कोई भी दल मुश्किलों से वाकिफ नहीं

ज्यां द्रेज अर्थशास्त्री झारखंड सरकार ने शासन करने का एक अलग ही तरीका खोज लिया है. हम इसे ‘दिखावटी सरकार’ कह सकते हैं. यह दिखावटी सरकार अमल में लाये जाने की परवाह किये बगैर घोषणाएं, योजनाओं की शुरुआत और आदेश जारी करने का काम करती है. इनसे एक ऐसी काल्पनिक दुनिया तैयार हो रही है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 9, 2014 8:10 AM
ज्यां द्रेज
अर्थशास्त्री
झारखंड सरकार ने शासन करने का एक अलग ही तरीका खोज लिया है. हम इसे ‘दिखावटी सरकार’ कह सकते हैं. यह दिखावटी सरकार अमल में लाये जाने की परवाह किये बगैर घोषणाएं, योजनाओं की शुरुआत और आदेश जारी करने का काम करती है. इनसे एक ऐसी काल्पनिक दुनिया तैयार हो रही है, जिसका जमीनी सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है.
29 दिसंबर, 2013 को रांची में नरेंद्र मोदी ने एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए झारखंड की जनता से कहा था कि वे राज्य की गरीबी पर मंथन करें और भारतीय जनता पार्टी को वोट दें, लेकिन यह कहते हुए मोदी भूल गये कि साल 2000 में झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद के इन 14 सालों में आठ साल तो यहां भाजपा की ही सरकार थी.
भारत के किसी दूसरे राज्य की तुलना में झारखंड में चुनाव का मतलब सत्ता के लिए खुला संघर्ष है. भारत की वर्तमान राजनीति में लगभग सभी राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में गंभीर उद्देश्य नदारद होते जा रहे हैं. उम्मीदवार बिना सोचे-समङो दूसरे दलों का दामन थामने लगे हैं. मतदाता पैसे और शराब के बल पर खरीदे जाने लगे हैं. उनके लिए सभी दल एक जैसे हैं. जैसा कि अरुंधति रॉय की नयी किताब में भी बेहद कुशलता से यह बात रखी गयी है कि लोकतंत्र में अचानक ढेर सारे पैसे आने के कारण राजनीतिक दलों के एजेंडे में जनता के मुद्दे गौण हो गये हैं. लोकतंत्र के इस खोखलेपन के लिए झारखंड को भारी कीमत चुकानी पड़ी है. सामाजिक सूचकांक में भारत के प्रमुख राज्यों की तुलना में झारखंड का प्रदर्शन सबसे बुरा रहा है.
योजना आयोग के मुताबिक, 2011 से 2012 के बीच झारखंड में गरीबी दूसरे राज्यों के मुकाबले सबसे अधिक रही. इसी तरह, यदि मध्य प्रदेश को छोड़ दें, तो किसी भी दूसरे राज्य की तुलना में झारखंड में सामान्य से कम वजन वाले बच्चों की संख्या अधिक है. इसके बावजूद झारखंड की राजनीति में सामाजिक विकास लगभग गायब है. झारखंड में ऐसे सामाजिक विकास की बहुत सख्त जरूरत है. इस तरह देखें तो पायेंगे कि झारखंड सरकार ने शासन करने का एक अलग ही तरीका खोज लिया है.
हम इसे ‘दिखावटी सरकार’ कह सकते हैं. यह दिखावटी सरकार अमल में लाये जाने की परवाह किये बगैर घोषणाएं, योजनाओं की शुरुआत और आदेश जारी करने का काम करती है. इनसे एक ऐसी काल्पनिक दुनिया तैयार हो रही है, जिसका जमीनी सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है.
उदाहरण के लिए, झारखंड सरकार ने कई बार घोषणा की है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून फलां तारीख से लागू होगा. जुलाई, 2014 में कहा गया था कि योजना एक अक्तूबर से लागू होगी. एक अक्तूबर आया और चला भी गया, लेकिन इस कानून को जमीनी स्तर पर लागू करना अब भी दूर की कौड़ी है. असल हकीकत यह है कि कानून लागू करने के लिए झारखंड सरकार के पास न कोई रणनीति है और न ही इसकी कोई तैयारी ही है. इसके विपरीत अगर इसके मातृ-राज्य बिहार की बात करें, तो वर्तमान में बिहार बहुत आगे निकल गया है. वहां राशन कार्ड बांटे जा चुके हैं और खाद्य सुरक्षा कानून पर अमल शुरू हो गया है.
