या अधिकार या निर्णय लेने के औजार हैं, वे सब आजमा चुके हैं, लेकिन कोई रास्ता दिख नहीं रहा. मंदी पहले से है, और अब दुनिया कर्ज के बोझ तले भी दबी जा रही है. इससे सरकारों के लिए अधिक से अधिक खर्च करना कठिन होता जा रहा है. राजनीतिक रूप से. जनता इस कठिन दौर से निकलने के लिए कठोर उपाय या कड़वी दवा लेने के लिए तैयार नहीं है. पिछले कुछेक वर्षो में विकास दर लगातार घटी है.
रोजगार का बाजार सिमट रहा है. नये रोजगार के अवसर नहीं आ रहे हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन, जो पहले आइएमएफ के प्रमुख अर्थशास्त्री थे, उन्होंने दुनिया के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकरों की इस बैठक में कहा कि हमें अब अपने नेताओं को किसी बिंदु पर यह बता देना चाहिए कि दैट्स आल आइ कैन डू, नाव इट इज योर टर्न टू डू , यानी जितना कुछ संभव था, वो हमने कर लिया. अब करने की बारी आपकी है. सेंट्रल बैंक यानी भारत के रिजर्व बैंक जैसी दुनिया के सभी प्रमुख देशों की संस्थाएं मौद्रिक उपायों से, अन्य किस्म के नियंत्रण से जो कुछ कर सकती हैं, उन्होंने वे सारे रास्ते आजमा लिये हैं. अब रिजर्व बैंक या दुनिया के केंद्रीय बैंकों के पास वह उपाय या नुस्खा, फार्मूला या औषधि नहीं है, जिससे अर्थिक विकास की गति तेज की जा सके. इसलिए भारत के रिजर्व बैंक के प्रमुख ने इस बैठक में कहा कि हम सेंट्रल बैंकों को अपने राजनेताओं से कहना चाहिए कि हमें जितना करना था, हमने किया. अब आपकी बारी है.
स्पष्ट है कि राजनीति चीजों को संभाले, राजनीति फैसला करे, राजनीति कुछ साहसिक कदम उठाये, तो हालात बदल सकते हैं. संसार के इन प्रतिष्ठित अखबारों की रपटों के अनुसार चीन, भारत, ब्राजील समेत अनेक उभरते हुए देशों के जो अधिकारी इस सम्मेलन में आये, वे घटती आर्थिक विकास दर से काफी परेशान नजर आये. 17.10.2014 तक यानी लगभग तीन-चार दिनों तक फाइनेंशियल टाइम्स, यूएस टुडे, द वॉल स्ट्रीट जर्नल समेत दुनिया के कई महत्वपूर्ण अखबारों पर नजर डालता रहा. पर हरेक अखबार में लीड खबर के रूप में लगभग यही विषय रहा कि दुनिया कैसे कम विकास दर से परेशान और चिंतित है? 17.10.2014 के फाइनेंशियल टाइम्स की लीड खबर थी, मार्केट अनरेस्ट रिकिंडल्स फियर ओवर यूरोप रिकवरी यानी बाजार में जो चिंता या परेशानी है, उससे यूरोप में रिकवरी न होने का भय फिर जग गया है.
ग्रीस पर लगातार बढ़ता कर्ज. यूरो जोन के देशों पर बढ़ते कर्ज का संकट. इन देशों में स्ट्ररल यानी व्यवस्थागत चुनौतियां, कठोर परिवर्तन न कर पाने की राजनीति, कमजोर इच्छाशक्ति, लगातार बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता, इससे नयी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं. खास तौर से ग्रीस का अर्थसंकट बहुत पहले भी चर्चा में आया था, जब दुनिया में मंदी का दौर पहले शुरू हुआ था. कैसे ग्रीस समेत कई अन्य देश कंगाल होने के कगार पर थे. पर उनकी स्थिति आज तक संभल नहीं पायी है. उन पर पहले से ही काफी अधिक कर्ज है. अब नया कर्ज ले पाने की स्थिति में वे नहीं हैं, और न ही कोई देने लिए तैयार है.
यूरोप के देश यूरो जोन के देशों के कर्ज संकट से सबसे अधिक परेशान हैं. कर्ज लेने की कीमत काफी तेजी से बढ़ गयी है. बीच में ऐसी उम्मीद या माहौल बन गया था कि यूरोप अब स्थिर स्थिति में पहुंच गया है, पर अब सवाल उठने लगे हैं. यूएस टुडे में 17.10.2014 को लीड खबर थी कि आयल, यूरोप, इबोला स्कूप द मार्केट यानी तेल की गिरती कीमतें, यूरोप के अर्थसंकट और इबोला बीमारी ने अमरीकी बाजार को प्रभावित कर दिया.
इबोला को भय के रूप में देखा जा रहा है. अमेरिका में इबोला बीमारी के खतरों के कारण बाजार अस्थिर हुआ. अमरीकी बाजार को समझनेवाले एक विशेषज्ञ कहते हैं कि इबोला का अर्थ भय है, और भय यह है कि इसको रोका नहीं जा सकेगा. विशेषज्ञ इसे फीयर फैक्टर कह रहे हैं. यानी भय से अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है. यूरोप की आर्थिक मंदी के संकट अलग हैं. तेल की घटती कीमतें, उससे अलग संकट पैदा हो रहा है. और ब्याज दर भी अब आर्थिक विकास के रास्ते एक नया संकट बन कर खड़ा है.
द वॉल स्ट्रीट जर्नल में एक टिप्पणीकार ने इस पूरे संकट पर लिखा कि इतिहास 2014 को कैसे याद करेगा? इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए, वह 49 वर्ष पहले, 1965 में लिखे (एक समूह द्वारा लिखे गये) क्लासिक गीत की दो पंक्तियां याद करते हैं, नो वेयर टू रन.. नो वेयर टू हाइड यानी भागने के लिए अब कोई जगह नहीं, छुपने के लिए भी कोई मुकाम नहीं. फिर वह गिनाते हैं, लाइबेरिया का संकट. आइएसआइएस का संकट. यूक्रेन का संकट. हांगकांग में लोकतंत्र के लिए आंदोलन का माहौल. अमेरिका के डलास अस्पताल में फैलता इबोला. इन सबने मिल कर इस साल की स्टाक मार्केट में हुई प्रगति खत्म कर दी. पर वह साथ ही एक और बड़ा गंभीर सवाल इसके साथ जोड़ते हैं.
उन्होंने कहा कि पिछले सप्ताह अमेरिका के विदेश सचिव जान कैरी ने दुनिया को चेतावनी दी- क्लाइमेट चेंज कैन एंड लाइफ एज वी नो इट. यानी जो दुनिया में जलवायु परिवर्तन हो रहा है, वह जीवन का अंत कर सकता है. चाहे वह जीवन किसी भी रूप में हो. विशेषज्ञ मान रहे हैं कि माइनिंग (खनन), जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) के पीछे एक मूल वजह है.
खास तौर से इबोला, जिन देशों में बड़े पैमाने पर फैला, कांगो, सियरालियोन, गुयाना और लाइबेरिया, इन मुल्कों में बड़े पैमाने पर खनन का काम होता है. उनके अनुसार यूरोप की डूबती अर्थव्यवस्था, ग्लोबल आर्थिक विकास में गिरावट, स्टाक और बांड्स में भी गिरावट और दुनिया के केंद्रीय बैंकों के विशेषज्ञ लोगों का यह मान लेना कि उनके पास अब नया कुछ कर पाने क ी कोई रणनीति या विचार नहीं है, यह इस दुनिया की असल तस्वीर है.
