20.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

बायकॉट और बैलेट के बीच

शुजात बुखारी वरिष्ठ पत्रकार दूसरे चरण के मतदान में कश्मीर के कुछ हिस्सों में बहिष्कार का असर दिखा है. कुछ युवाओं ने बताया कि वे आजादी के समर्थक हैं और उनकी जिंदगी हुर्रियत नेता गिलानी के लिए है, लेकिन वे न्याय के लिए एक खास उम्मीदवार को विजयी बनाना चाहते हैं. जम्मू-कश्मीर चुनाव के पहले […]

शुजात बुखारी
वरिष्ठ पत्रकार
दूसरे चरण के मतदान में कश्मीर के कुछ हिस्सों में बहिष्कार का असर दिखा है. कुछ युवाओं ने बताया कि वे आजादी के समर्थक हैं और उनकी जिंदगी हुर्रियत नेता गिलानी के लिए है, लेकिन वे न्याय के लिए एक खास उम्मीदवार को विजयी बनाना चाहते हैं.
जम्मू-कश्मीर चुनाव के पहले और दूसरे चरण में भारी मतदान ने कई लोगों को अचंभित कर दिया है. बहुत-से लोगों की नजर में यह मतदान अभूतपूर्व है, क्योंकि राज्य, विशेष रूप से कश्मीर घाटी, की जनता का राजनीतिक विवाद के समाधान को लेकर भारतीय राज्य से टकराव रहा है.
कई लोगों के अनुसार, चुनावी व्यवस्था में जनता द्वारा भरोसा जताना कश्मीर में अलगाववाद का अस्वीकार है. यह एक तथ्य है कि आत्म-निर्णय के लिए आंदोलन चलानेवाले अलगाववादियों ने चुनाव बहिष्कार का आह्वान किया था और मतदान में भाग लेनेवाले लोगों ने इस आह्वान को अहमियत नहीं दी.मुङो कश्मीर में अशांति के बाद हुए पहले चुनाव की याद आ रही है.
वर्ष 1996 के मई महीने में आम चुनाव हुए थे और प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी नेशनल कांफ्रेंस ने राज्य की स्वायत्तता बहाल करने को पूर्व शर्त बनाते हुए उस चुनाव का बहिष्कार किया था. इससे भारत सरकार के समक्ष एक बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई थी, किंतु सात वर्षो के अंतराल के बाद राज्य में चुनाव कराये जाने की घोषणा कर दी गयी. लोकसभा चुनाव उसी वर्ष सितंबर में कराये गये विधानसभा चुनाव के लिए तैयारी के भी हिस्सा थे.
इस पहले चुनावी कवायद को पत्रकार के रूप में रिपोर्ट करने के लिए अन्य सहकर्मियों के साथ मेरी भी गहरी दिलचस्पी थी. भारतीय सेना या चुनाव-विरोधियों द्वार रोके जाने की संभावना से बचने के लिए हमने एक दिन पहले ही बारामुला पहुंचने का निर्णय लिया. हम सभी स्वर्गीय गुलाम जीलानी बाबा के घर पर ठहरे, जो कई अखबारों के लिए बहुत लंबे समय से स्ट्रिंगर का काम करते थे.
चुनाव के दिन माहौल तनावपूर्ण था और लोगों के मतदान में भाग लेने का कोई संकेत न था. बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती ने चुनाव-केंद्रों को फौजी बैरकों में बदल दिया था. पूरी चुनावी प्रक्रिया कोई बाहरी कार्यक्रम लग रही थी. ऐसा सिर्फ सड़कों पर सेना की भारी मौजूदगी के कारण ही नहीं लग रहा था, बल्कि चुनाव कराने के लिए अन्य राज्यों से लाये गये कर्मचारियों के कारण भी था. राज्य के कर्मचारियों ने चुनावी ड्यूटी करने से मना कर दिया था. हम लोग पहले ‘बहादुर मतदाता’ के आने का इंतजार कर रहे थे.
कई बूथों पर हमने तब तक प्रतीक्षा की, जब सेना के जवान हरकत में आये और लोगों को जबरदस्ती घरों से निकाल कर बूथ पर लाने लगे. वे लोगों को घसीट-घसीट कर भारतीय लोकतंत्र में भरोसा जताने के लिए ला रहे थे. हालांकि, सेना की इस कार्रवाई का विरोध हुआ, लेकिन दिन के आखिर में बताने के लिए मतदान प्रतिशत का एक आंकड़ा था. कश्मीर में हर जगह यही किया गया था.
तीन महीने बाद भारत सरकार ने विधानसभा चुनाव कराये. शेष स्थितियां तो लोकसभा चुनाव जैसी ही थीं, लेकिन सुरक्षा के मामले में सरकार समर्थित हथियारबंद गिरोह इखवान इस बार अधिक सक्रिय थी. लोगों के ठोस प्रतिरोध के कारण सरकार की साख सवालों के घेरे में थी. राजनीतिक परिदृश्य से हमेशा के लिए बाहर होने का खतरा भांपते हुए नेशनल कांफ्रेंस बिना स्वायत्तता की मांग के ही चुनाव मैदान में आ गयी.
सूत्रों के अनुसार, फारूक अब्दुल्ला को बताया गया कि एक अलगाववादी नेता चुनाव में भाग लेने के लिए तैयार है और उसे मुख्यमंत्री बनाया जायेगा. अब्दुल्ला ने अपने पहले के निर्णय पर पुनर्विचार करते हुए चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया. मई महीने की तरह ही इस चुनाव में भी हरकतें हुईं. कर्मचारी दूसरे राज्यों से लाये गये, और जोर-जबरदस्ती का प्रयोग कर मतदान प्रतिशत बढ़ाया गया.
समय के साथ चुनावों की विश्वसनीयता बढ़ी और लोगों ने मतदान में अपनी इच्छा से भाग लेना शुरू किया, जिसका नजारा हम इस बार भी देख रहे हैं. राजनीतिक दलों से जुड़ाव और शासन में पहुंच के कारण लोगों को सरकारी नौकरी, ठेकेदारी और अन्य फायदे हुए.
इस बार का मतदान अपनी जिंदगी की बेहतरी और नेताओं को जवाबदेह बनाने के लोगों के इरादे का नतीजा हैं. इसे कश्मीर में व्यापक राजनीतिक विमर्श के साथ जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए. अगर चुनाव जनमत संग्रह है या विलय के निर्णय पर मुहर लगाता है, तो फिर साल 2008, 2009 और 2010 में भारी संख्या में लोगों को सड़कों पर उतरने की क्या जरूरत थी? फिर लोग आतंकवादियों की शोक-सभाओं में क्यों जाते हैं? दूसरे चरण के मतदान में कश्मीर के कुछ हिस्सों में बहिष्कार का असर दिखा है. कुछ युवाओं ने बताया कि वे आजादी के समर्थक हैं और उनकी जिंदगी हुर्रियत नेता गिलानी के लिए है, लेकिन वे एक खास उम्मीदवार को विजयी बनाना चाहते हैं, ताकि उनके साथ न्याय हो सके. युवाओं की इस बात से कश्मीर घाटी में बॉयकॉट और बैलेट के द्वैध को बखूबी समझा जा सकता है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें