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एक त्रासदी और तीस साल का संघर्ष

भोपाल गैस कांड को कभी भुलाया नहीं जा सकता, बल्कि इसे पुनस्र्थापित करने की जरूरत है. इससे पहले कि फैक्ट्री में जमा जहरीले रसायन और जहर फैलाएं, डाउ केमिकल को उसे साफ करने की जिम्मेवारी लेनी होगी. आज से ठीक 30 वर्ष पहले दो दिसंबर, 1984 को कीटनाशक बनानेवाली यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से रिसे […]

भोपाल गैस कांड को कभी भुलाया नहीं जा सकता, बल्कि इसे पुनस्र्थापित करने की जरूरत है. इससे पहले कि फैक्ट्री में जमा जहरीले रसायन और जहर फैलाएं, डाउ केमिकल को उसे साफ करने की जिम्मेवारी लेनी होगी.
आज से ठीक 30 वर्ष पहले दो दिसंबर, 1984 को कीटनाशक बनानेवाली यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से रिसे ‘मिथाइल आइसोसाइनेट’ नामक जहरीली गैस ने भोपाल शहर को एक विशाल गैस चैंबर में बदल दिया था. लोग सड़कों पर उल्टियां करते भाग रहे थे, मर रहे थे. शहर के श्मशानों और कब्रगाहों में जगह नहीं बची थी. यह भारत का पहला व अब तक का एकमात्र बड़ा औद्योगिक हादसा था. सरकार को इस त्रसदी से निपटने का कोई अनुभव नहीं था और यूनियन कार्बाइड कंपनी ने भी कोई मदद नहीं दी. तीस साल बाद भी इस हादसे का कहर जारी है. ऐसा इसलिए नहीं कि उस भयानक रात को क्या हुआ था, बल्कि इसलिए कि उसके बाद हमारा रवैया अक्षम रहा है.
भोपाल को दो त्रसदियों का सामना करना पड़ा है- एक जो उस रात घटित हुई, और दूसरी, जिसका कहर अब भी जारी है. समस्या यह थी कि किसी को भी टॉक्सिन या उसके प्रतिरोधी दवा के बारे में जानकारी नहीं थी. घटना के कुछ ही सप्ताह के भीतर बहुतों ने दावा कर दिया था कि खतरा टल गया है और लोगों को वही बीमारियां- तपेदिक, खून की कमी आदि- हैं, जो आम तौर पर गरीबों को होती रहती हैं. लेकिन आज तक किसी को भी यह ठीक से पता नहीं है कि ‘मिथाइल आइसोसाइनेट’ के कुप्रभाव क्या-क्या हैं और इस गैस की चपेट में आये लोगों का इलाज कैसे हो. स्वास्थ्य पर असर दो कारणों से और गंभीर हो गया है- एक, त्रसदी के समय मां के गर्भ में पल रहे शिशु पर असर, और दूसरा, इस फैक्ट्री में अब भी खतरनाक रासायनिक पदार्थ दबे पड़े हैं, जो आसपास के क्षेत्र के पेयजल को प्रदूषित करते हैं. इन समस्याओं पर काबू पाया जा सकता था, अगर सरकार को इन रसायनों और उनके उपचार की जानकारी होती. लेकिन, आज 2014 में भी दिल्ली की भारतीय मेडिकल रिसर्च परिषद् इतना ही कह पाती है कि भोपाल गैस से हो रही बीमारियों के कारक तत्व का सही पता नहीं है. आखिर क्यों?
यूनियन कार्बाइड ने वाणिज्य गोपनीयता के कानूनों का हवाला देकर रिसाव हुए गैसों के तत्वों की जानकारी देने से मना कर दिया था. हालांकि, मुख्य गैस ‘मिथाइल आइसोसाइनेट’ होने की जानकारी थी, लेकिन जब यह रसायन उच्च तापमान पर पानी के साथ प्रतिक्रिया करता है, तो इससे 300 से अधिक टॉक्सिक रसायन बनते हैं. जानवरों पर किये गये इस गैस के कुप्रभाव की जांच के अनुरूप ही इलाज उपलब्ध है. निश्चित रूप से यह पूरा प्रकरण भयावह रूप से आपराधिक है. घटना के कुछ दिनों के भीतर सोडियम थियोसल्फेट के इंजेक्शन काम कर रहे थे, लेकिन रहस्यमय ढंग से इस दवा का प्रयोग जल्दी ही बंद कर दिया गया. कई लोगों का मानना है कि ऐसा यूनियन कार्बाइड और उसके वकीलों के दबाव में किया गया था. केंद्र सरकार ने रोगों की जांच शुरू की थी, लेकिन, 1994 के बाद अध्ययन-प्रक्रिया को रोक कर इसकी पूरी जिम्मेवारी मध्य प्रदेश सरकार को दे दी गयी. इस दिशा में प्रगति बेहद निराशाजनक है. यह सब तब हो रहा है, जब सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार रोगियों के विवरण रखने और रिसर्च करने के निर्देश दिये हैं.
इस त्रसदी ने दुर्भाग्यपूर्ण भोपाल के बाहर दुनिया में अपना असर दिखाया है. इसके बाद रासायनिक और खतरनाक कचरा प्रबंधन को लेकर जागरूकता आयी और अनेक कानून बने एवं पहले के नियमों को सख्त किया गया. यही कारण है कि भोपाल जैसी भयावह दुर्घटना बीते 30 वर्षो में नहीं घटी है. लेकिन, भारत में कई छोटी-छोटी दुर्घटनाओं की संभावना मौजूद है. खतरनाक कचरा हमारी जमीन, पानी और हवा को दूषित कर रहा है, जबकि हमारे पास इन टॉक्सिक प्रभावित जगहों को अप्रभावी करने के साधन या तरीके उपलब्ध नहीं हैं.
तीन दशकों के बाद भी भारत सरकार यूनियन कार्बाइड और बाद में इसे अधिगृहित करनेवाली कंपनी डाउ केमिकल की जवाबदेही साबित करने के लिए संघर्षरत है. यह बहुत ही शर्मनाक है. 2009 में जब दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनियों में से एक बीपी द्वारा तेल निकालने के दौरान मेक्सिको की खाड़ी में हादसा हुआ था, तो अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने सीधे कंपनी को भारी हर्जाना चुकाने का आदेश दे दिया था. 1989 में एक्सॉन के विरुद्ध एक बिलियन डॉलर का हर्जाना निर्धारित किया गया था, जबकि भोपाल के लिए बतौर ‘राहत’ महज 470 मिलियन डॉलर. शर्मनाक है कि अटलांटिक सागर में मरे सीलों (समुद्री जीव) की कीमत भोपाल के हजारों लोगों की मौत से बहुत अधिक आंकी गयी.
भोपाल कभी भुलाया नहीं जा सकता, बल्कि इसे पुनर्स्थापित करने की जरूरत है. इससे पहले कि फैक्ट्री में जमा जहरीले रसायन और जहर फैलाएं, डाउ केमिकल को उसे साफ करने की जिम्मेवारी लेनी होगी. भोपाल न्याय और पर्यावरण के पक्ष में सामूहिक संघर्ष का प्रतीक है.
(लेखक द्वय की पुस्तक ‘भोपाल गैस ट्रेजेडी : आफ्टर थर्टी इयर्स’ का संपादित अंश/ साभार)
सुनीता नारायण
एवं चंद्र भूषण
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्नमेंट
delhi@prabhatkhabar.in

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