।। एमजे अकबर ।।
(वरिष्ष्ठ पत्रकार)
– आत्मचिंतन के मुकाबले फैसला सुनाना आसान होता है. हमें देखना है कि इस चुनावी मौसम में इस खेल का रुख क्या होता है. राजनेता वोटरों की उम्मीद पर खरा उतरने की कोशिश करेंगे और पत्रकार उनमें खामियां गिनायेंगे. इतना कुछ दावं पर होने के बाद यह तय है कि कभी-कभार तथ्यों को दलीय लाभ के लिए तोड़ा-मरोड़ा जायेगा और विपक्षी को बदनाम करने की कोशिश की जायेगी. –
जब बराक ओबामा ने पूर्वी तट पर आये तूफान के बाद राहत की निगरानी करने के लिए अपना चुनाव प्रचार रोक दिया था, तो विपक्षी दलों ने भी उनकी खूब सराहना की थी. रिपब्लिकन रणनीतिकार ने बाद में कहा था कि उनकी भागीदारी से उनके पक्ष में माहौल बना और इससे ओबामा की जीत सुनिश्चित हो गयी. लेकिन जब नरेंद्र मोदी उत्तराखंड गये और फिर तेजी से राहुल गांधी, तो विरोध की आवाज मुखर हो गयी. कुछ टिप्पणीकारों ने बड़े लेख लिख कर उन्हें एंबुलेस का पीछा करनेवाला करार दिया.
ओबामा को वोट चाहिए था, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को भी चाहिए. वोटरों को यह समझाने में क्या गलती है कि शासन इस संकट से निबट सकता है? गलती यह है कि राजनेता इसके बहाने अपनी राजनीति आगे बढ़ाना चाहते हैं. इसका एक अहम पहलू यह है कि अगर आप बिना यह जाने कि कैसे कूदा जाता है, दौड़ में शामिल हो जाते हैं तो इसका नकारात्मक असर गंभीर होगा. हर लोकतंत्र में जवाबदेही अक्षमता के खिलाफ बीमा नीति होती है.
मीडिया में कुछ लोग दिखावे का सामना करने में अक्षम हैं, जिससे वे मूर्खता की ओर चले जाते हैं. सौभाग्यवश इनकी संख्या काफी कम है. माइक्रोसॉफ्ट की मालिकाना हक वाली वेबसाइट ‘हॉटमेल’ ने शर्मिदगी वाले तथ्यों के आधार पर ‘हां’ या ‘न’ का सर्वे कराया, जिसमें भारतीय राजनीतिक बिरादरी पर प्रहार किया गया. इस वेबसाइट ने राहत का श्रेय ले रहे स्वार्थी राजनेताओं को इसका श्रेय लेना चाहिए या इस स्तर तक नहीं गिरना चाहिए, के लिए ‘हां’ या ‘न’ का विकल्प दिया था.
क्या मैं ऐसा ही सर्वे माइक्रोसॉफ्ट के लिए कराने की सलाह दे सकता हूं? हां, माइक्रोसॉफ्ट एक मल्टीनेशनल कंपनी है, जो अमेरिकी राजनेताओं को स्वार्थी कहने की हिम्मत कभी नहीं दिखा सकती, क्योंकि उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं के दौरान हमेशा नागरिकों को मदद करने की कोशिश की है. और नहीं, हमारे जैसे आडंबर वाले शौकिया लोगों को कभी वेबस्पेस मीडिया को रियलिटी शो के जज के आइक्यू की तरह सर्कस नहीं बनाना चाहिए.
सरकार चलानेवाले से हम क्या उम्मीद करते हैं? जब नागरिक संकट में हों तो आप छुट्टी पर चले जायें? क्या कुछ विश्लेषक इसलिए दोष ढूंढ रहे हैं, क्योंकि मोदी को यह विचार पहले आया? क्या वे प्रशंसा करते, अगर कोई दूसरा मुख्यमंत्री इसकी अगुवाई करता? ऐसे सवालों का कोई पुख्ता उत्तर नहीं है, क्योंकि सच्चाई अकसर अवचेतन में छिपी होती है. राहुल गांधी को यह श्रेय है कि वे उस बात को समझ गये, जो कुछ पत्रकार नहीं समझ पाये, कि लोगों की राय को मीडिया से नहीं, प्रभावित क्षेत्र में राहत कार्य की गुणवत्ता से बदली जा सकती है.
