सत्ता से बाहर रहने की झल्लाहट
जो विपक्ष राज्यसभा में सदन नहीं चलने दे रहा, वह लोकसभा में बिल्कुल अलग रुख अपनाये हुए है. वहां खूब काम हो रहा है. चर्चाएं, शून्यकाल, विशेष उल्लेख, विधेयकों पर बहस और उनका पारित होना जारी है. पार्टियां तो वही हैं, पर.. मीडिया के एक वर्ग और कथित सेक्युलर राजनीतिक दायरों में इस बात को […]
जो विपक्ष राज्यसभा में सदन नहीं चलने दे रहा, वह लोकसभा में बिल्कुल अलग रुख अपनाये हुए है. वहां खूब काम हो रहा है. चर्चाएं, शून्यकाल, विशेष उल्लेख, विधेयकों पर बहस और उनका पारित होना जारी है. पार्टियां तो वही हैं, पर..
मीडिया के एक वर्ग और कथित सेक्युलर राजनीतिक दायरों में इस बात को लेकर बहुत कुंठा और वेदना है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की विजय यात्र लगातार बढ़ रही है. अब तक जिन धारणाओं और विचारों को वे ठीक मानते रहे, उनके प्रचार-प्रसार का सुख प्राप्त करते रहे. अपने से विरोधियों को प्रतिबंधित करने, उनकी सरकारें गिराने, मीडिया के विभिन्न हिस्सों, जैसे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक चैनलों, पर उनके विरुद्ध विषवमन करने का अनेक वर्षो तक खेल चलता रहा. उनके लिए लोकतंत्र का अर्थ था कि विपक्ष की किसी मांग को न माना जाये और इसके विरुद्ध प्रतिशोधी कार्रवाई की जाये. अखबारों में संपादक उनके, मालिक उनके, टीवी चैनल उनके पक्ष में और संसद में अहंकार के भाव से दूसरों की बात न सुनने का निराला राज्य सुख उन्होंने लिया. अब मौसम बदल गया तो वे परेशान हैं.
कुछ तो ऐसा मिल जाये कि कहीं की खुन्नस, कहीं का दुख, हाशिये पर ठिठकने की झल्लाहट निकाली जा सके. सीधे-सीधे तो वार कर नहीं सकते, क्योंकि दुनियाभर में भारत का डंका बज रहा है. जिनके लिए वे देशद्रोह की हद तक जाकर वीजा नकारने की चिट्ठियां वाशिंगटन की सरकार को लिख रहे थे, उन्हीं के नेतृत्व में ओबामा को भारत आते देख इनके सीने में दर्द की लहर तो उठेगी ही उठेगी. इनकी आंखों में देश नहीं सिर्फ अपना व्यक्तिगत उदय है. जिसके लिए ऐसे ही लोग रायसाहबियत भी अंगरेजों से लेते थे. अगर वैचारिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में भिन्नता होते हुए भी देश के लिए कुछ काम इकट्ठा कर लिया जाये, तो क्या उससे इन मीडिया घरानों और राजनेताओं की प्रतिष्ठा घट जायेगी?
पहले साध्वी जी के विषय पर हंगामा किया, सदन नहीं चलने दिया. उस पर चर्चा हो सकती थी और साध्वी जी के खेद प्रकाश के बाद बाकी विषय लिये जा सकते थे. फिर आगरा में मतांतरण का मुद्दा उठा. विषय प्रदेश सरकार के अंतर्गत आता है. किसी ने गलत काम किया है, तो प्रदेश सरकार कार्यवाही के लिए स्वतंत्र है. लोभ, लालच या दबाव से कोई भी कभी भी मतांतरण को स्वीकार नहीं कर सकता. पर जो लोग ईसाई मिशनरियों के मतांतरण के बारे में चुप रहते हैं, बल्कि उसके बारे में किसी भी कानूनी कार्रवाई का विरोध करते हैं, वे एक ऐसी घटना पर सप्ताह भर से सदन नहीं चलने दे रहे, जिसके संदर्भ में चर्चा के लिए भी सरकार तुरंत तैयार हो गयी. जब सरकार ने हामी भर दी तो पुन: विपक्ष परेशान हुआ कि चर्चा होगी, तो इस विषय के अनेक पहलुओं पर विचार रखे जायेंगे. चर्चा की मांग कर उसकी स्वीकृति के बाद भी उसे न होने देने के लिए अड़चन के तौर पर मांग रख दी गयी कि प्रधानमंत्री उपस्थित हों, तब चर्चा शुरू की जायेगी.
