सियासी चौराहे पर खड़ा कश्मीर

कश्मीर घाटी तमाम लोकलुभावन नारों के बावजूद भाजपा को स्वीकार करने में हिचक रही है. चुनाव बाद चाहे जिसकी सरकार बने, अगर उसने कश्मीरी अवाम के साथ न्याय नहीं किया, तो सियासी चौराहे पर खड़ा कश्मीर पता नहीं किस रास्ते जायेगा! जम्मू-कश्मीर में अब तक हुए तीन चरणों के चुनाव में पहले दो चरण में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 12, 2014 12:30 AM

कश्मीर घाटी तमाम लोकलुभावन नारों के बावजूद भाजपा को स्वीकार करने में हिचक रही है. चुनाव बाद चाहे जिसकी सरकार बने, अगर उसने कश्मीरी अवाम के साथ न्याय नहीं किया, तो सियासी चौराहे पर खड़ा कश्मीर पता नहीं किस रास्ते जायेगा!

जम्मू-कश्मीर में अब तक हुए तीन चरणों के चुनाव में पहले दो चरण में 71-71 और तीसरे चरण में 58 फीसदी मतदान दर्ज हुआ. इसे अलग-अलग ढंग से व्याख्यायित किया जा रहा है. दिल्ली में बैठे राजनेता, बड़े नौकरशाह और ज्यादातर व्याख्याकार इसे भारतीय लोकतंत्र की बेमिसाल कामयाबी बता रहे हैं, तो कश्मीर घाटी के ज्यादातर सियासतदान और सिविल सोसाइटी से जुड़े लोग भी इसे बड़ी कामयाबी के तौर पर देख रहे हैं. निस्संदेह, यह एक सकारात्मक घटनाक्रम है. लेकिन, इसका मतलब यह भी नहीं कि कश्मीर में इस चुनाव के बाद कहीं कोई मसला नहीं बचेगा और सब ठीक हो जायेगा. अगर कोई मतदान के प्रतिशतांक से इस तरह का नतीजा निकालता है, तो यह पूरे घटनाक्रम की व्याख्या का अति-सरलीकरण होगा.

कश्मीर घाटी के विभिन्न जिलों और अंचलों में इन चुनावों के दौरान मैं बहुत सारे लोगों से मिला. अलग-अलग धारा के सियासतदानों, सिविल सोसाइटी, अकादमिक और मीडिया के लोगों से भी विस्तार से बातें हुईं. इस आधार पर मैं कश्मीर को एक संक्रमण की स्थिति में देख रहा हूं. कश्मीरी अवाम का बड़ा हिस्सा आज शिद्दत के साथ महसूस कर रहा है कि तीसेक वर्षो के बीच उसे मिलिटेंसी से वह कुछ भी नहीं मिला, जिसका उसे सपना दिखाया गया था. उसे अब महसूस हो रहा है कि ‘आजाद कश्मीर’ शायद ही कभी असलियत बने. आज जब भारत पूरी दुनिया के पैमाने पर एक बड़ी विकासशील ताकत, बड़ा बाजार और रणनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बन कर उभरा है, दुनिया का कोई भी देश या मंच, चाहे वह पाकिस्तान हो, अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र, इस मामले में अब ‘कश्मीरी-आजादी’ के सहायक नहीं हो सकते.

कश्मीरियों के इस एहसास ने मिलिटेंसी या आतंकवाद से उनकी निराशा को और बढ़ाया है. नौजवानों में अब सैय्यद सलाहुद्दीन, यासीन मलिक, शब्बीर शाह या मीर वाइज उमर फारूक जैसे अलगाववादी नेताओं का आकर्षण नहीं रह गया है. लेकिन, सैय्यद अली शाह गिलानी जैसे चरमपंथी अलगाववादी नेता को घाटी में एक बड़ा तबका अब भी सम्मान के साथ देखता है. जहां तक तीस वर्षो की मिलिटेंसी की प्रासंगिकता का सवाल है, उस पर आज चौतरफा सवाल हैं. लोगों ने वर्ष 2008 के बाद से ही इस बात को राजनीतिक तौर पर प्रदर्शित किया कि मिलिटेंसी के रास्ते उन्हें कुछ बड़ा हासिल नहीं होनेवाला. यही कारण है कि 2008 से 2012 के बीच लोगों ने सड़कों पर उतर कर आंदोलन किये. तब से बंदूकों की गरज यदा-कदा ही सुनाई पड़ती थी. आम नौजवान-छात्र, औरतें, अधेड़ व बुजुर्ग, सभी अलग-अलग मुद्दों को लेकर सड़कों पर उतरे. उन्हें दमन का सामना करना पड़ा. उन्हें सड़क की लड़ाई से वह हासिल नहीं हुआ, जिसकी उन्हें उम्मीद थी.