इस बारे में उन्हें जनमत सर्वेक्षण से भी पता चल गया होगा, जो अब हर गंभीर प्रचार अभियान के लिए जरूरी होगा, कि लोग मूर्ख नहीं हैं. प्राकृतिक आपदा के लिए वे राजनेताओं को दोष नहीं देते, लेकिन संकट के बाद प्रशासनिक चुनौतियों से निबटने में नाकामी के लिए सरकारों को माफ भी नहीं करते हैं. अगर उत्तराखंड में कांग्रेस संकट में है, तो इसलिए नहीं कि गुजरात और पंजाब के अधिकारियों ने शून्य को भरने की कोशिश की, बल्कि इसलिए कि राज्य सरकार संकट के समय गायब थी.
मीडिया और राजनीति के व्यापक क्षेत्र में ऐसे संकट के वक्त तनाव के लिए जगह बनी रहती है, जब दोनों के रास्ते टकराते हैं. यह सामान्य बात है और इसे बढ़ावा देने की जरूरत है. दिलचस्प यह है कि यह रिश्ता गतिशील है. राजनेता ईमानदार पत्रकारिता से हमेशा परेशान हो जाते हैं. पत्रकारिता का मुख्य काम सूचनाओं को सार्वजनिक करना है, जबकि सत्ता में बैठे लोग इसे छिपाना पसंद करते हैं. खुलासे उनके पुनर्निर्वाचन की संभावना को प्रभावित करते हैं.
किसी संकट की तरह उत्तराखंड ने भी खुलासे का मौका दिया है. मसलन यूपीए के शीर्ष नेता यह खबर पढ़ कर कसमसा रहे होंगे कि कांग्रेस के राहत सामग्री से लदे ट्रक, जिसे सोनिया और राहुल गांधी ने हरी झंडी दिखा कर रवाना किया था, रास्ते में इसलिए रुके पड़े हैं कि ड्राइवरों को तेल के लिए उचित पैसे नहीं दिये गये. ऐसी खबरें सार्वजनिक गपशप का हिस्सा बन जाती हैं.
नया यह हुआ है कि अब पत्रकार नियम तय कर रहे हैं कि राजनेताओं को कैसे काम करना चाहिए. हम यहां भ्रष्टाचार की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि अधिक अस्थिर नीति-निर्माण की बात कर रहे हैं. राजनेता और पत्रकार दोनों पहले खुद के लिए मानदंड तय करते हैं और अब लगता है कि एक-दूसरे के लिए मानदंड तय करने पर आमादा हैं. आत्मचिंतन के मुकाबले फैसला सुनाना काफी आसान होता है. हमें देखना है कि इस चुनावी मौसम में इस खेल का रुख क्या होता है.
यह तनाव बढ़ेगा, क्योंकि राजनेता वोटरों की उम्मीद पर खरा उतरने की कोशिश करेंगे और पत्रकार उनमें खामियां गिनायेंगे. इतना कुछ दावं पर होने के बाद यह तय है कि कभी-कभार तथ्यों को दलीय लाभ के लिए तोड़ा-मरोड़ा जायेगा और विपक्षी को बदनाम करने की कोशिश की जायेगी. सौभाग्य है कि राजनीति और पत्रकारिता का ‘सुप्रीम कोर्ट’ आम नागरिक है. दोनों का आकलन जनता की अदालत में होता है. बिना दर्शक के पत्रकारिता नहीं है. बिना वोटर के कोई राजनीतिक दफ्तर नहीं है. यह नियंत्रण हमारी व्यवस्था को स्वस्थ बनाये हुए है.