शुकुल मास्साब को जानते हैं आप!
पंजवार जाने के पहले ही शुकुल मास्साब का नाम भर सुना था. बस यही बताया था साथियों ने कि आइए तो शुकुलजी से भी मिलियेगा यहां. अच्छा लगेगा. बड़े कर्मठ आदमी हैं. समाजवादी रहे हैं. किशन पटनायक से लेकर योगेंद्र यादव तक आते रहे हैं शुकुलजी के पास. पुराने समाजवादी आकर्षित करते हैं, इसलिए उनसे […]
पंजवार जाने के पहले ही शुकुल मास्साब का नाम भर सुना था. बस यही बताया था साथियों ने कि आइए तो शुकुलजी से भी मिलियेगा यहां. अच्छा लगेगा. बड़े कर्मठ आदमी हैं. समाजवादी रहे हैं. किशन पटनायक से लेकर योगेंद्र यादव तक आते रहे हैं शुकुलजी के पास. पुराने समाजवादी आकर्षित करते हैं, इसलिए उनसे मिलने का एक उत्साह पहले से ही था. मनिका में सच्चिदानंद सिन्हा यानी सच्चिदा बाबू, सारनाथ में कृष्णनाथ जी.. इन सबसे बार-बार मिल कर राजनीति को, समाज को समझने की कोशिश करता रहा हूं. पंजवार में शुकुलजी से मिलने के पहले यही तय किया था मन में कि उनसे भी देश, दुनिया, समाज, राजनीति पर बात करूंगा. शाम को पंजवार पहुंचा.
रात दो बजे के करीब भोजपुरिया स्वाभिमान सम्मेलन आयोजन खत्म हुआ. सारे साथी आपस में बतकही कर रहे थे. उसी में एक बूढ़ा-सा लेकिन चुस्त-फुर्तीला आदमी दरी-बिछौना मोड़ने से लेकर चीजों को सरिया कर रखने में लगा हुआ था और बीच-बीच में सबसे कह भी रहा था कि चलेके सब लोग, एक हाली आउरी खाना खा लेबे के काम बा आउर ओकरा बाद चाय पी लेबे के काम बा..! बहुत ध्यान नहीं दिया उन पर. उनसे बातें भी हुईं लेकिन मैं साथियों से बातचीत में लगा रहा. दुबई वाले नबीन भोजपुरिया ने कहा कि शुकुल मास्साब से मुलाकात भइल! मैंने कहा कि नहीं, अब तक जगे होंगे तो अभी ही मिल लेंगे नहीं तो कल सुबह. नबीन ने हंसते हुए कहा कि वही तो हैं, जो दरी उठा रहे हैं, सब समान सरिया रहे हैं और आपसे, हमसे, सबसे कह रहे हैं कि चलिए खा लिया जाये. मैं एकटक देखता रहा उन्हें. पास ही खड़े थे. स्नेह से आकर कंधे पर हाथ रख कर बोले- चलीं-चलीं, कुछ खा लेबे के काम बा. मैं उन्हें देखते ही जा रहा था.
आग्रह किया, पास बिठाया. कहा कि थोड़ी देर आपसे बतियायेंगे अभी ही. बाकी फिर सुबह. शुकुलजी बैठ कर बतियाने में बहुत संकोच कर रहे थे. आग्रह पर बैठे. उनके अपने बारे में पूछना शुरू किये. वे गांव के बारे में बताने लगे. इलाका के बारे में बताने लगे. बताने लगे कि कैसे उनका इलाका बहुत उर्वरा रहा है राजनीति के लिए. किसान आंदोलन से लेकर राहुल सांकृत्यायन के आंदोलन तक के लिए. वे बताने लगे कि किशन पटनायक यहां आये थे. सच्चिदा बाबू. कृष्णनाथजी, अच्युत पटवर्धन से लेकर सबके बारे में बताने लगे. वे बताने लगे पुराने समाजवादी विधायक रामदेव बाबू के बारे में.
मक्खनजी, मोहनजी जैसे पुराने समाजवादियों के बारे में. फिर यह भी बताने लगे कि समाजवादी नेताओं के खंड-खंड घमंड की वजह से आज आरएसएस बनाम बीजेपी सत्ता में है. वे बताने लगे कि कैसे उनके गांव में 1940 से ही लाइब्रेरी है. उसी लाइब्रेरी में अब बिस्मिल्ला खां संगीत महाविद्यालय है. हमने पूछा कि अपने बारे में नहीं बतायेंगे तो लाइब्रेरी के बारे में ही बताइए, संगीत महाविद्यालय के बारे में ही बताइए. उत्साह में आ गये. बताये कि भारत ज्ञान विज्ञान समिति का अभियान चला. कला जत्था बना. अब कला जत्था के लिए हारमोनियम, ढोलक, तबला था ही तो उसे लेकर संगीत महाविद्यालय खोल दिया गया 1994 में और आसपास की लड़कियां आने लगीं और अब 70 लड़कियां सप्ताह में एक दिन आती हैं.
