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‘आयोग’ के दरवाजे पर कुमारप्पा

हमारे तंत्र में योजना आयोग ने राजस्व के बंटवारे की संस्था के रूप में काम किया. अब योजना आयोग खत्म हो रहा है. क्या योजना आयोग की जगह लेनेवाली नयी संस्था के दरवाजे कुमारप्पा की सोच के लिए खुल सकेंगे? योजना आयोग की अंतिम विदाई की खबरें तैर रही हैं, तो न जाने क्यों गांधीधर्मी […]

हमारे तंत्र में योजना आयोग ने राजस्व के बंटवारे की संस्था के रूप में काम किया. अब योजना आयोग खत्म हो रहा है. क्या योजना आयोग की जगह लेनेवाली नयी संस्था के दरवाजे कुमारप्पा की सोच के लिए खुल सकेंगे?

योजना आयोग की अंतिम विदाई की खबरें तैर रही हैं, तो न जाने क्यों गांधीधर्मी अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा याद आ रहे हैं. कुमारप्पा को 68 साल की जिंदगी मिली, योजना आयोग के बनने के दसवें साल (1960) तक वे जीवित रहे. कुमारप्पा एक दफे योजना आयोग की बैठक में शिरकत करना चाहते थे. सोच की सादगी देखिए कि आयोग की बैठक में शामिल होने के लिए उसके दरवाजे तक तांगे पर पहुंचे. दरबान ने रोक दिया. कहां योजना आयोग सरीखी आधुनिक संस्था जो भारी मशीनों, बड़े उद्योगों और बड़े पैमाने के केंद्रीकृत उत्पादन के जरिये देश की दशा बदलने के खाके खींचती थी और कहां मशीन-मोटर के विरुद्ध प्रतीत होती तांगे जैसी पुरानी सवारी! दोनों को बेमेल देख कर ही दरबान ने कुमारप्पा को रोका होगा. खैर, बात नेहरू तक पहुंची और नेहरू के फोनकॉल पर कुमारप्पा के लिए योजना आयोग की बैठक में शामिल होने के लिए दरवाजे खुले.

विज्ञान के जिन सिद्धांतों के सहारे भवन खड़े किये जा सकते हैं, उन्हीं सिद्धांतों के सहारे समाज भी गढ़ा जा सकता है- योजना आयोग अपने शुरुआती समय से इस खास सोच का प्रतीक था. नियोजन (प्लानिंग) को इस सोच ने एक पद्धति के रूप में स्वीकार किया था और नेहरू इसके कायल थे. 1939 में नेशनल प्लानिंग कमिटी के सचिव केटी शाह से उन्होंने कहा था कि अगर हम इस विचार से चले कि सिर्फ ‘समाजवाद के भीतर ही नियोजन हो सकता है, तो लोग सहम जायेंगे. दूसरी तरफ, अगर हम नियोजन के विचार से चले और उसके सहारे समाजवादी लक्ष्यों तक पहुंचे, तो यह रास्ता तर्कसंगत कहलायेगा, क्योंकि जो लोग समाजवादी शब्दों-नारों से आशंकित रहते हैं, वे भी तब हमारे खेमे में आ जायेंगे.’ समाजवाद व नियोजन नेहरू के सोच में समानार्थक थे. नियोजन के सर्वग्रासी विचार से सहमत न होने के कारण ही शायद कुमारप्पा ने नेशनल प्लानिंग कमिटी से इस्तीफा दिया था.

कुमारप्पा वैज्ञानिक सोच के थे, लेकिन वैज्ञानिकता के दंभ से दूर भी थे. वे समझते थे कि ऊपर बैठ कर नीचे की सारी चीजों को देख लेने और फिर उद्योगों-मशीनों के सहारे उनको अपने मनचीते रूप में ढाल लेने का विचार सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ होने के दंभ से उपजा है. रूसी-क्रांति के बाद भारत में कांग्रेसियों के बीच इस विचार ने जोर पकड़ा. समाजवाद के हामी दिग्गज कांग्रेसी यह मानने लगे थे कि तेज आर्थिक प्रगति के लिए राह तो भारत को भी औद्योगीकरण की ही अपनानी होगी, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि औद्योगीकरण राज्यसत्ता के नियंत्रण में हो. कुमारप्पा का इस सोच से साझा नहीं था. वे मानते थे कि समाजवादी हो या पूंजीवादी दोनों विशाल पैमाने के केंद्रीकृत उत्पादन की राह अपनाते हैं, जिसमें सत्ता थोड़े से लोगों के हाथ में सिमट जाती है. कुमारप्पा पहचान चुके थे कि ऐसी अर्थव्यवस्था लोकतांत्रिक नहीं हो सकती.

बीसवीं सदी के शुरू में लंदन और उसके बाद मुंबई में चार्टर्ड अकाउंटेंट का काम करनेवाले कुमारप्पा ने 1927 में कोलंबिया यूनवर्सिटी में दाखिला लेने का फैसला किया, तब भी उनका उद्देश्य देश की राजनीति को समझना नहीं, बल्कि पेशेवर कौशल हासिल करना था. कोलंबिया की पढ़ाई ने उनकी सोच को बदला और इस सवाल ने उन्हें भी जकड़ा कि आखिर भारत गुलाम और भारतीय दरिद्र क्यों हैं? जवाब की तलाश ने पोस्ट ग्रेजुएशन में उनकी थीसिस का रूप लिया. उन्होंने अपनी थीसिस ‘पब्लिक फाइनांस एंड इंडियाज पावर्टी’ लिखी और जाना कि राजनीतिक संरचनाएं आर्थिक-संरचनाओं से बंधी होती हैं और मनुष्य की मुक्ति के प्रश्न पर इससे अलग विचार नहीं किया जा सकता.

महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो कुमारप्पा उन्हें ‘रेडिमेड’ मिले थे, गांधी ने उन्हें कोई ट्रेनिंग नहीं दी थी, लेकिन कुमारप्पा ने अपना आर्थिक-दर्शन महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के आलोक में तैयार किया. इसी कारण कुमारप्पा कह सके कि ‘मानवीय संस्थाओं की रचना में हमें उस महान शिक्षक ‘मां समान प्रकृति’ को नहीं भूलना चाहिए. हमारी गढ़ी हुई कोई भी चीज जो प्रकृति के विरुद्ध है, प्रकृति उसे देर-सबेर समाप्त कर देती है. प्रकृति की व्यवस्था चक्रीय है. समुद्र का पानी भाप बन कर ऊपर उठता है और फिर बारिश के रूप में फिर समुद्र को लौट आता है. जो राष्ट्र अपनी संस्थाओं के गठन में इस बुनियादी सिद्धांत की अवहेलना करेगा वह बिखर जायेगा.’ इस सिद्धांत के सहारे कुमारप्पा का मानना था कि राजस्व की उगाही ठीक वैसे ही होनी चाहिए जैसे समुद्र से भाप उठती है. जो लोग कर चुकाने में सक्षम हैं, उनसे उगाहा जाये और यह राजस्व बारिश बन कर उन लोगों तक पहुंचे, जिनको इसकी ज्यादा जरूरत है.

हमारे तंत्र में योजना आयोग ने राजस्व के बंटवारे की संस्था के रूप में काम किया. क्या योजना आयोग की जगह लेनेवाली नयी संस्था के दरवाजे कुमारप्पा की सोच के लिए खुल सकेंगे?

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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