अब लोगों को लगता है कि चुनावों में हिस्सेदारी दर्ज करा कर वह अपने मनोनुकूल प्रतिनिधियों के जरिये दो-स्तरीय लड़ाई लड़ सकते हैं. पहला स्तर है- शासकीय कामकाज या गवर्नेस का, जो शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के बाद से ही लगातार चौपट होता गया है. दूसरा स्तर है-अपने राजनीतिक एजेंडे को हासिल करने या कम से कम मौजूदा अधिकारों की रक्षा का. फिलहाल, कश्मीर घाटी में अवाम का बड़ा हिस्सा अनुच्छेद-370 को बचाने की चुनौती को महत्वपूर्ण मान कर चल रहा है. उसे लगता है कि इस अनुच्छेद को जारी रखते हुए अगर 1953 से पहले के राजनीतिक-संवैधानिक अधिकारों की वापसी हो जाती है, तो सोने में सुहागा जुड़ जायेगा. लोग चाहते हैं कि कश्मीर के चुनावों से एक ऐसा सक्षम नेतृत्व उभरे, जो अच्छा गवर्नेस देने के साथ राजनीतिक-संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण-विस्तारण की लड़ाई में भी कामयाब हो. 2008 में लोगों ने उमर अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस से यही उम्मीद की थी, लेकिन उमर विफल साबित हुए. कांग्रेस से कश्मीर घाटी ने कभी ज्यादा उम्मीदें नहीं पालीं. उसकी वजह आधुनिक इतिहास की कटुता भरी यादें हैं. 1953 से 74 और फिर 1984 से 87 के बीच ङोलम किनारे जो कुछ विध्वंसक घटित हुआ, उसमें कहीं न कहीं कांग्रेस की अहम भूमिका मानी जाती रही है. इसमें सबसे बड़ा विध्वंसक रहा 1987, जब कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उभरते हुए जनाक्रोश को चुनावी-धांधली के बल पर रौंदा था. घाटी में मिलिटेंसी और आतंक के उभार की दिशा में इस घटनाक्रम को सबसे अहम कारक माना जाता है.

संक्रमण के इस दौर में जम्मू-कश्मीर की सियासत में एक नया घटनाक्रम दर्ज हो रहा है. केंद्र की नयी सरकार को संचालित करनेवाली पार्टी अपने ‘44+ मिशन’ के जरिये सूबे में स्वयं ही ‘नंबर-वन’ बनना चाहती है. सूबे में, खासकर कश्मीर घाटी की अवाम के बीच, एक ऐसी पार्टी जिसका बुनियादी कार्यक्रम ही अनुच्छेद-370 को खत्म करना हो, भला कैसे स्वीकार्य हो सकती है? अवाम की भावना के मद्देनजर भाजपा ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के अपने विजन-दस्तावेज में अनुच्छेद-370 का उल्लेख तक नहीं किया. लेकिन, इससे भला कौन आश्वस्त होगा? जनसंघ के गठन के समय से ही अनुच्छेद-370 को खत्म करना, इस राजनीतिक धारा का बुनियादी कार्यक्रम रहा है. ऐसे में घाटी के अंदर एक तरह की राजनीतिक सतर्कता दिखाई दे रही है.

लोग अगर नेशनल कॉन्फ्रेंस से बुरी तरह निराश हैं, तो मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से भी बहुत आश्वस्त नहीं हैं. कई छोटे-मंझोले राजनीतिक समूह भी घाटी के चुनावी मैदान में ताल ठोंक रहे हैं. वे नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी से अपने को गुणात्मक रूप से अलग और ज्यादा जनपक्षी साबित करने में जुटे दिखते हैं. पर उनके राजनीतिक रिश्तों और वित्तीय संपोषण-समर्थन के स्नेतों को लेकर घाटी के लोगों को पहले से संदेह रहा है. आम तौर पर लोग हर जगह ‘थोड़ा बेहतर’ या ‘कम बुरे’ की तलाश कर रहे हैं. एंटी-इनकम्बैंसी के चलते उमर अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस की हालत पहले से पस्त थी. भीषण बाढ़ के दौरान जिस तरह की सरकारी कोताही बरती गयी, उससे अवाम और भड़की हुई है. शायद यही वह वजह है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुकाबले पीडीपी की स्थिति घाटी में बेहतर दिख रही है.

भाजपा को पांव पसारने से रोकने के लिए लोगों को कहीं न कहीं एक भरोसमंद मंच या उम्मीदवार की तलाश है. कश्मीर की असल पीड़ा यही है. उसके सियासतदानों ने उसे अधिक छला है. अवाम का भरोसा खोया है, पर लोग करें तो क्या करें. जम्मू का मिजाज अलग है, लेकिन कश्मीर घाटी तमाम लोकलुभावन नारों के बावजूद भाजपा को स्वीकार करने में हिचक रही है. इस चुनाव का सबसे अहम पहलू यही है. चुनाव बाद चाहे जिसकी सरकार बने, अगर उसने कश्मीरी अवाम के साथ न्याय नहीं किया, तो सियासी चौराहे पर खड़ा कश्मीर पता नहीं किस रास्ते जायेगा!

उर्मिलेश

वरिष्ठ पत्रकार

urmilesh218@gmail.com

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