शुकुलजी बताने लगे कि उनके गांव में जो विद्या मंदिर लाइब्रेरी है, उसकी स्थापना 1940 में दसवीं कक्षा में पढ़नेवाले गांव के ही एक किशोर सत्यनारायण मिश्र ने की थी, जो बाद में आइएएस अफसर हुए और अभी डेढ़ साल पहले गुजर गये. शुकुलजी डूबते जा रहे थे, अपने गांव का बखान करने में. शुकुलजी बताने लगे कि बाद में 2008 में कॉलेज खुल गया. प्रभावित के प्रभा को लेकर और जयप्रकाश से प्रकाश को लेकर प्रभा प्रकाश के नाम से प्रभाप्रकाश डिग्री महाविद्यालय, जहां अब 400 छात्र पढ़ते हैं, ज्यादातर लड़कियां. शुकुलजी यह सब बता रहे थे, हम उनसे उनके बारे में बार-बार पूछ रहे थे. वे बस अपने बारे में इतना ही बताये कि मैं राजनीति का आदमी हूं, खांटी राजनीति का आदमी, मेरे रग-रग में राजनीति है और राजनीति ही मेरा इकलौता धर्म है और राजनीति को ही इस देश का सबसे बड़ा धर्म मानता हूं मैं.
शुकुलजी बताने लगे कि साठ साल में भारत सामाजिक तौर पर बदला तो राजनीति की वजह से ही न! मायावती, केआर नारायणन, जीतन राम मांझी शीर्ष पर पहुंचे तो राजनीति की वजह से ही न! शुकुलजी राजनीति पर बतिया रहे थे, उनकी आंखों में आंसू थे. वे कह रहे थे कि क्या हो गया है राजनीति को, उससे बड़ा मंदिर, उससे बड़ा धर्म तो कुछ भी नहीं. किसकी नजर लग गयी इसे!
शुकुलजी फिर से खाना खाने चलने की जिद करने लगे. हम वहां से चल दिये. फिर उनसे बातें हुई. लेकिन फिर वे खुद के बारे में नहीं बताये कुछ. गांव के ही संजय सिंह से बात हुई, जो भोजपुरिया स्वाभिमान सम्मेलन को संयोजित करते हैं. संजय भाई ने बताया कि शुकुल मास्साब कुछ नहीं बतायेंगे अपने बारे में. वे नहीं बताये होंगे कि लाइब्रेरी को बीच गांव से निकाल कर सड़क किनारे अच्छे भवन में वही लेकर आये. उस लाइब्रेरी में जो बिस्मिल्ला खां संगीत महाविद्यालय खुला है, उसे खोलनेवाले, फिर उसकी मान्यता प्रयाग संगीत समिति से लानेवाले वही हैं. इस दूर-निठाह गांव में संगीत में प्रभाकर तक की पढ़ाई होती है, ढेरों लड़कियां, दूर-दूर गांव से आकर यहां संगीत का प्रशिक्षण लेती हैं तो यह सब उनकी वजह से ही.
संजय भाई ने बताया कि उन्होंने तो यह भी नहीं बताया होगा कि इलाके के गांवों की लड़कियां जब कॉलेज नहीं होने की वजह से स्कूल के बाद कॉलेजी शिक्षा नहीं ले पाती थी तो इस वजह से वे मानसिक तौर पर कितने परेशान रहते थे और जैसे ही रिटायर हुए शिक्षक के पद से और उन्हें रिटायरमेंट की जो राशि मिली 12 लाख रु पये, उसे एकमुश्त वे एक कॉलेज खोलने में लगा दिये और उस कॉलेज का नाम भी वही रखे-प्रभा प्रकाश डिग्री महाविद्यालय. और वह कॉलेज खोलते समय ही दिमाग में साफ रखे कि अधिक से अधिक लड़कियों को यहां आना चाहिए. संजय भाई बताते रहे, मेरी आंखें नम होती गयीं शुकुलजी के प्रति सम्मान में. संजय भाई ने बताया कि कॉलेज सिर्फखोले भर नहीं, अब वे घर कभी-कभी आते हैं, ज्यादातर कॉलेज पर ही रहते हैं. सुबह उठ कर कॉलेज की साफ-सफाई भी करते हैं फिर नौ बजे तक नहा-धोकर बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोफेसर जैसे तैयार भी हो जाते हैं. राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं, जरूरत होने पर दूसरे विषय भी और जरूरत होने पर या परीक्षा करीब आने पर रविवार को भी क्लास लगाते हैं. यह सब सुन कर मेरी निगाहें फिर से शुकुलजी को तलाश रही थीं.
उन्हें और करीब से देखने के लिए. उनका स्पर्श सुख पाने के लिए. वे सबको बिठा कर बच्चे जैसा दौड़-दौड़ कर खाना खिलाने में व्यस्त थे. मैंने पूछा कि आप इतना कुछ किये. गांववाले का सहयोग तो रहा होगा न! फिर से ठेठ भोजपुरी में बोले- बिना गांव के सहजोग के कईसे संभव बा कुछ कईल जी. बाकि हम तो राजनीति के आदमी हईं न, एह से सहजोग के साथे बिरोध भी होत रहेला हमार. एक बार थूकल गईल रहे हमरा पर, हमार देह पर कि हम छुआछूत खतम करे के पक्ष में एतना बात काहे करींला, अभियान काहे चलाईंला.. यह बता कर मास्साब हंसने लगे और जबरदस्ती चाय पीने को दे दिये.. और फिर बच्चों के संग बच्चे जैसा ठहाका लगाने में तल्लीन हो गये. मैं देखता ही रह गया उन्हें.. एकटक!
– लेखक तहलका से संबद्ध हैं.