बलात्कार और यह संवेदनहीन रवैया!
‘बलात्कार दुनिया के हर समाज का एक सच है, लेकिन हमें यह तभी भयावह और वीभत्स लगता है, जब यह सुर्खियों में आता है.’ नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित आर्क बिशप डेसमंड टूटू की यह बात हम भारतीयों के रवैये पर भी टिप्पणी है. दिल्ली में उबर टैक्सी ड्राइवर द्वारा एक महिला से बलात्कार सुर्खियों […]
‘बलात्कार दुनिया के हर समाज का एक सच है, लेकिन हमें यह तभी भयावह और वीभत्स लगता है, जब यह सुर्खियों में आता है.’ नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित आर्क बिशप डेसमंड टूटू की यह बात हम भारतीयों के रवैये पर भी टिप्पणी है. दिल्ली में उबर टैक्सी ड्राइवर द्वारा एक महिला से बलात्कार सुर्खियों में है और लोग कई तरह से अपना रोष व्यक्त कर रहे हैं. इस घटना ने देश की राजधानी में लचर कानून-व्यवस्था और गैर-जिम्मेवाराना व्यावसायिक रवैये के साथ सामाजिक व मानसिक रुग्णता एवं तकनीक के लापरवाह इस्तेमाल को फिर रेखांकित किया है.
आरोपित ड्राइवर का यह पहला अपराध नहीं है. वह 2011 में भी दिल्ली में बलात्कार के केस में गिरफ्तार हुआ था, लेकिन सबूतों के अभाव में सजा नहीं हुई. उसके गृह जिले मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) में 2013 में हुए बलात्कार के एक मामले में भी उसके खिलाफ सुनवाई चल रही है. इतना ही नहीं, उस पर छेड़छाड़, चोरी, राहजनी आदि के भी आठ अलग-अलग मामले लंबित हैं. मैनपुरी पुलिस के रिकॉर्ड में उसे ‘कुख्यात अपराधी’ की श्रेणी में रखा गया है. ऐसे जघन्य अपराधों के आरोपित को किसी कंपनी द्वारा बिना जांच-पड़ताल के नौकरी पर रखना कंपनी के कामकाज और दिल्ली पुलिस की सत्यापन प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े करता है.
खबरों के मुताबिक, इस घटना से 10 दिन पहले ही एक महिला ने इस चालक के अभद्र व्यवहार के बारे में उबर टैक्सी कंपनी को शिकायत की थी. उक्त महिला ने टैक्सी के जीपीएस बंद होने की बात भी कही थी. घटना की रात पुलिस को उबेर के दिल्ली दफ्तर का पता नहीं मिला और इंटरनेट पर भी इसकी कोई सूचना नहीं थी. यह अत्यंत गंभीर बात है कि एक बहुराष्ट्रीय टैक्सी सेवा भारत की राजधानी में आधिकारिक पते के बिना ही, गुड़गांव के एक होटल से चलायी जा रही थी. दिल्ली में जहां एक आम किरायेदार को भी पास के पुलिस थाने में अपनी जानकारी देनी होती है, इतनी बड़ी कंपनी करोड़ों का व्यवसाय बिना पते के कर रही थी. इस कंपनी के महिलाओं के प्रति रुख पर अमेरिका में भी सवाल उठते रहे हैं. इसलिए इस पूरे प्रकरण में हमारी व्यवस्था, प्रशासन और उबर कंपनी का अपराध भी कम नहीं माना जाना चाहिए. साथ ही, बलात्कार जैसे भयानक अपराध को रोकने की बहस को किसी एक घटना के इर्द-गिर्द सीमित रखना पर्याप्त नहीं है. 2013 में देश में बलात्कार के 33,707 मामले दर्ज हुए थे. यह संख्या 2012 की तुलना में 35.2 फीसदी अधिक थी.
तिहाड़ जेल में किये गये अध्ययनों में पाया गया है कि यौन-हिंसा के 70 फीसदी से अधिक अपराधी ऐसे अपराध पहले भी कर चुके होते हैं, लेकिन पुलिस और न्यायिक तंत्र के लचर होने के कारण ज्यादातर अभियुक्त या तो बरी हो जाते हैं या फिर मामले लंबे समय तक अदालतों में चलते रहते हैं और आरोपित जमानत पर रिहा हो जाते हैं. 2012 में बलात्कार के एक लाख से अधिक मामले देश की विभिन्न अदालतों में लंबित थे, जिनमें से सिर्फ 14 फीसदी में ही फैसला हो सका था. इनमें 3,563 आरोपितों को दोषी माना गया, जबकि 11,500 से अधिक दोषमुक्त करार दिये गये. 2013 में बलात्कार के 24 हजार से अधिक मामले विभिन्न उच्च न्यायालयों में विचाराधीन थे. ऐसे 309 मामले सर्वोच्च न्यायालय में भी चल रहे थे.
दिसंबर, 2012 में दिल्ली में हुई नृशंस ‘निर्भया कांड’ के बाद त्वरित न्याय-प्रणाली स्थापित करने की बात जोर-शोर से की गयी थी, किंतु बलात्कार के गिने-चुने मामलों में ही निचले स्तरों पर त्वरित सुनवाई हुई है. यहां तक कि निर्भया केस भी अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. न्याय में अंतहीन देरी न्यायालयों की कार्यप्रणाली बन चुकी है और पुलिस की जांच इतनी लचर होती है कि ज्यादातर अपराधी बरी हो जाते हैं. 2012 में एक पत्रिका द्वारा दिल्ली और आसपास के 30 से अधिक वरिष्ठ पुलिसकर्मियों से बातचीत में यह कड़वा सच सामने आया था कि दिल्ली पुलिस महिलाओं के प्रति आम तौर पर संवेदनहीन है.
निश्चित रूप से इस संवेदनहीनता और थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार का असर जांच पर पड़ता है. इसलिए बलात्कार की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए पुलिस और न्याय व्यवस्था में बड़े स्तरों पर सुधार की तत्काल आवश्यकता है. चिंताजनक यह भी है कि संसद से लेकर पंचायतों तक में ऐसे प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ रही है, जिन पर महिलाओं के विरुद्ध गंभीर अपराधों के आरोप हैं. इसलिए बलात्कार जैसे अपराध पर रोक के लिए समाज को भी पुरुष-वर्चस्ववादी और स्त्री-विरोधी सोच के उपचार का मार्ग तलाशना चाहिए. आखिर बलात्कारी इस समाज में ही पैदा होते हैं. इसलिए महिलाओं को उनका शिकार बनने से बचाने की जिम्मेवारी तो समाज की भी है.