दरअसल, विश्वभर में भुखमरी की समस्या कम अन्न उत्पादन की नहीं है, बल्कि यह समस्या वितरण की है. उपलब्ध खाद्यान्नों का वितरण गरीबों के पक्ष में सही तरीके से कर दिया जाये, तो हमारे देश से गरीबी रातों-रात गायब हो जायेगी.
जीन परिवर्तित खाद्य पदार्थो का मामला लंबे समय से विवादित रहा है. यूपीए सरकार के पर्यावरण मंत्रियों जयराम रमेश तथा जयंती नटराजन ने इनकी फील्ड ट्रायल करने की अनुमति नहीं दी थी, लेकिन बाद में गत वर्ष वीरप्पा मोइली ने इन्हें हरी झंडी दे दी. कुछ समय पूर्व एनडीए सरकार के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पुन: इसे लाल बत्ती दिखा दी थी. लेकिन, हाल में अपना रुख बदलते हुए उन्होंने जीन परिवर्तित बैगन और सरसों के फील्ड ट्रायल की अनुमति दे दी है. प्रकाश ने संसद में कहा है कि जीन परिवर्तित बीजों का उत्पादन हमारे लिए आय के नये अवसर खोलता है.
प्रकृति में जीन का लेन-देन सामान्य रूप से होता रहता है. नर-मादा के संयोग से नये जीन बनते रहते हैं. जीन परिवर्तन तकनीक से दूसरी प्रजाति के जीन को आरोपित किया जा सकता है. जैसे कपास के पौधे में जहरीले कीड़े के जीन को जोड़ दिया गया, तो बीटी कॉटन बना. इसकी जड़, तना, पत्ती, फल सब जहरीले होते हैं. बालवर्म कीड़ा जब बीटी कॉटन को खाता है, तो वह मर जाता है. देश में लगभग 95 प्रतिशत कपास उत्पादन इस प्रकार के जीन परिवर्तित बीटी कॉटन का हो रहा है.
जीन परिवर्तित बीज को कॉमर्शियल स्तर पर बेचने के पहले इनकी फील्ड ट्रायल की जाती है. लैब में बनाये गये पौधे खेत में कितना सफल हैं, इसका आकलन किया जाता है. फील्ड ट्रायल में सही पता लगता है कि मेजबान पौधे में दाता का कौन सा जीन आरोपित हो पाया है. जैसे, सरसों के जीन परिवर्तित बीज का फील्ड ट्रायल किया गया. इस जीन परिवर्तित पौधे में कीटाणुओं को मारने की क्षमता है. लेकिन फील्ड ट्रायल में पाया गया कि सरसों का दाना भी जहरीला हो गया. ऐसे में इस प्रजाति के प्रसार को रोका जा सकता है. परंतु, इस बात का डर होता है कि ट्रायल की अवधि में यह जहरीला जीन चारों ओर फैल सकता है.
इंग्लैंड सरकार द्वारा सरसों के जीन परिवर्तन फील्ड ट्रायल की स्वीकृति दी गयी. पाया गया कि 200 गज से भी दूर उग रहे सामान्य पौधों में भी जीन परिवर्तन फैल गया. साथ-साथ जीन परिवर्तित सरसों की कीटनाशक क्षमता जंगली पौधों में भी फैल गयी. इन पौधों में कीटनाशक दवाओं का प्रतिरोध करने की क्षमता बढ़ गयी. फलस्वरूप, इन्हें कीटनाशकों से मारना कठिन हो गया. वैज्ञानिकों के अनुसार, इससे ‘सुपर वीड’ के पैदा हो जाने की संभावना है, जो घास की तरह सर्वत्र फैल सकती है, जिसका उन्मूलन कठिन होगा. खेत के आसपास जंगली पौधों के बीज पैदा करने की क्षमता भी कम हो गयी. ये बीज ही चिड़ियों, मधुमक्खियों तथा तितलियों का भोजन होते हैं. फलस्वरूप उस पूरे क्षेत्र में इन जीवों पर दुष्प्रभाव पड़ने और पूरे क्षेत्र के पर्यावरण में बदलाव आने की संभावना बन रही है. इसलिए फील्ड ट्रायल पर रोक उचित है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीन परिवर्तित खाद्य पदार्थो पर सहमति नहीं है. फ्रांस ने इनकी ट्रायल और उत्पादन पर रोक लगा रखी है, जबकि स्पेन ने छूट दे रखी है. पंजाब तथा महाराष्ट्र ने इनका स्वागत किया है, जबकि तमिलनाडु तथा केरल ने इनका विरोध किया है. पर्यावरणविद् वंदना शिवा बताती हैं कि वैश्विक स्तर पर जीन परिवर्तित फसलों के ट्रायल पर चर्चा जारी है और निर्णय आना बाकी है. इस अनिश्चितता में जल्दीबाजी में जीन परिवर्तित फसलों को स्वीकार करना गलत होगा.
जीन परिवर्तित फसलों के पक्ष में मुख्य तर्क उत्पादन में वृद्घि का है. कहा जा रहा है कि विश्व में भुखमरी खत्म करने के लिए खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि जरूरी है. यह सही है कि जीन परिवर्तन से प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ सकता है, परंतु इससे भुखमरी समाप्त होगी, मुङो इसमें संशय है. दरअसल, भुखमरी की समस्या कम उत्पादन की नहीं है, बल्कि वितरण की है. उपलब्ध खाद्यान्नों का वितरण गरीबों के पक्ष में सही तरीके से कर दिया जाये, तो गरीबी रातों-रात गायब हो जायेगी.
दूसरा तर्क वैश्विक प्रतिस्पर्धा का है. मान लीजिए, ऑस्ट्रेलिया ने गेहूं में जीन परिवर्तन किया. गेहूं उत्पादन में वृद्घि हुई. उसकी सप्लाई बढ़ी और वह विश्व बाजार में सस्ता बिकने लगा. भारत में इसका आयात होने लगा. ऐसे में हमारे किसानों के लिए जरूरी हो जायेगा कि वे जीन परिवर्तित गेहूं का उत्पादन करें वरना उनका गेहूं महंगा पड़ेगा. यह समस्या वास्तविक है. हालांकि, ऑस्ट्रेलिया के जीन परिवर्तित गेहूं पर हम अधिक आयात कर लगा कर उसे बाजार से बाहर कर सकते हैं. लेकिन फिर भी जीन परिवर्तित खाद्यान्नों को अपनाना जरूरी नहीं दिखता है.
पर्यावरण मंत्री इससे एक कदम आगे चलने को तैयार हैं. देश में जीन परिवर्तित बीजों के माध्यम से उपज में वृद्घि होने से वे संतुष्ट नहीं हैं. वे तो निर्यात के लिए इनका उत्पादन करना चाहते हैं. जाहिर है, बड़े पैमाने पर इन बीजों के उत्पादन से हमारी संपूर्ण कृषि प्रभावित हो सकती है. इनको अपनाने के खतरों को देखते हुए इनसे बचना ही उचित है.
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
bharatjj@gmail.com