इस टिप्पणीकार के शब्द हैं, सेंट्रल बैकर्स से, दे हैव रन आउट ऑफ आइडियाज ऑन डूइंग एनीथिंग एबाउट इट. यानी इन सवालों के संबंध में कुछ कारगर कर पाने में अब केंद्रीय बैंकों के नीति निर्धारक खुद को असमर्थ पा रहे हैं. वाशिंगटन में अक्तूबर के आरंभ में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आयोजन में दुनिया के वित्त मंत्री और सेंट्रल बैंक र्स मिले थे. उस बहस से जो बातें उभर कर आयीं, उसका संदेश यही है कि दुनिया के स्तर पर अर्थव्यवस्था में उम्मीद की किरण कहीं दिखायी नहीं देती. वॉल स्ट्रीट जर्नल के मुख्य शीर्षक का सार था, सरकारें और केंद्रीय बैंकरों के पास अब अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए बहुत कम उपाय रह गये हैं. यूरोप के अधिकारी साफ कह रहे हैं, ए लोस्ट डिकेड. खोया या बरबाद दशक. आइएमएफ का कहना है कि 2008 के अर्थसंकट के बाद जो भी अर्थनीति अपनायी गयी, उनसे लगातार निराशा फैली.
दरअसल, 2008 की मंदी के बाद दुनिया के पास आर्थिक विकास के लिए कोई नया आर्थिक मॉडल या रास्ता नहीं था. 1930 में प्रख्यात अर्थशास्त्री जेएम कीन्स ने जो रास्ता बताया, अब तक दुनिया के देश वही पुराना रास्ता अपनाते रहे हैं. 2008 में भी आर्थिक संकट से त्रस्त अमेरिका समेत अन्य देश कीन्स के बताये रास्ते पर चले. लगभग 80 साल पहले कीन्स के नेतृत्व में अर्थशास्त्रियों ने बताया कि बड़े पैमाने पर निवेश, अगर एक कमजोर अर्थव्यवस्था में किया जाये, यानी सार्वजनिक खर्च (पब्लिक एक्सपेंडिंग) हो, तो लोग या उस देश के निवासी या आबादी, उस निवेश से जो पैसा खर्च होकर बाहर आयेगा, उससे भारी पैमाने पर खरीदारी करेंगे.
इससे उपभोग बढ़ेगा. फिर निजी कंपनियों या निजी पूंजी को बड़े पैमाने पर व्यवसाय के लिए प्रोत्साहन मिलेगा. मांग बढ़ जायेगी. उद्योग खुलेंगे.
बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा होंगे. पर 2014 में विशेषज्ञ मान रहे हैं कि अब ऐसा हो नहीं रहा है. आइएमएफ के मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टेन लगार्डे का कहना है कि देयर इज टू लिटिल इकनॉमिक रिस्क टेकिंग, एंड टू मच फाइनेंशियल रिस्क टेकिंग. यानी इन दिनों ज्यादा आर्थिक जोखिम लेने को कोई तैयार नहीं है. लेकिन वित्तीय जोखिम उठाने को तैयार है. यानी कर्ज, पैसा, उधार लेने की प्रवृत्ति बड़े पैमाने पर बढ़ी है.
इसे देशज भाषा में कहें, तो आमदनी कैसे बढ़े, इसके लिए कोशिश नहीं हो रही, अधिक से अधिक खर्च हो, इसमें सब लगे हैं. पर बिना आय यह खर्च चलेगा कैसे? इस द्वंद्व या संकट से यूरोप में एक अलग किस्म के सामाजिक बिखराव और संकट दिखायी दे रहे हैं. यूरोप की युवा पीढ़ी, जो रोजगार तलाश रही है, जहां नये रोजगार नहीं पनप रहे हैं, वहां युवा अपनी पुरानी पीढ़ी से यानी अपने पिता की पीढ़ी से नाराज हैं. यूरोपीय युवा जो बेरोजगार हैं या आंशिक रूप से रोजगार में हैं, वे अपने माता-पिता की पीढ़ी के प्रति बहुत तल्ख हैं. ऐसी खबरें अखबारों में लगातार आ रही हैं.
