झारखंड की दुर्दशा के दोषी हम भी

‘कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए.’ दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां आज 14 साल से लोकलुभावने वादों के बीच झूलनेवाले हर झारखंडी की जुबान पर है. यह राज्य गठन के बाद से ही एक अच्छे सेवक की बाट जोह रहा है. अब चुनाव आते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 12, 2014 12:28 AM

‘कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए.’ दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां आज 14 साल से लोकलुभावने वादों के बीच झूलनेवाले हर झारखंडी की जुबान पर है. यह राज्य गठन के बाद से ही एक अच्छे सेवक की बाट जोह रहा है. अब चुनाव आते ही सब दोषारोपण करके अपना पल्ला झाड़ रहे हैं. यहां की जनता भी कुत्सित राजनीति के कुचक्र में पिसने को मजबूर है. वर्षो से यही होता आ रहा है. बुनियादी सुविधाओं को बहाल करना किसी की प्राथमिकता नहीं है. केवल धोती-साड़ी बांट कर जनता को फुसलाया जा रहा है.

दरअसल, राज्य की भी अपनी पीड़ा रही है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है. स्थिर सरकार के अभाव के कारण आज यहां की राजनीति में गठबंधन और महागठबंधन जैसे शब्दों की गूंज सुनाई पड़ रही है, लेकिन सवाल यह है कि झारखंड के उत्थान के लिए हमने क्या किया? सवाल का जवाब तो जरूरी है ही, लेकिन यह देखना भी जरूरी है कि हमारे नेताओं ने केंद्र से क्या मांगा? मांगा भी तो केवल विशेष राज्य का दर्जा.

आज संताल बहुल ग्रामीण इलाकों में चले जाइए. वहां वोट का फैसला स्टार प्रचारकों के भाषणों से नहीं होता, वोटिंग के एक दिन पहले सारी स्थितियां बदल जाती हैं. हड़िया-दारू, मांस और पैसा सब कुछ बदल देता है. लोग चुनाव चिह्न् देख कर वोट देते हैं. प्रत्याशी की छवि पर विचार नहीं करते. यही इस राज्य की दुर्दशा का अहम कारण है. राज्य की इस दुर्दशा में यदि नेताओं और शासकों की भूमिका अहम है, तो हम भी पीछे नहीं हैं. इसकी दुर्गति करने में हमने भी मुख्य भूमिका निभाई है. राज्य का अल्पविकास हमारी पिछड़ी सोच एवं संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है.

सुधीर कुमार, गोड्डा

Next Article

Exit mobile version