।।चंदन श्रीवास्तव।।
(एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस)
प्रतीकों से देवता किस तरह कूच कर जाते हैं, यह देखना हो तो मिस्र की राजधानी काहिरा के तहरीर चौक की तरफ देखिए! दो साल पहले यह चौक क्रांति का प्रतीक था. अरब जगत के अधिनायकों के खिलाफ लोकतंत्र की नयी बयार बहानेवाले अरब-वसंत का प्रतीक! और उस वसंत ने देखा कि मिस्र को ‘पुलिस-स्टेट’ में बदल कर अपने कुनबे की जागीर के तौर पर बरतनेवाले अधिनायक हुस्नी मुबारक का तख्त हिला-ताज गिरा; ज्यादातर को लगा जैसे मिस्र में सचमुच क्रांति हुई हो, मुक्त और निष्पक्ष चुनाव की वह राह खुल गयी हो जिस पर चल कर सत्ता की देवी आजादी और अधिकारों की मांग करती जनता का वरण करती है और अपने को सर्व-सत्तासंपन्न मानने की गफलत में पड़े अधिनायक जेल की चक्की पीसा करते हैं.
तहरीर चौक पर दो साल पहले के नजारे एक बार फिर से नमूदार हैं. पढ़े-लिखे, अधिकार-सजग नौजवानों की मुट्ठियां तनी हैं, नारे इस बार भी आजादी और सामाजिक बराबरी के ही हैं, तख्त इस बार भी हिला है. खुद को मिस्र का नया मसीहा साबित करने पर लगे राष्ट्रपति मोहम्मद मुरसी अपने महल में नजरबंद हैं और जैसे शतरंज की बिसात पर मोहरे बदले जाते हैं, तकरीबन उसी आसानी से मिस्र की सेना ने देश की सबसे ऊंची अदालत के जज अदले मंसूर को मुरसी की जगह राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा दिया है. जैसे दो साल पहले हुस्नी मुबारक के समर्थक मिस्र में व्यवस्था को बदल देने पर आमादा नौजवानों पर पत्थर और पेट्रोल बम फेंक रहे थे और उन्हें राष्ट्रविरोधी करार दे रहे थे, उसी तरह इस बार सत्ता से बेदखल हो चुके मोहम्मद मुरसी के समर्थक व्यवस्था के बदलाव की मांग को झंडे लहरा कर हवा देनेवाले नौजवानों पर बंदूक तान उन्हें मिस्र-विरोधी करार दे रहे हैं. दृश्य एक से हैं, मगर दर्शन बदल गया है. जो घटना ‘क्रांति’ कहलायी थी, आज उसी से मिलती-जुलती घटना ‘तख्तापलट’ कहला रही है.
राजनीति का शब्दकोष कहता है कि क्रांति और तख्तापलट के बीच बुनियादी फर्क है. क्रांति सत्ता को जनता के करीब ले आती है; वह जनता को अपना भाग्यविधाता बनाती है. क्रांति का वादा होता है- जीर्ण-शीर्ण, पुरातन-प्रतिगामी सबकुछ मिटा कर जिंदगी की इबारत नये सिरे से लिखने का. उसका विश्वास क्रमवार सुधार में नहीं होता, वह झटका देकर बुनियादी बदलाव लाने में विश्वास करती है. शायद इसलिए कि हर क्रांति के पास एक यूटोपिया(स्वपA) होता है, धरती पर धरतीवासियों के लिए स्वर्ग रचने का एक सपना. अवधारणा के स्तर पर तख्तापलट क्रांति का उलट है. उसके पास कोई यूटोपिया नहीं होता, वह बुनियादी बदलाव की प्रेरणा से शून्य होता है. तख्तापलट पर जनता का जोर नहीं चलता, न ही सत्ता-परिवर्तन के इस खेल में जनता की कोईहिस्सेदारी होती है. तख्तापलट करनेवाले अपना चेहरा चमकाये रखने के लिए भले क्रांतिकारी नारे उछालें या वादे करें, लेकिन उनकी मंशा सत्ता को अपनी निजी मिल्कियत मान कर बरतने की होती है.