यूरोपीय युवा अपने पिता की पीढ़ी से, जो रोजगार बाजार में लेबर प्रोटेक्शन यानी किसी की नौकरी न जाये, जैसे श्रम कानून बनाये रखने की पक्षधर रही है, से काफी नाराज हैं. इन यूरोपीय युवाओं का मानना है कि ऐसे श्रम कानून से नये रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा. इन युवकों का तर्क है कि रोजगार को सरकारी सुरक्षा के प्रावधान जहां हैं, उनसे नये रोजगार सृजित नहीं हो रहे है. इस आर्थिक बेचैनी-निराशा से यूरोप के देशों के युवकों के बीच अतिवादी प्रवृत्ति बढ़ रही है.
फ्रांस, जर्मनी, इग्लैंड, हंगरी या अन्य देशों में अतिवादी राजनीतिक आंदोलन शुरू हो रहे हैं. क्योंकि इन देशों की युवा पीढ़ी मानने लगी है कि हमारी माता-पिता की पीढ़ी ने हमारे साथ अन्याय किया. हमारी बेरोजगारी या खराब जिंदगी के लिए हमारे बुजुर्गो की पीढ़ी जिम्मेदार है. यह युवक मानते हैं कि हमारे बुजुर्गाे या पिता की पीढ़ी ने अपने वेलफेयर (कल्याण) के लिए सारे बंदोबस्त किये. सरकारों-राजनीति को विवश किया. इसका परिणाम हुआ कि आनेवाली पीढ़ी के लिए तेजी से रोजगार घटे हैं.
अब जाने-माने आर्थिक-राजनीतिज्ञ विशेषज्ञ यह मानने लगे हैं कि यूरोप और अमेरिका में कमजोर अर्थव्यवस्था, देश की राजनीतिक स्थिरता (नेशनल इस्टेबिलीटी) के लिए एक राजनीतिक खतरा (पॉलिटिकल रिस्क) है. यानी कमजोर अर्थव्यवस्था, जहां नये रोजगार नहीं बढ़ रहें, जहां उपभोग का वह स्तर, जो लोग चाहते हैं, नहीं मिल रहा है, वहां समाजिक तनाव है.
यह भी माना जा रहा है कि पश्चिम को पुनर्जीवित करने यानी पश्चिम में तेज आर्थिक विकास करने के लिए अब रास्ता अर्थशास्त्र (इकनॉमिक्स) की गलियों से नहीं गुजरता. इसके लिए राजनीतिक साहस चाहिए. वह साहस, जो एक देश के एक राजनेता को अपने ही वित्त मंत्री और अपनी मीडिया के खिलाफ खड़ा होने के लिए ताकत दे सके. पश्चिम की बहस से साफ हो चुका है कि आज दुनिया विकास के जिस आर्थिक मॉडल पर चल रही है, जहां अधिक रोजगार नहीं पैदा हो रहे हैं, लोगों की आशा के अनुरूप प्रगति नहीं हो रही. इससे सामाजिक संकट पैदा हो रहा है.
यूरोप के बड़े अखबारों में इसी चिंता पर प्रमुख खबरें पढ़ता हूं. इस संदर्भ में भारत को लेकर कई सवाल मन में उठते हैं. जब हमने 1991 में आर्थिक विकास का उदारीकरण मॉडल, बाजार का मॉडल, दुनिया के ग्लोबल मार्केट से जुड़ने का माडॅल चुना, तब कई तरह के तात्कालिक लाभ हुए. पर आज, जब दुनिया की अर्थव्यवस्था लगभग एक सूत्र में बंध गयी है, ग्लोबल इकॉनमी हो गयी है, तो दुनिया के एक हिस्से का असर, दूसरे हिस्से पर पड़ना तय है. और भारत में यही स्थिति है. आज भारत में माना जाता है कि लगभग 10-12 करोड़ नौजवान रोजगार की तलाश में हैं.