झारखंड में, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अगस्त में घोषणा की थी कि सितंबर से ही प्राथमिक विद्यालयों में ‘मिड-डे मील’ में हफ्ते में तीन बार बच्चों को अंडे दिये जायेंगे. भूख और कुपोषण से जूझ रहे झारखंड के बच्चों के बेहतर पोषण के लिए यह बढ़िया कदम साबित हो सकता था. मगर अफसोस, अंडों की झलक पाये बगैर ही बच्चों का सितंबर महीना बीत गया. जाहिर है कि प्राथमिक विद्यालयों में अंडों की आपूर्ति का ठेका लालची कारोबारियों के हाथ में चला गया है. यह मसला अब तक अनसुलझा है. ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लंबी हो सकती है. समस्या हेमंत सोरेन सरकार पर सवाल खड़े करने से कहीं ज्यादा गंभीर है. इससे पहले की सरकारों के समय भी समस्याएं कम गंभीर नहीं थीं.
29 दिसंबर, 2013 को रांची में नरेंद्र मोदी ने एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए झारखंड की जनता से कहा था कि वे राज्य की गरीबी पर मंथन करें और भारतीय जनता पार्टी को वोट दें, लेकिन यह कहते हुए मोदी भूल गये कि साल 2000 में झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद के इन 14 सालों में आठ साल तो यहां भाजपा की ही सरकार थी.
दिलचस्प यह है कि न केवल यहां की सरकार कमजोर है, बल्कि विपक्षी पार्टियों का भी किसी मुद्दे पर कोई दखल नहीं है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कोई भी दल इन मुश्किलों से वाकिफ नहीं है. झारखंड के प्रमुख राजनीतिक दलों की खाद्य सुरक्षा या ग्रामीण रोजगार जैसे मसलों में कोई दिलचस्पी नहीं. रांची में हाल में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर चर्चा के लिए विधानसभा सदस्यों की बैठक हुई. भोजन का अधिकार अभियान दल की ओर से बैठक बुलायी गयी थी. बैठक में केवल दो विधायक पहुंचे.
उनमें से एक ने लंबा-चौड़ा भाषण दिया, जिसका अधिकांश हिस्सा खाद्य सुरक्षा से जुड़ा हुआ नहीं था. जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पर उनसे सवाल किया गया, तो वे बड़ी विनम्रता से ‘विशेषज्ञ नहीं हूं’ कह कर बात टाल गये. झारखंड विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, नेता कपड़ों की तरह पाला बदलने लगे हैं. झारखंड का आनेवाला चुनाव ‘दिखावटी सरकार’ के सिद्धांत का एक और विस्तार है. चुनाव में दिखावटी रस्मों को पूरी श्रद्धा से निभाया भी जायेगा. अब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन लगायी जायेंगी, लोग भारी संख्या में मतदान के लिए आयेंगे और उम्मीद है कि सब कुछ शांतिपूर्वक होगा. यह बड़ी उपलब्धि होगी, मगर यह लोकतंत्र नहीं है.
यह तो खोखली इमारत की नींव रखने जैसा है. चुनाव की ये रस्में तभी सफल होंगी, जब झारखंड के लोगों के सामने सार्थक विकल्प हों और वे रोजमर्रा के जीवन में पूरी हिस्सेदारी के लिए सशक्त बनाये जायें. उम्मीद है कि आज नहीं तो कल परिस्थितियां बदलेंगी और राजनीतिक दल जनता की इच्छाएं और जरूरतें समङोंगे. झारखंड में आज सबसे बड़ी चुनौती एक पार्टी की जगह दूसरी पार्टी की सरकार बनना नहीं, बल्कि झारखंड की लोकतांत्रिक राजनीति के समूचे एजेंडे में सुधार लाना है. ऐसे में जरूरी है कि वंचित तबकों को भी आवाज मिले. सवाल यहां केवल मतदान का नहीं, बल्कि सवाल यह है कि सभी लोकतांत्रिक संस्थानों में लोगों की सक्रिय भागीदारी हो.
(साभार : बीबीसी हिंदी)

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