और, अगर सोच के इस कोण से देखें, तो मिस्र में चल रहा घटनाक्रम बड़ा उलझाता है, क्योंकि वह अपनी प्रेरणाओं में क्रांति का आभास देता लग रहा है, मगर परिणाम में यथास्थितिवाद का पोषक साबित हो रहा है. जनता बुनियादी बदलाव की मांग के साथ सड़कों पर है, सिंहासन पर बैठे चेहरे मानो किसी जादू के जोर से बैठाये और उतारे जा रहे हैं, मगर शासन का चरित्र है कि बदल ही नहीं रहा. आप चाहें तो उसे क्रांति कह सकते हैं, क्योंकि अंतत: जनता के जोर से निरंकुश शासक बदले जा रहे हैं और चाहें तो तख्तापलट भी, क्योंकि जिसे गद्दी से उतारा जा रहा है, उसे जनता ने ही अपनी मर्जी से अपने भाग्यविधाता के रूप में चुना था. लग सकता है कि हुस्नी मुबारक और मोहम्मद मुरसी के बीच फर्क है. सेना में कमांडर के ओहदे से एयर चीफ मार्शल के ओहदे तक पहुंचनेवाले हुस्नी मुबारक ने 1981 यानी अनवर सादात की हत्या (कहते हैं इस हत्या में मुबारक की भी भूमिका थी) के बाद से लेकर 2011 यानी गद्दी से हटा दिये जाने के वक्त तक मिस्र की सत्ता को अपनी निजी जागीर बनाये रखा. वे चार बार चुनावों में राष्ट्रपति निर्वाचित हुए लेकिन मिस्र के संविधान को उन्होंने कुछ इस तरह अपनी चाहतों की दासी बना रखा था कि कोई राष्ट्रपति के चुनाव में न तो उनके खिलाफ खड़ा हो सकता था न ही जनमत की कोई भूमिका थी अपने मुल्क के भाग्यविधाता के निर्वाचन में.
इसके उलट मुर्सी कोई सैन्य अधिकारी नहीं बल्कि मुसलिम ब्रदरहुड की तरफ से बनायी गयी पार्टी फ्रीडम एंड जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष थे. उन्होंने बाकायदा अपने प्रतिस्पद्र्धी उम्मीदवार से चुनाव लड़ा और 24 जून 2012 को जब चुनाव आयोग ने उनकी जीत की घोषणा की तो मिस्र में एक नया इतिहास घटित हुआ. वे लोकतांत्रिक रीति से निर्वाचित मिस्र के पहले राष्ट्रपति बने. बहरहाल, हुस्नी मुबारक और मोहम्मद मुरसी के बीच का अंतर यहीं समाप्त होता है, क्योंकि खुद को मिस्र का मसीहा बनाने की कोशश मोहम्मद मुरसी ने भी की और लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर शासन के नियम इस तरह से रचवाये कि उनके फैसले पर किसी का अंकुश न रहे. अचरज नहीं कि जनता की नजर में वे भी हुस्नी मुबारक की तरह सत्ता के भूखे स्वेच्छाचारी ही साबित हुए. शासक के बदलाव के बीच शासन के न बदलने का एक प्रमाण तो यही है कि मुबारक के समय में मिस्र की कुख्यात ‘स्टेट सेक्योरिटी इंवेस्टीगेटिव एजेंसी’ ने ताकत के बल पर लोगों के प्रतिरोध की आवाजों को दबाया और पुलिसिया राज कायम किया था तो मोहम्मद मुरसी के वक्त इस संस्था का बस नाम भर बदला. होमलैंड सेक्योरिटी एजेंसी के नाम से इसके जोर-जुल्म जारी रहे. मुरसी के शासन के पहले 100 दिनों में मिस्र में इस एजेंसी ने 34 लोगों को अपनी हिरासत में मारा और 88 लोगों को यातना का शिकार बनाया, मगर अदालत में एक भी अधिकारी दोष का भागी नहीं बना.
मिस्र में जनता पर जोर-जबरदस्ती के शासकीय उपकरण शासकों के बदलाव के बीच पहले की तरह बने रहे, तो इसलिए कि वहां का जनांदोलन शुरुआती चरण से ही एक भ्रम का शिकार था. मिस्र में लोकतंत्र के तरफदारों का सेना पर यह अखंड विश्वास कि वह मिस्र में लोकतंत्र लायेगी, सिर्फ एक भ्रम है. अमेरिका से अरबों डॉलर की विशेष सहायता पानेवाली सेना तो खुद ही मिस्र की वास्तविक स्वायत्तता में बाधा है. यह सेना क्यों चाहेगी कि मिस्र में अमेरिकी प्रभावों से मुक्त कोई खुदमुख्तार सत्ता पनपे और सेना के हितों पर अवाम के हितों को तरजीह दे.
बुनियादी बदलाव नहीं, क्रमवार सुधार और यह भी सेना की भलमनसाहत के बूते- मिस्र का आंदोलनधर्मी नागरिक जब तक इस भ्रम के नजदीक रहेगा, तब तक मिस्र में लोकतंत्र की देवी जनता से दूर रहेगी.