यूपीए के दूसरे कार्यकाल में जहां करोड़ों-करोड़ों रोजगार की जरूरत थी, वहां लाखों की संख्या में भी रोजगारों का सृजन नहीं हुआ. यह माना जा रहा है कि भारत में आनेवाले 4-5 वर्षो में अगर हर साल दो करोड़ नये रोजगारों का सृजन नहीं हुआ, तो भारत में भी सामाजिक अस्थिरता का माहौल होगा. राजनीतिक संकट होगा. क्योंकि जो नौजवान कालेजों-विश्वविद्यालयों से पढ़ कर निकल रहे हैं, वे रोजगार चाहते हैं. सिर्फ रोजगार ही वे नहीं चाहते. टीवी के विज्ञापनों ने उनमें सपने व कल्पना के रंग भर दिये हैं. वे टीवी के विज्ञापनों जैसा सुंदर जीवन, अधिक भोग, अधिक भौतिक सुख-साधन व सुविधाएं चाहते हैं. भारत की नयी सरकार ने पश्चिम के इसी विफल मॉडल पर तेजी से आगे बढ़ने के सपने दिखाये हैं.
इसी रास्ते पर मनमोहन सिंह चल रहे थे. उनके दूसरे दौर में यह स्पष्ट हो गया कि इस मॉडल के अंदर लोगों की उम्मीद या आकांक्षाओं को पूरा करने की ताकत या क्षमता नहीं है. दुनिया जब इतनी संकट में है, तो भारत के शासक कैसे इस बढ़ती जनसंख्या, इस बढ़ती बेरोजगारी का निदान कर पायेंगे? इन मौलिक सवालों की चर्चा या चिंता कहीं देश में है? दरअसल, सपने दिखाना और तत्काल सत्ता में आ जाना एक अलग प्रसंग है.
भारत की राजनीति में यही हो रहा है. पर जो मूल समस्या, मूल चुनौतियां और मूल विरोध इस आर्थिक मॉडल के हैं, उनके बारे में चर्चा नहीं. जब दुनिया के जाने-माने आर्थिक विशेषज्ञ या आर्थिक नीति बनानेवाले, आइएमएफ की मीटिंग में कह चुके हैं कि इस आर्थिक मॉडल के पास विकास के जितने नुस्खे थे, वे आजमाये जा चुके हैं, तरकश में कोई नया तीर नहीं बचा, तब भी भारत की राजनीति में हम इस मुद्दे पर खामोश हैं.
बहुत पहले गांधी ने जो रास्ता दिखाया, वह जीवन पद्धति, विकेंद्रीकरण, स्वावलंबन और आवश्कतानुसार सीमित उपभोग ही, दुनिया को बचा सकते हैं. गांधी ने माना था कि विकास का एक नया मॉडल हो सकता है, जो लोभ पैदा न करे, लोगों की न्यूनतम जरूरत पूरी करे. उस मॉडल पर चलने का राजनीतिक साहस इस देश में क्या किसी के पास रह गया है? अब पश्चिम मान रहा है कि अर्थशास्त्री फेल हो गये हैं. कोई राजनेता चाहिए जो साहस के साथ दुनिया को नयी राह दिखा सके. क्या भारत में इस संकट की सुगबुगाहट कहीं है? इसी अर्थसंकट के संदर्भ में 17.10.2014 के फाइनेंशियल टाइम्स में एक पाठक का पत्र पढ़ा. इसमें इस संकट से दुनिया को निकलने का नुस्खा था.
