आत्मशुद्धि, आत्म-साक्षात्कार के अर्थ में धर्म-परिवर्तन किया जाये
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव से पहले देश में जिस तरह से विकास की उम्मीद जगायी थी, हर किसी को लगने लगा था कि इस सरकार के कार्यकाल में संसद से लेकर सड़क तक विकास के मुद्दों पर ही बहस होगी. लेकिन, इस हफ्ते संसद के महत्वपूर्ण शीत सत्र से लेकर सड़क तक पर हंगामा […]
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव से पहले देश में जिस तरह से विकास की उम्मीद जगायी थी, हर किसी को लगने लगा था कि इस सरकार के कार्यकाल में संसद से लेकर सड़क तक विकास के मुद्दों पर ही बहस होगी. लेकिन, इस हफ्ते संसद के महत्वपूर्ण शीत सत्र से लेकर सड़क तक पर हंगामा आगरा और अलीगढ़ की धर्म परिवर्तन की घटनाओं को लेकर हो रहा है. इस हंगामे के चलते विकास के लिए जरूरी मुद्दों और विधेयकों पर बहस नहीं हो रही है. ऐसे में अहम सवाल यही है कि क्या इस समय धर्म परिवर्तन का आंदोलन चलाना जरूरी हो गया था, या यह मतदाताओं से किये गये वादे से छल है. आज के समय में इसी के विभिन्न पहलुओं की एक पड़ताल.
।।महात्मा गांधी।।
मेरी हिंदू धर्मवृत्ति मुझे सिखाती है कि थोड़े या बहुत अंशों में सभी धर्म सच्चे हैं. सबकी उत्पत्ति एक ही ईश्वर से हुई है, परंतु सब धर्म अपूर्ण हैं; क्योंकि वे अपूर्ण मानव-माध्यम के द्वारा हम तक पहुंचे हैं. सच्चा शुद्धि का आंदोलन यह होना चाहिए कि हम सब अपने-अपने धर्म में रह कर पूर्णता प्राप्त करने का प्रयत्न करें. इस प्रकार की योजना में एकमात्र चरित्र ही मनुष्य की कसौटी होगा. अगर एक बाड़े से निकल कर दूसरे में चले जाने से कोई नैतिक उत्थान न होता हो, तो जाने से क्या लाभ? शुद्धि या तबलीग का फलितार्थ ईश्वर की सेवा ही होना चाहिए. इसलिए मैं ईश्वर की सेवा की खातिर यदि किसी का धर्म बदलने की कोशिश करूं, तो उसका क्या अर्थ होगा, जब मेरे ही धर्म को माननेवाले रोज अपने कर्मो से ईश्वर का इनकार करते हैं? दुनियावी बातों के बनिस्बत धर्म के मामलों में यह कहावत अधिक लागू होती है कि ‘वैद्यजी, पहले अपना इलाज कीजिये.’
मैं धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध नहीं हूं, परंतु मैं उसके आधुनिक उपायों के विरुद्ध हूं. आजकल और बातों की तरह धर्म-परिवर्तन ने भी एक व्यापार का रूप ले लिया है. मुझे ईसाई धर्म-प्रचारकों की एक रिपोर्ट पढ़ी हुई याद है, जिसमें बताया गया था कि प्रत्येक व्यक्ति का धर्म बदलने में कितना खर्च हुआ, और फिर ‘अगली फसल’ के लिए बजट पेश किया गया था.
मेरी यह राय है कि भारत के महान धर्म उसके लिए सब तरह से काफी हैं. ईसाई और यहूदी धर्म के अलावा हिंदू धर्म और उसकी शाखाएं, इसलाम और पारसी धर्म, सभी सजीव धर्म हैं. दुनिया में कोई भी एक धर्म पूर्ण नहीं है. सभी धर्म उनके माननेवालों के लिए समान रूप से प्रिय हैं. इसलिए जरूरत संसार के महान धर्मो के अनुयायियों में सजीव और मित्रतापूर्ण संपर्क स्थापित करने की है, न कि हर संप्रदाय द्वारा दूसरे धर्मो की अपेक्षा अपने धर्म की श्रेष्ठता जताने की व्यर्थ कोशिश करके आपस में संघर्ष पैदा करने की. ऐसे मित्रतापूर्ण संबंध के द्वारा हमारे लिए अपने-अपने धर्मो की कमियां और बुराइयां दूर करना संभव होगा.. आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि आत्मशुद्धि, आत्म-साक्षात्कार के अर्थ में धर्म-परिवर्तन किया जाये, लेकिन धर्म-परिवर्तन करनेवालों का यह हेतु कभी नहीं होता.
कोई ईसाई किसी हिंदू को ईसाई धर्म में लाने की या कोई हिंदू किसी ईसाई को हिंदू धर्म में लाने की इच्छा क्यों रखे? वह हिंदू यदि सज्जन है या भगवद्-भक्त है, तो उक्त ईसाई को इसी बात से संतोष क्यों नहीं हो जाना चाहिए? यदि मनुष्य का नैतिक आचार कैसा है, इस बात की परवाह न की जाये, तो फिर पूजा की पद्धति-विशेष- वह पूजा गिरजाधर, मसजिद या मंदिर में, या कहीं भी क्यों न की जाये- एक निर्थक कर्मकांड ही होगी. इतना ही नहीं, वह व्यक्ति या समाज की उन्नति में बाधा-रूप भी हो सकती है और पूजा की अमुक पद्धति के पालन का अथवा अमुक धार्मिक सिद्धांत के उच्चारण का आग्रह हिंसापूर्ण लड़ाई-झगड़ों का एक बड़ा कारण बन सकता है. ये लड़ाई-झगड़े आपसी रक्तपात की ओर ले जाते हैं और इस तरह उनकी परिसमाप्ति मूल धर्म में यानी ईश्वर में ही घोर अश्रद्धा के रूप में होती है.
(‘मेरे सपनों का भारत’ से)