जनदबाव से ही विकेंद्रीकरण का सपना पूरा होगा
मेधा पाटकर प्रख्यात सामाजिक कायकर्ता नागर समाज व्यवस्था के विकेंद्रीकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए दबाव बनाये, तभी लोकतंत्र प्रभावी हो पायेगा. चुनाव के मुहाने पर खड़े झारखंड को सिर्फ यह प्रयास नहीं करना है कि राज्य में स्थायी सरकार आये, बल्कि ऐसे जनप्रतिनिधियों का चयन करना है, जो कि विकास की प्रक्रिया को […]
मेधा पाटकर
प्रख्यात सामाजिक कायकर्ता
नागर समाज व्यवस्था के विकेंद्रीकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए दबाव बनाये, तभी लोकतंत्र प्रभावी हो पायेगा. चुनाव के मुहाने पर खड़े झारखंड को सिर्फ यह प्रयास नहीं करना है कि राज्य में स्थायी सरकार आये, बल्कि ऐसे जनप्रतिनिधियों का चयन करना है, जो कि विकास की प्रक्रिया को जमीन पर उतारने में मददगार हो सकें, तभी सही मायने में झारखंड निर्माण का सपना पूरा होगा.
सैद्धांतिक रूप से हम छोटे राज्यों के पक्ष में हैं. झारखंड हो या छत्तीसगढ़ या फिर उत्तराखंड इन सभी राज्यों के निर्माण के पीछे एक लंबा जनसंघर्ष रहा है. लोगों ने अपने मूल राज्य में रहते उनके साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ आवाज उठायी, संघर्ष किया, लड़ाइयां लड़ी, तब जाकर उन्हें ये राज्य मिला. लेकिन आज जब इन राज्यों के निर्माण के एक दशक से ज्यादा का समय बीत गया, ऐसे में ठहर कर यह सोचने का वक्त जरूर आ गया है कि क्या राज्य के लोगों की आकांक्षाएं पूरी हुई, या फिर क्या इन आकांक्षाओं को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़े?
आज ऐसा लगता है कि छोटे राज्य तो बनाये गये, लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव भी हो रहे हैं, लोग इसमें शिरकत भी कर रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र के जो फायदे आम जनमानस को मिलना चाहिए था, जिस तरह से उनकी भागीदारी होनी चाहिए थी, वो नहीं हो पायी. छोटे राज्य बना देने मात्र से समस्याओं का समाधान नहीं होता इसके लिए जरूरी है कि विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया नीचे तक पहुंचे. ग्राम सभा को उनके पर्याप्त अधिकार मिले. विकास की प्रक्रिया और नियोजन में उनकी भागीदारी हो. ऐसा नहीं हुआ है.
आज भी झारखंड में ग्राम सभाओं को पर्याप्त अधिकार नहीं दिया गया है, न ही विकास की प्रक्रिया और नीति के निर्माण में उनकी भागीदारी है. चुनावों में भाग लेना और मतदान प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने का मतलब यह कदापि नहीं है कि उनकी राजनीतिक भागीदारी बढ़ी है. झारखंड के ज्यादातर इलाकों में जिस तरह से राजनीतिक बिरादरी ने कॉरपोरेट के साथ गंठजोड़ कर जमीनों का बंदरबांट किया है, विकास की प्रक्रिया को आगे बढाने के नाम पर एमओयू हस्ताक्षर किये गये हैं, उससे साफ है कि राजनीतिक बिरादरी, सत्ता में शामिल लोग चाहे किसी भी दल के हों, जनभावनाओं की परवाह किये बिना जमीनें बांट रहे हैं.
जिन अस्मिताओं को जगा कर राज्य के निर्माण के लिए लोग एकजुट हुए, उन्होंने आज अपने अस्तित्व के सवाल पर सरकारी तंत्र और कॉरपोरेट के गंठजोड़ के कारण उपजी समस्या को लेकर एकजुट होना शुरू कर दिया है. दुमका आदि जगहों पर कॉरपोरेट द्वारा अपनी संपदा छीनने से बचाने के लिए लोगों ने संघर्ष करना शुरू कर दिया है. प्रदेश के गरीब आदिवासी जो झाड़ और जल का प्रबंधन करते थे, वो बड़ी कंपनियों के कारण जमीन से वंचित कर दिये गये और केवल वोट के निमित्त बन गये. रांची, धनबाद, जमशेदपुर आदि शहरों के आसपास के गांवों में यह दिखाने की कोशिश हुई है कि इनका विकास इन्हीं कॉरपोरेटों के सहयोग से हो रहा है, लेकिन यह आधी-अधूरी सच्चई है.
शहरी विकास को पोषित करनेवाली सरकारें और उनकी नीतियां अकसर यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि प्रदेश में विकास हो रहा है. लेकिन वे यही नहीं बताते कि शहर के आजू-बाजू के गांव का विकास नहीं हुआ है, बल्कि गांव का आकार बदल गया है. ऐसे झारखंड का सपना तो झारखंड निर्माण के लिए सतत संघर्ष करनेवाले मनीषियों ने कदापि नहीं देखा था. वे तो जल, जंगल, जमीन और खनिज संपदा से परिपूर्ण इस राज्य को बाजार के हवाले कर संसाधनों का कॉरपोरेट को हस्तांतरण के लिए ही संघर्षरत थे.
