क्या 16 मई के बाद मीडिया बदल गया!

हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं, इसका अंदाजा 16 मई के बाद भाजपा के नये अध्यक्ष बने अमित शाह के इस अंदाज से समझा जा सकता है, जब उन्होंने एक खबर को वापस लेने के लिए रिपोर्टर को फोन पर परिणाम भुगतने की धमकी दी. तारीख 16 मई, 2014 के बाद क्या भारतीय मीडिया पूंजी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 29, 2014 12:01 AM

हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं, इसका अंदाजा 16 मई के बाद भाजपा के नये अध्यक्ष बने अमित शाह के इस अंदाज से समझा जा सकता है, जब उन्होंने एक खबर को वापस लेने के लिए रिपोर्टर को फोन पर परिणाम भुगतने की धमकी दी.

तारीख 16 मई, 2014 के बाद क्या भारतीय मीडिया पूंजी और खौफ तले दफ्न हो गया? सवाल सीधा है, लेकिन इसका जवाब किश्तों में है. मसलन, कांग्रेस की एकाकी सत्ता के तीस बरस बाद जैसे ही नरेंद्र मोदी की एकाकी सत्ता जनादेश से निकली, वैसे ही मीडिया हतप्रभ हो गया. क्योंकि तीस बरस के दौर में दिल्ली में सड़ा-गला लोकतंत्र था. इस लोकतंत्र ने किसी को आरक्षण की सुविधा दी, तो किसी में हिंदुत्व का राग जगाया. इस लोकतंत्र ने कॉरपोरेट को लूट के हर हथियार दे दिये और इसी ने मीडिया को भी दलाल बना दिया. इस लोकतंत्र पर पत्रकारों की कलम भी चली और कलम भी बिकी.

पत्रकारिता मीडिया घरानों में बदली. मीडिया घराने ताकतवर हुए, तो झटके में सत्ता साधने की राजनीति और कॉरपोरेट के मुनाफे के बीच पत्रकारिता झूली भी और हमला करने से भी नहीं चूकी. लगा कि मीडिया धारदार हो रहा है, क्योंकि संसदीय सत्ता अपने अंतर्विरोध में इतनी खो गयी कि घोटाले और राजस्व की लूट देश का सिस्टम बन गया. सरकारी नीतियां लूटने के रास्ते खोलने के लिए बनने लगीं. तमाम घोटालों का खुला खेल पॉलिसी के तहत खेला गया, जिसमें मीडिया संस्थानों की भी भागीदारी रही. लेकिन, पत्रकारिता ने इन मुद्दों को उठाया भी और भ्रष्ट होती राजनीति को आईना भी दिखाया. ऐसे मोड़ पर लोकसभा चुनाव के जनादेश ने उस मीडिया को सकते में ला दिया, जिसके सामने बीते 30 बरस के संसदीय राजनीतिक सत्ता के अंतर्विरोध में काफी कुछ पाना और गंवाना था. क्योंकि इस दौर में कई पत्रकार मीडिया घरानों में हिस्सेदार बन गये और मीडिया घरानों के कई हिस्सेदार पत्रकार बन गये.

इसी दौर में मीडिया का विकास जिस तेजी से तकनीकी माध्यमों के जरिये होता चला गया, उसके सामने वह सियासी राजनीति भी छोटी पड़ने लगी, जो एक-एक वोट से सत्ता पाती है. झटके में वोट की ताकत को डिगाने के लिए मीडिया एक ऐसे दोधारी हथियार के तौर पर उभरा, जिसमें सत्ता दिलाना और सत्ता से बेदखल कराने की भूमिका निभाना सौदेबाजी का खेल बन गया. दाग दोनों जगह लगे. राजनेता दागदार दिखे. मीडिया घराने मुनाफा कमाने के धंधेबाज दिखे. लेकिन, विकल्प की खोज की ताकत न तो मीडिया-पत्रकारों के पास रही, न ईमानदार नेताओं के पास. ऐसे में 16 मई के जनादेश से पहले चुनावी बिसात पर मीडिया वजीर से कैसे प्यादा बना, यह प्रचार के चुनावी तंत्र में पैसे के खेल ने आसानी से बता दिया. यह खेल तो चुनावी राजनीति में हमेशा खेला जाता रहा है. लेकिन यह किसी को समझ नहीं आया कि जो पूंजी चुनावी राजनीति के जरिये लोकतंत्र के चौथे खंभे को कुंद कर सकती है, जो पूंजी हर सत्ता या संस्थानों के सामने विकल्प बनाने के लिए बेहतरीन हथियार बन सकती है, वही पूंजी जनादेश के साथ खड़े होकर लोकतंत्र को अपनी जरूरत के हिसाब से क्यों नहीं चला सकती.