जो विपक्ष राज्यसभा में सदन नहीं चलने दे रहा, वह लोकसभा में बिल्कुल अलग रुख अपनाये हुए है. वहां खूब काम हो रहा है. चर्चाएं, शून्यकाल, विशेष उल्लेख, विधेयकों पर बहस और उनका पारित होना जारी है. पार्टियां तो वही हैं. पर उन्हीं पार्टियों का लोकसभा में रुख अलग है और राज्यसभा में अलग. इसका कारण संख्या बल भी है. लोकसभा में सत्ता पक्ष का स्पष्ट बहुमत है और राज्यसभा में विपक्ष भारी है. सिर्फ इस वजह से, सिर्फ अपनी संख्या का अहंकार दिखाने के लिए वही विपक्ष राज्यसभा में शोर मचाता है, जो लोकसभा में कार्यवाही चलने देता है. अगर सिद्धांतों और मुद्दों के प्रति इतना ही समर्पण होता, तो दोनों सदनों में उन पार्टियों का एक जैसा व्यवहार होता. सदन में चर्चा यह भी थी कि सरकार द्वारा लगातार विधेयकों के पारित किये जाने की सफलता और बीमा विधेयक के पारित होने की संभावना से चिढ़ कर वामपंथियों और तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस भी जुड़ गयी. मन बना लिया गया है कि कुछ भी बहाना हो, लेकिन कार्यवाही बाधित करेंगे ही. अगर यह बात सच है, तो देश के हित में तो है ही नहीं, इन पार्टियों के अपने हित में भी नहीं है. जनता देख रही है कि चर्चा की मांग स्वीकृत होने के बाद भी विपक्ष चर्चा से भागता रहा और अड़ियल रवैये का परिचय देता रहा.
और जब यह भी विषय अभी उठा नहीं था, तो सुबह कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने मेरे द्वारा कम्युनिस्ट आतंकवाद शब्द का उपयोग किये जाने पर आपत्ति की. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डी राजा भले व्यक्ति हैं, विद्वान हैं और मैं उनका आदर करता हूं. उन्हें चोट पहुंचाने का तो कोई हेतु हो ही नहीं सकता. मैंने तो पेशावर घटनाक्रम के बारे में कहा था कि वहां तालिबान आतंकवादी हैं और छत्तीसगढ़ में जनजातीय बच्चों को जबरदस्ती उनके माता-पिता के सामने से उठा कर ले जाने और उन्हें मारनेवाले कम्युनिस्ट आतंकवादी हैं. असल में छत्तीसगढ़ के नक्सली और माओवादी स्वयं को मार्क्सवाद और लेनिनवाद का शुद्ध अनुयायी मानते हैं. वे कहते हैं कि हिंसा के माध्यम से परिवर्तन लाना कम्युनिज्म है. यह ठीक है कि कम्युनिस्ट दलों में काफी वैचारिक बहस और आपसी विरोध है. वरना सीपीआइ और सीपीएम दो अलग दल क्यों होते हैं. पर जिस प्रकार संसदीय लोकतंत्र में विश्वास करते हुए कम्युनिस्ट दलों ने संसद का रास्ता चुना, वैसा ही नक्सली माओवादी भी करें तो अच्छा होगा. इस बात में तो संदेह नहीं होना चाहिए कि माओवादियों की विचारधारा मार्क्सवादी-लेनिनवादी है. नक्सलियों का तो नारा ही रहा है कि चाइनाज चेयरमैन माओ इज आवर चेयरमैन. जो लोग सेक्युलरवाद के नाम पर मतांतरण के संदर्भ में चर्चा मांग रहे हैं, क्या वे वामपंथी अतिवाद और हिंसा पर भी चर्चा करेंगे?
कह नहीं सकते कि इस बहस और शोर का अंत कहां होगा? सदन के ‘वेल’ में आना, इतनी जोर से चिल्लाना कि अनेक मेरे मित्र सांसद सदन से बाहर यह कहते हुए आ गये, तौबा! यहां ध्वनि प्रदूषण बहुत अधिक हो गया है. एक प्रतिस्पर्धा जैसी दिखती है कि कौन कितना शोर मचायेगा और कितने प्रभावी ढंग से सदन की कार्यवाही ठप्प होने देगा. 16 दिसंबर को भारत विजय दिवस था, जब 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान भारत को विजय मिली और पाकिस्तान के 90 हजार से अधिक सैनिकों ने घुटने टेक कर हमारे फौजियों के समक्ष आत्मसमर्पण किया. इस दिन इंदिरा गांधी के शानदार नेतृत्व और फील्ड मार्शल मानेक शॉ सहित भारतीय सेना के विजेताओं को सम्मान सहित याद करने के बजाय कांग्रेस के लोग शोर ही मचाते रहे. क्या इस स्थिति को अराजक नहीं कहा जायेगा? सदन में अच्छा काम हो, तो लाभ किसे होगा? सत्ता में न रहने से उपजी खीज और अपने वैचारिक विरोधियों को सफल होते देख कुंठित होने से तो उनके अपने ही दलों का स्वास्थ्य खराब होगा.
तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
tarunvijay2@yahoo.com