गांव के भोले-भाले लोग राजधानी में बैठ कर योजना बनानेवाले नीति नियंताओं के हाथों पिस रहे हैं. सरकार की योजनाएं ऊपर से आती हैं. आज गांव में महिलाओं का पलायन बदस्तूर जारी है. सरकारी योजनाओं की भरमार है, लेकिन यह गांव तक नहीं पहुंचती. सरकार और बिचौलिये के बीच के सांठगांठ के कारण यह रास्ते में ही दम तोड़ देती है, राजनेता अमीर होते जाते हैं, और विचौलिये भी. जिनके लिए ये योजनाएं बनायी जाती हैं, जिनके विकास की दुहाई दी जाती है, वे ग्रामीण शहर और नगरों में अपनी जल, जंगल और जमीन से बेदखल होकर मजदूरी करने को विवश होता है. ये दलाल सिर्फ मजदूरी ही नहीं कराते, बल्कि गांव से लेकर शहर तक के लिए एक पूरा शोषण तंत्र विकसित किया गया है, ताकि शहरों में लाकर इनका शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न किया जा सके.
फिर यह सवाल उठता है कि आखिर सरकार तो यही जनता चुनती है, लेकिन मैंने पहले ही कहा कि इसमें आंशिक सच्चई है. सरकार चुनने के बाद ये फिर से हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं. विकास की योजना में विकेंद्रीकरण के अभाव के कारण ग्रामीणों की आवाज ऊपर तक नहीं पहुंच पाती. ग्रामीण जितना मिला वही बहुत है, सोच कर चुप्पी साध लेते हैं. यदि कभी आवाज उठायी, तो यह तर्क दिया जाता है कि नक्सलियों का प्रभाव है, या फिर उन्हें नक्सली करार दिया जा सकता है, जो कि विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं.
ऐसा कहने के पीछे मेरी मंशा यह कदापि नहीं हैं कि नक्सली जो कर रहे हैं वह ठीक है. लोकतंत्र में अपनी बात रखने का सबको हक है, लेकिन हिंसा सिर्फ उन्माद को जन्म देती है.
एक प्रमुख बात यह भी है कि जब से राज्य का निर्माण हुआ है, उसी समय से राज्य में लगातार आदिवासी मुख्यमंत्री है. इसलिए यह तर्क भी नहीं दिया जा सकता कि बाहरी लोगों के कारण मूल निवासियों की सत्ता के विकेंद्रीकरण में भागीदारी नहीं है. दरअसल, यहां भ्रष्टाचार की बेल इस कदर जड़ें जमा चुकी हैं, कि आदिवासी नेता भी अपने ही लोगों के अधिकारों की लूट में लगे हुए हैं. सत्ता लोगों को भ्रष्ट करती है, चाहे आदिवासी हों या कोई और सत्ता में पहुंचते ही बस एक मात्र लक्ष्य पैसा कमाना होता है न कि जनता का कल्याण. चाहे आदिवासी नेता हों या कोई और सभी इसी तर्क से संचालित हो रहे हैं.
जहां तक छत्तीसगढ़ का सवाल है, स्थायी शासन के कारण यहां झारखंड की तुलना में सामाजिक विकास की योजनाएं ज्यादा चलायी गयी हैं. लोग अब इन योजनाओं के विषय में जागरूक भी हुए हैं, और हक भी मांगते हैं, लेकिन विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को यहां भी पूरा नहीं किया जा सका है. छत्तीसगढ़ में सरकारी योजनाएं चल रही हैं, लेकिन साथ ही साथ सलवा जुड़ूम के नाम पर लोगों के दमन की प्रक्रिया भी चल रही है. आम लोगों को शासन की हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है और माओवादी हिंसा का भी. बस्तर आदि जिलों में सरकार और माओवादियों के बीच के संघर्ष की कीमत आम नागरिकों को चुकानी पड़ी है.
अगर संसाधनों पर आम आदिवासियों के हक की बात की जाये, तो वे सरकारी योजनाओं का लाभ भले ही ले रहे हों, लेकिन संपदा के बंटवारे और उनके बंटरबांट का खेल यहां भी कमोबेश वैसा ही है जैसा झारखंड में है. राज्य के संसाधनों का उपयोग कैसे किये जाये, इस मामले में आम नागरिकों की भागीदारी नहीं है. जब तक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया नहीं शुरू की जायेगी, तब तक विकास के आयाम नहीं बदलेंगे, और विकास का लाभ जनता तक नहीं पहुंचेगा.
ऐसे में सिर्फ सरकार पर या कॉरपोरेट पर विकास की जवाबदेही सौंप कर चुप बैठा आम नागर समाज भी अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकती. नागरिक संगठनों को ऐसी व्यवस्था के बदलाव के लिए आगे आना होगा. जो लोग अपने संघर्ष के जरिये राज्य के निर्माण के लिए सत्ता तंत्र को प्रेरित कर सकते हैं, वे एकजुट होकर व्यवस्था को सही तरीके से कार्यान्वयन के लिए भी दबाव बना सकते हैं.
झारखंड का नागर समाज, जिसमें समाज के हर वर्ग की हिस्सेदारी होती है, इसमें प्रबुद्ध तबका भी होता है, और आम नागरिक भी, यदि सब मिल कर व्यवस्था के विकेंद्रीकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए दबाव बनाये, तभी लोकतंत्र सही मायने में प्रभावी हो पायेगा. इसलिए विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े झारखंड को सिर्फ इस बात के लिए प्रयास नहीं करना है कि राज्य में स्थायी सरकार आये, बल्कि ऐसे जनप्रतिनिधियों का चयन करना है, जो कि विकास की प्रक्रिया को जमीन पर उतारने में मददगार हो सकें, तभी सही मायने में झारखंड निर्माण का सपना पूरा होगा.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)