नितांत वैयक्तिक मामला है धर्म

धर्म मनुष्य बनना सिखाता है. मनुष्यता में सब धर्म समा जाते हैं. गांधीजी ने परायी पीर को समझनेवाले को सच्चा वैष्णव कहा था. यह तभी हो सकता है, जब हम परायों को अपना समङों. क्या हमारे धर्मो के ठेकदार इस बात को समझना चाहेंगे? अखबारों में छोटी-सी खबर छपी थी कि आगरा में साठ मुसलिम […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 12, 2014 12:29 AM

धर्म मनुष्य बनना सिखाता है. मनुष्यता में सब धर्म समा जाते हैं. गांधीजी ने परायी पीर को समझनेवाले को सच्चा वैष्णव कहा था. यह तभी हो सकता है, जब हम परायों को अपना समङों. क्या हमारे धर्मो के ठेकदार इस बात को समझना चाहेंगे?

अखबारों में छोटी-सी खबर छपी थी कि आगरा में साठ मुसलिम परिवारों के लगभग ढाई सौ लोगों ने हिंदू धर्म अपना लिया है. फिर खबर यह आयी कि धर्म परिवर्तन करनेवाले इन लोगों में से कुछ ने यह कहा है कि उन्हें लालच देकर और डर दिखा कर हवन के लिए बिठाया गया था. ‘घर वापसी’ का नाम देकर धर्म-परिवर्तन कराने की यह घटना कोई अजूबा नहीं है. स्वतंत्र भारत में कई बार ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं और शोर-शराबा भी मचता रहा है. लेकिन इस बार, ऐसा लग रहा है कि यह अपने ढंग की अकेली घटना नहीं होनी है. इस कार्यक्रम का सूत्रधार धर्म जागरण समन्वय विभाग है, जिसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की एक शाखा बताया जा रहा है. संगठन से जुड़े लोगों का कहना है कि ‘घर-वापसी’ का यह कार्यक्रम अब लगातार चलता रहेगा. अगली कड़ी में क्रिसमस के मौके पर पांच हजार से अधिक मुसलिमों और ईसाइयों को ‘घर वापस’ लाया जायेगा.

धर्म नितांत वैयक्तिक मामला है. हमारे संविधान ने हर नागरिक को कोई भी धर्म अपनाने और उसका प्रचार-प्रसार करने का अधिकार दिया है. संविधान में यह अधिकार किसी को नहीं है कि जबरन, लालच देकर या भय दिखा कर किसी को किसी धर्म विशेष का हिस्सा बना सके. फिर भी ऐसे आरोप हमेशा लगते रहे हैं कि गलत तरीके से धर्म-परिवर्तन की कोशिशें हो रही हैं. आगरा के मामले में कहा जा रहा है कि जो लोग ‘अपने घर लौटे हैं’ वे वाल्मीकि समाज के हैं और उन्हें लालच देकर मुसलमान बनाया गया था. हो सकता है यह सच हो. लेकिन, किसी गलत को ठीक करने के लिए गलत का ही सहारा लेना कहां तक उचित है?

लेकिन, जब इस वैयक्तिक निर्णय को सामूहिक निर्णय के रूप में प्रचारित किया जाता है और घर वापसी जैसे अभियानों से इसे जोड़ा जाता है, तो संशय होना स्वाभाविक है. आगरा के मुसलिम परिवारों के सदस्य यदि इसलाम धर्म छोड़ कर हिंदू धर्म अपनाना चाहते हैं, तो इसमें कुछ गलत नहीं है. लेकिन यह गलत तब हो जाता है, जब कोई संगठन विशेष किसी योजना के तहत सामूहिक आयोजन करवाता है, घोषणा करता है कि हम घर से गये हुओं को वापस ला रहे हैं. यदि कोई घर आना चाहता है, तो उसे आने दीजिए न घर. उसका तमाशा क्यों बनाते हैं?

जब ऐसे तमाशे हिंदू राष्ट्र की बातों से जुड़ते हैं, भारत में रहनेवाले हर व्यक्ति को हिंदू समझने-कहने की जिद से जुड़ते हैं, तब मामला बिगड़ता है. देश की सामाजिक और धार्मिक समरसता को बिगाड़ने की ऐसी हर कोशिश का विरोध होना चाहिए. यह देश हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, बौद्धों, जैनों सबका है. साझा आंगन है हमारा. इसमें दीवारें उठाने की कोशिश किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है. साङो आंगन में साझी संस्कृति को पनपने दीजिए. इस बगीचे में हर तरह के, हर रंग के फूल खिल सकते हैं, खिलते रहे हैं. उन्हें नजर मत लागाइये.

आगरा के ही एक गांव की ओर नजर डालने का उन सबसे मेरा आग्रह है, जो धर्म-परिवर्तन के माध्यम से देश में एकता की बातें कर रहे हैं. दस हजार की आबादी वाले इस सांधन गांव में एक ही परिवार में हिंदू-मुसलमान सदियों से साथ रह रहे हैं. चाचा का नाम शाहिद है और भतीजा लवकुश कहलाता है. एक भाई हिंदू है, तो दूसरा मुसलमान है. मूलत: राजपूत है यह परिवार. तीन पीढ़ी पहले कुछ परिवार मुसलमान बन गये थे, लेकिन ये परिवार कोई तमाशा नहीं कर रहे. ऐसा ही एक परिवार राजेंद्र सिंह का है. राजेंद्र सिंह नमाज पढ़ता है, वहीं उसका छोटा भाई महेंद्र सिंह मंदिर जाता है. इनके दादा सुलतान सिंह मुसलमान बने थे. पिता ने हिंदू धर्म अपना लिया. अब तीन में से दो भाई हिंदू हैं एक मुसलमान. पर किसी ने नाम बदलना जरूरी नहीं समझा. सब त्योहार एक ही आंगन में मनाते हैं. दीवाली पर मिल कर मिठाई खाते हैं, ईद पर सिवइयां. इसी गांव के एक परिवार के बुजुर्ग एजाज अहमद खान संस्कृत पढ़ाते थे. रामायण भी, महाभारत भी, गीता भी. क्या यह सांधन गांव भारतीय समाज का आदर्श नहीं बन सकता? इस साङोपन से देश को सीखना चाहिए कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना.’

यह दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि देश के नये निजाम के साथ-साथ धर्म को लेकर बांटनेवाली बातें भी कुछ ज्यादा होने लगी हैं. इस पर लगाम लगनी ही चाहिए. धर्मातरण से नहीं, धर्म के आचरण से समाज बदलेगा. फिर, पूजा-पद्धतियां ही तो धर्म नहीं होतीं. धर्म जीवन को समझने, जीवन को जीने का रास्ता दिखाता है. धर्म मनुष्य बनना सिखाता है. मनुष्यता में सब धर्म समा जाते हैं. गांधीजी ने परायी पीर को समझनेवाले को सच्चा वैष्णव कहा था. यह तभी हो सकता है, जब हम परायों को अपना समङों. क्या हमारे धर्मो के ठेकदार इस बात को समझना चाहेंगे?

विश्वनाथ सचदेव

वरिष्ठ पत्रकार

delhi@prabhatkhabar.in

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