दरअसल, 16 मई के जनादेश के बाद पहली बार मीडिया का वह अंतर्विरोध खुल कर सामने आया, जिसने राजनीति के अंतर्विरोध को छुपा दिया. सत्ता बदली तो मीडिया के सामने संकट आया कि अब सत्ताधारियों की गुलामी कर अपनी साख बनाये या सत्ताधारियों पर निगरानी रख अपनी रिपोर्टो से जनता को समझाये कि राजनीतिक सत्ता ही सब कुछ नहीं होती है. लेकिन इसके लिए पत्रकारीय ताकत का होना जरूरी है. अब, जब पत्रकारिता ही मीडिया घरानों की चौखट पर सत्ताधारियों के लिए पायदान बन जाये, तो रास्ता जायेगा किधर! जाहिर है, इस पत्रकारीय पायदान की जरूरत ने इसकी कीमत भी बढ़ा दी, और सत्ता से निकट जाने के लिए पायदान पर कब्जा करने की मुहिम कॉरपोरेट कल्चर का हिस्सा बनने लगी. इसीलिए 16 मई के जनादेश ने हर उस परिभाषा को बदला, जो बीते 30 बरस के दौर में गढ़ी गयी थी. पत्रकारीय स्वतंत्रता का पैमाना बदला. मीडिया घराने चलाने के लिए पूंजी बनाने के तरीके बदले. सत्ता और मीडिया के बीच गंठजोड़ ने पाठक या दर्शक की सोच को बदला. झटके में उस तबके का गुस्सा मीडिया का साथ छोड़ सत्ता के साथ जा खड़ा हुआ, जो बीते 30 बरस से नैतिकता का पाठ मीडिया से पढ़ रहा था. ऐसे में जिस तरह 16 मई के जनादेश ने राजनीतिक सत्ता के उस दाग को छुपा दिया, जो भ्रष्ट और आपराधिक होती राजनीति को लेकर देश का सच बन चुका है. उसी तरह गैर-जिम्मेवाराना पत्रकारिता और सोशल मीडिया की जिम्मेवारी विहीन पत्रकारिता का दाग भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति तले दब गया.

दरअसल, 16 मई के बाद तीन बड़े बदलाव खुल कर सामने आये. पहला, जनादेश के सामने कोई तर्क मायने नहीं रखता है. दूसरा, राजनीतिक सत्ता की ताकत के आगे लोकतंत्र का हर पाया विकलांग है. और तीसरा, विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण गवर्नेस है. यानी जो पत्रकारिता लगातार विकल्प की तलाश में वैचारिक तौर पर देश को खड़ा करने के हालात पैदा करती है, उसे खुद सियासी सत्ता की लड़ाई लड़नी होगी. बिना इसके कोई रास्ता नहीं है. हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं, इसका अंदाजा 16 मई के बाद भाजपा के नये अध्यक्ष बने अमित शाह के इस अंदाज से समझा जा सकता है, जब उन्होंने एक खबर को वापस लेने के लिए रिपोर्टर को फोन पर परिणाम भुगतने की धमकी दी. यहां कोई भी यह सवाल खड़ा कर सकता है कि मीडिया को दबा कर सियासत कैसे हो सकती है. लेकिन समझना यह भी होगा कि पहली बार मीडिया को दबाने या ना दबाने से आगे की बहस हो रही है.

लोकतंत्र का मतलब क्या अब चुनाव जीतना भर हो चला है? संवैधानिक सत्ता के लिए जब बहुमत से जीतना भर है, तो बाकी विरोध करनेवाले चाहे संख्याबल में भले ज्यादा हों, उनका कोई हक नहीं बनता है, यह कितना उचित है? यह सवाल सत्ता के संघर्ष को लेकर भी है, जहां सत्ताधारी को इस बार 31 फीसदी वोट मिले हैं. और यह सवाल उन पत्रकारों को लेकर भी है, जिनकी तादाद मीडिया हाउस में बाकी काम करनेवालों से ज्यादा है, लेकिन वहां उनकी पत्रकारिता को कोई महत्व नहीं मिलेगा. और इसके समानांतर तकनीकी विकास को ही विकल्प बनाने का प्रयास होगा, चाहे देश की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति उसके अनुकूल ना हो. यानी रोजगार ना मिले, चंद हथेलियों में सारा मुनाफा सिमटे, समाज में खाई और बढ़े, विकास की तकनीकी धारा गावं को खत्म कर दे, विकास के नाम पर उपभोक्ताओं का समूह बनाये रखने पर जोर हो, और यह सब होते देखते हुए पत्रकारिता सरकारों का गुणगान करे और इसे सकारात्मक पत्रकारिता मान लिया जाये. तो फिर 16 मई से पहले और 16 मई के बाद पत्रकारिता कैसे और कितनी बदली है, इसका एहसास भी किसी को कहां होगा!

पुण्य प्रसून वाजपेयी

वरिष्ठ पत्रकार

punyaprasun@gmail.com

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