यानी कम दर पर आर्थिक विकास हो. आराम से जीने के लिए काफी समय हो. परिवार एवं मित्रों के साथ आनंद से समय बितायें. उस पत्र का शीर्षक ही था, लेस ग्रोथ, मोर टाइम फॉर लीजर, फै मिली एंड फ्रेंड्स? उस पत्र के कुछेक अंश में सुझाव था कि आज दुनिया की स्थिति देखते हुए एक हकीकतपूर्ण लक्ष्य या वास्तविक लक्ष्य यह होगा कि विकसित देशों के लोग अपनी जिंदगी जीने के तरीके बदलें, इसे नये ढंग से व्यवस्थित करें. कम आर्थिक विकास दर से अपने जीवन का तालमेल बैठायें. यह नया बदलाव जलवायु परिवर्तन के लिए भी भला होगा. जब ग्रोथ रेट कम होगा.
कम कार्बन उत्पादित होगा. दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों का कम दुरुपयोग, उपयोग या इस्तेमाल होगा, तो जलवायु परिवर्तन पर जो संकट है, स्वत: घटेगा. उनका यह भी सुझाव है कि विकसित अर्थव्यवस्था में उपभोग का जो स्तर है, वह बहुत ऊपर है. विकसित, विकासशील देशों के जीवन स्तर के अनुपात में फर्क है. जब विकसित देश अपना जीवन स्तर, उपभोग स्तर कम करेंगे, तो उसका असर विकासशील देश, जो विकसित देश जैसा बनना चाहते हैं, उन पर भी पड़ेगा. वे भी सीखेंगे. औद्योगिक क्रांति के दौरान, विकास दर प्रति वर्ष लगभग एक फीसदी के आसपास थी.
इस पत्र लेखक का मानना है कि इस तरह के क्रांतिकारी तौरतरीके या रास्ते या परिवर्तन अपनाये जायें, तो इससे समाज खुश होगा. इस भागती दुनिया में इस बदलाव से इनसान के पास परिवार और मित्रों के लिए पर्याप्त समय रहेगा.
उनकी एक टिप्पणी भी है कि यह एक संयोग ही होगा कि यह विकल्प पूंजीवाद को, भविष्य को लेकर मार्क्‍स की जो विजन या दृष्टि थी, उसके आसपास ही ले जायेगा. पश्चिम के इस अर्थसंकट का आनेवाले दिनों में भारत पर भी असर दिखेगा. पर क्या भारत में हम तैयार हैं कि एक नयी राह पर चलें. विकल्प में गांधी का रास्ता तलाशें. हमारी आवश्यकताएं कम से कम हों. हम अधिक से अधिक उपभोग पर पाबंदी लगायें. आज हालत यह है कि भारत के छोटे शहरों में भी जाम बढ़ रहे हैं, गाड़ियों की संख्या बढ़ रही हैं. सड़कें नहीं बढ़ रहीं हैं. फ्लाइओवर नहीं बढ़ रहे.
एक तरफ यह स्थिति और दूसरी तरफ नौजवान हाथों को रोजगार नहीं मिल रहा. बेतहाशा बढ़ती आबादी और सीमित प्राकृतिक संसाधन. ऐसे अनेक संकट हैं. क्या भारतीय राजनीति मौलिक ढंग से, इन चुनौतियों के संदर्भ में, भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में पुनर्विचार के लिए तैयार है? निश्चित मानिए, भारत का मध्यवर्ग या भारत को अमेरिका और यूरोप बनाने का ख्वाब देखनेवाले इस तरह के मौलिक परिवर्तनों के खिलाफ होंगे. पर उन्हें भी समझना होगा कि जिस रास्ते वे भारत का विकास चाहते हैं, वह असंभव है. भारत, विकास की दृष्टि से अमेरिका, यूरोप बन नहीं सकता, क्योंकि विकास के लिए जितने खनिज और प्राकृतिक संसाधन चाहिए, वे हैं ही नहीं. इस सच को हम जितना जल्द समझ लें, इस देश के लिए बेहतर होगा.

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