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नशा मुक्ति के लिए ठोस कदम जरूरी

‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’- इस उक्ति की तर्ज पर प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ में समझाया है कि नशा करनेवाला बुरा नहीं होता, नशे की लत बुरी होती है. यह लत व्यक्ति और समाज में ‘बर्बादी, विनाश और अंधेरा’ कायम करती है. प्रधानमंत्री को उम्मीद है कि लोग एक अभियान की शक्ल […]

‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’- इस उक्ति की तर्ज पर प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ में समझाया है कि नशा करनेवाला बुरा नहीं होता, नशे की लत बुरी होती है. यह लत व्यक्ति और समाज में ‘बर्बादी, विनाश और अंधेरा’ कायम करती है. प्रधानमंत्री को उम्मीद है कि लोग एक अभियान की शक्ल में आगे आयें तो ‘नशा-मुक्त भारत’ का निर्माण हो सकता है. उनकी यह बात सही है कि नशे की लत को सिर्फ व्यक्ति के चारित्रिक दोष या कानून-व्यवस्था की समस्या के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं चिकित्सीय पहलू भी हैं.

मसलन, सभी जानते हैं कि किशोरावस्था या आरंभिक युवावस्था व्यक्तित्व के निर्माण की अवस्था होती है. लेकिन, भारत में नशे की लत से पीड़ित बड़ा तबका किशोरों और युवाओं का ही है. एक स्वयंसेवी संस्था के अनुसार नशे की लत के उपचार के लिए आनेवाले करीब 63 प्रतिशत लोगों को यह लत 15 साल या इससे कम उम्र में लगी थी. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रतिवर्ष 2 करोड़ बच्चे तंबाकू सेवन के आदी बनते हैं. हेरोइन की लत वालों में 21 प्रतिशत 18 साल से कम उम्र के हैं. नशे का कारोबार अर्थव्यवस्था के भीतर काले धन के प्रवाह से भी जुड़ा है.

इस साल मार्च में आई यूएन की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में 2011 में 528 किलो हेरोइन जब्त की गयी, जबकि 2012 में 853 किलो. इसी तरह 2009 में 1.7 टन अफीम जब्त किया गया, जबकि 2012 में 3 टन से ज्यादा. यह भारत में मादक द्रव्यों और इससे जुड़े काले धन के तंत्र के बढ़वार की भी सूचना है.

हालांकि इस संबंधी सरकारी रिपोर्ट 2001 के आंकड़ों पर ही आधारित है. 10 साल पहले प्रकाशित रिपोर्ट में शराब के आदी लोगों की संख्या 6 करोड़ 20 लाख और अफीम जनित मादक द्रव्यों के शिकार लोगों की संख्या 20 लाख बतायी गयी थी. बीते 14 सालों में नशे के आदी लोगों की संख्या निश्चित ही बढ़ी है. परंतु, इस बढ़ी हुई संख्या के पुनर्वास और नशामुक्ति के लिए सरकार की तरफ से बजटीय प्रावधान नहीं हो सका. जाहिर है, ‘नशा-मुक्त भारत’ का प्रधानमंत्री का आह्वान प्रशंसनीय है, परंतु उनके ‘मन की बात’ पूरे देश की बात तभी बन सकती है, जब इसके लिए समाज और सरकार, दोनों ही तरफ से सुविचारित एवं ठोस कदम उठाये जाएं.

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