दगाबाज तोर बतिया ना मानू रे..

इस चुनाव ने आत्मज्ञान दिया. अब ठोंक-बजा कर देखा जाये, तब फैसला हो. अगर नहीं होगा, तो हम लोकतंत्र को बेइज्जत करते हुए पाये जायेंगे और यह इतिहास में दर्ज हो जायेगा कि इस मुल्क का जनतंत्र एक दफे इस करवट भी बैठा था. ए भाई! इ राजनेति त बड़ी कमाल क निकली. इहो कौनो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 28, 2014 11:57 PM

इस चुनाव ने आत्मज्ञान दिया. अब ठोंक-बजा कर देखा जाये, तब फैसला हो. अगर नहीं होगा, तो हम लोकतंत्र को बेइज्जत करते हुए पाये जायेंगे और यह इतिहास में दर्ज हो जायेगा कि इस मुल्क का जनतंत्र एक दफे इस करवट भी बैठा था.

ए भाई! इ राजनेति त बड़ी कमाल क निकली. इहो कौनो बात भई? मरि-खपि के बैंक में खाता खुलवाए. जब मनीजर के मालूम भवा कि हम दस्खत नहीं करते, त उ मुहझौंसा अंगूठा पकड़ लिहिस. लगा सियाही लगावे.. का बताई छोटकी! मुआ हमार अंगूठा अपने हाथ में दबाये, लगा दूसरे से बतियावे. कौनो तरह कागद पे टीप लिया. बोला पासबुक कल लेना. तीन दिन दौड़ाया तब दिया. अब पूछते हैं कि नकदी कब मिलेगी, त करियवा आंख मार के बोलता है-खाता खुला है, तो पैसा आयेगा ही. कब आयेगा, का जवाब कोई ना देत..

का खुलवाऊ भौजी? सुनते ही भौजी ऐंठ गयी और लगी कयूम को गरियाने. बिसुनाथ बनिया की बीवी कयूम मियां की भौजी लगती है.

गावं में जाति, धर्म, कुल, गोत्र सब एकाकार हो जाते हैं, शायद इसी बिनाह पर गांव आज भी जिंदा है. जब शहर अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी खरीदता-बेचता है, तब गांव अनजान को भी खाली पानी कभी नहीं देता. गुड़, तिलवा, ढूंढ़ी, चिउड़ा, कुछ न कुछ जरूर परोस देता है. बिसुनाथ बनिया की बीवी ने भी सपने में दुबकी मारी और लोगों की तरह उसने भी खाता खुलवा लिया है. अब वह सपने में हंसती है. एक बकरी खरीदेगी. छत पर टीन डलवायेगी. महकौवा साबुन से नहा कर जब दूकान पर बैठेगी तब देखना.. लेकिन जब जगती है, तो उदास हो जाती है. मुल्क इसी उदास नस्ल की आबादी से चल रहा है. ख्वाब बेचनेवाले ख्वाब देकर जमीर उठा ले गये. आज चौराहे की संसद में यह ख्वाब और इसको ओढ़े एक उदास नस्ल जेरे-बहस है. दिल्ली की संसद में उठी आवाज यहां चौराहे तक आ पहुंची है. वजीर-ए-खजाना जनाब जेटली फरमा रहे हैं. सरकार ने कब कहा कि हम काला धन वापस लायेंगे?

वो जो ‘साहेब’ घूम-घूम के, डोल-डोल के बोलते थे. सौ दिन में काला धन वापस आयेगा और देशवासियों में बांटा जायगा, वह क्या था?

वह चुनाव था.. लेकिन अब तो सरकार हो ना?

कानूनन हम उसे वापस नहीं ला सकते.. यह कब मालूम हुआ?

उस समय भी मालूम था, लेकिन जनता ने पूछा क्यों नहीं?

जनता तो दूर रहती थी, उसके पास भोंपू की आवाज थी और डिब्बेबाज लोगों की बातें. उस डिब्बा ने यह सवाल क्यों नहीं पूछा?

डिब्बा सामान बेचता है. हफ्ते भर में गोरा होने की अकल बताता है, तो किसी ने पूछा कि इतना बड़ा घपला क्यों हो रहा है? उसी तरह राजनीति भी प्रायोजित की गयी. जनता नहीं समझ सकी तो हम का करें?

उमर दरजी मुस्कुराया. वह खुश है कि ख्वाब के चक्कर में नहीं पड़ा. जब सब खाता खुलवा रहे थे, तब वह मुकुल के पाजामा तैयार कर रहा था. एवज में रोज अपनी बीवी से लात खाता था. धन्य हो केटली जी बचा लिये गुरू, यह बोल के कि अब काला धन वापस नहीं आयेगा.

कीन उपाधिया को ऐतराज हुआ- अबे पाजामे के बच्चे उमर! केटली नहीं जेटली बोलो.. यह जेटली का होता है गुरु? यह एक जाति है. जैसे दुसाध, दत्त, भिड़े, वैसे जेटली. यह जाति यूपी में नहीं होती.

लेकिन हमने जो वोटवा दिया जिस लालच में, उसका का होगा? नवल उपाधिया की आंख गोल हो गयी.

मद्दू पत्रकार ने दखल दिया- यह दो लालचियों का खेल था. एक कुर्सी की लालच में सब कुछ देने का वादा करता रहा और दूसरा सब खरीदता रहा. चुनाव हुआ. एक लालच जीता, एक लालच में छला गया. बस! चिखुरी बैठे-बैठे मुस्कुराते रहे. चाय उबलती रही.

लाल्साहेब चिंतित थे- खेल इस तरह का होगा इसका अंदाज नहीं था. कयूम मियां मुस्कुराये- राजनीति और चुनाव अलहदा होते हैं. हम तो बस वोट देने तक ही राजनीति के खेल में शामिल किये जाते हैं.

अब चिखुरी से नहीं रहा गया- इस चुनाव का एक उजला हिस्सा भी है. उसे कहते हैं आत्मज्ञान. इस चुनाव ने आत्मज्ञान दिया. अब शायद हर बात संवाद के घेरे में आये. ठोंक बजा कर देखा जाये तब फैसला हो. अगर नहीं होगा तो हम लोकतंत्र को बेइज्जत करते हुए पाये जायेंगे और यह इतिहास में दर्ज हो जायेगा कि इस मुल्क का जनतंत्र एक दफे इस करवट भी बैठा था. निराश मत हो, आगे की सोचो. उन्हें मजबूर करो कि भाषा और कर्म के बीच कम से कम फासले पर चलनेवाले आगे आयें.

इस बार तो गलती हो ही गयी है गुरू, लेकिन शायद अब ना हो.. कहते हुए लखन का चेहरा उदास था. अचानक, ऊंची आवाज में बजे लाउडस्पीकर के गाने ने सब को चौंका दिया- दगाबाज तोर बतिया ना मानू रे.. धन्नो के ठुमके पर पूरी बहस छितरा गयी. कयूम ने घुटने पर ‘दाहिना’ ठोंका तर्जनी घूमने लगी- धन हो नौसाद, का संगीत होत रहा..

बाद बाकी नवल उपाधिया गाते हुए रवाना हो गये.

दगाबाज तोर बतिया. दूसरी बार जब दगाबाज बोल रहे थे, तो दांत पीस कर बोले- दगाबाज..

चंचल

सामाजिक कार्यकर्ता

samtaghar@gmail.com

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