गांधी ने दिखाया था, सच बोल कर भी राजनीति की जा सकती है. हमारे नेताओं को, जिनमें हर रंग के नेता शामिल हैं, यह बात समझ क्यों नहीं आ रही? हमारे राजनेता जितना जल्दी इस बात को समङोंगे, उतना ही उनके लिए और हमारी राजनीति के लिए अच्छा होगा.
हमारी राजनीति में लक्ष्मण रेखाओं की बात नयी नहीं है. और न ही यह पहली बार है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सहयोगियों से यह कहा है कि वे संयम से बोला करें, लक्ष्मण रेखाएं न लांघे. यह सलाह (यानी चेतावनी) उन्होंने भाजपा दल की बैठक में दी है. मुद्दा भाजपा सांसद साक्षी महाराज द्वारा गांधी के हत्यारे को देशभक्त बताने और एक अन्य सांसद द्वारा रामजादों और हरामजादों वाला वक्तव्य देने का था. हालांकि इन दोनों नेताओं ने अपने कहे पर खेद वयक्त किया है, लेकिन खेद व्यक्त करने और खेद महसूस करने के अंतर को उन सबने समझा होगा, जिन्होंने लोकसभा की उस दिन की कार्यवाही को देखा होगा, जब साक्षी महाराज ने ‘माफी’ मांगी थी.
प्रधानमंत्री की सलाह हर दृष्टि से उचित है. लेकिन सवाल यह उठता है कि हमारे नेताओं को ऐसे भड़काऊ भाषण देने की जरूरत क्यों पड़ती हैं? राजनीतिक लाभ के चक्कर में अक्सर हमारे नेता गलतबयानी क्यों करते हैं? कुछ साल पहले तक, जब टीवी कैमरों में छवियां और बयान कैद नहीं होते थे, हमने नेताओं को अक्सर यह कहते सुना है कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा था. फिर जब टेप रिकॉर्डर आया, तो नेता कहने लगे कि हमारा कहने का मतलब यह नहीं था जो लगाया जा रहा है. पर अब जबकि सब कुछ कैमरे में कैद होता है, तो उस तरह की बहानेबाजी का चलना मुश्किल हो गया है. अब जो नेता कहते हैं, वही नहीं दिखता, यह भी दिखता है कि वे अपनी बात किस तरह कह रहे हैं. ऐसे में बचाव का एक ही तरीका बचता है- खेद व्यक्त करना. लेकिन सवाल है ऐसे खेद व्यक्त करने का क्या मतलब, जिसमें खेद झलकता ही न हो?
गलती से कुछ कर दिया जाना या कुछ कह दिया जाना अपराध नहीं होता. ऐसे कहे-किये का ईमानदार पछतावा व्यक्ति को एक नैतिक ताकत देता है. इसीलिए खेद व्यक्त करना अथवा क्षमा मांगना व्यक्ति को ऊंचे पायदान पर पहुंचा देता है. लेकिन राजनीति में आज नैतिकता अथवा ईमानदारी के लिए जगह ही कहां बची है? राजनीति और झूठ के रिश्ते की ही बात करें, तो हमारी सारी चुनावी राजनीति झूठ पर टिकी है. विरोधियों पर गलत आरोप लगाना, अपनी कथित उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना, झूठे वादे करना आदि सब कुछ आज की राजनीति का जायज हथियार माना जाता है. कानून की दृष्टि से इस तरह के झूठ को अपराध नहीं माना गया है, इसलिए चुनावी-भाषणों में हर तरह के वादे और दावे सुने जाते हैं. बाद में जब कोई उन्हें याद दिलता है, तो मुकर जाने में नेताओं को तनिक भी संकोच नहीं होता. सौ दिन में काले धन की वापसी का मामला इसकी मिसाल है. गरीबी हटाने का वादा करके सत्ता में आयी कांग्रेस पार्टी से यह क्यों नहीं पूछा जाये कि वादा पूरा न करने की शर्म उसे क्यों नहीं है अथवा भाजपा से आज यह क्यों नहीं पूछा जाये कि सबका साथ, सबका विकास की बात करनेवाले अब ‘साथ लेने’ का मतलब ‘घर वापसी’ कैसे लगा रहे हैं? पूछा जाना चाहिए हमारे नेताओं से कि ‘चुनावी वादों’ का मतलब ही ‘झूठ’ क्यों बन गया है?
कुछ साल पहले अमेरिका में एक किताब छपी थी-‘व्हाइ लीडर्स लाइ: ट्रूथ अबाउट लाइंग इन इंटरनेशनल पॉलिटिक्स.’ जॉन जे मश्रेइमर की इस किताब की बड़ी चर्चा हुई थी. किताब में अमेरिकी नेताओं के साथ-साथ दुनिया भर के राजनीतिज्ञों के झूठ प्रमाणों सहित सामने रखे गये थे. लेकिन पता नहीं, भारतीय नेताओं पर लेखक की नजर क्यों नहीं पड़ी. लेकिन अब समय आ गया है, जब भारत के राजनेताओं के झूठ के बारे में भी एक किताब आनी चाहिए, जिसमें आरोपों को सप्रमाण सामने रखा गया हो. अमेरिका में तो बहुत-सी स्वयंसेवी संस्थाएं भी झूठ सामने लाने का यह काम कर रही हैं. यहां भी इस तरह का काम शुरू तो हुआ है, पर अभी तक उसका असर नहीं दिख रहा. वरना देशभर में किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े देनेवाले स्वयंसेवी संगठनों की ‘खोज’ को हमारे राजनीतिक दल और राजनेता नजरअंदाज नहीं करते.
हमारे राजनीतिक दलों के वादे झूठे न होते और हमारे राजनेता यदि सच बोलते, तो हमारी राजनीति का चेहरा आज जितना मैला नहीं होता. एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने भारत की गणना उन पांच देशों में की थी, जो सरकार पर जनता के भरोसे के संदर्भ में सबसे ऊपर आते हैं. पर यह इस साल के शुरू की बात है. अब साल खत्म हो रहा है और भारत तीसरे से पांचवें पर चला गया है. राजनीति में ईमानदारी के लिए जगह बनानी है, तो नयी लक्ष्मण रेखाएं खींचनी होंगी और इस बात की सावधानी बरतनी होगी की हमारे राजनेता उनका उल्लघंन न करें. गांधी ने दिखाया था, सच बोल कर भी राजनीति की जा सकती है. हमारे नेताओं को, जिनमें हर रंग के नेता शामिल हैं, यह बात समझ क्यों नहीं आ रही? हमारे राजनेता जितना जल्दी इस बात को समङोंगे, उतना ही उनके लिए और हमारी राजनीति के लिए अच्छा होगा. और देश के लिए भी.
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
delhi@prabhatkhabar.in