पेशावर तक सीमित नहीं पाक त्रसदी
आतंक के विरोध में पाकिस्तानी राज्य-व्यवस्था के विभिन्न अंग एक साथ नहीं हैं, लेकिन माना जा रहा है कि पेशावर की त्रसदी एका का आधार बन सकती है. इस तरह की भयानक बर्बरता न सिर्फ जनता, बल्कि राज्य की चेतना को भी झिझोड़ सकती है. एक सकारात्मक संकेत यह है कि पाकिस्तान की मीडिया ने […]
आतंक के विरोध में पाकिस्तानी राज्य-व्यवस्था के विभिन्न अंग एक साथ नहीं हैं, लेकिन माना जा रहा है कि पेशावर की त्रसदी एका का आधार बन सकती है. इस तरह की भयानक बर्बरता न सिर्फ जनता, बल्कि राज्य की चेतना को भी झिझोड़ सकती है. एक सकारात्मक संकेत यह है कि पाकिस्तान की मीडिया ने इस मुद्दे पर बहुत तल्खी भरा तेवर दिखाया है. इसने सरकार पर जर्ब-ए-अज्ब चलाने के बावजूद आतंक को एक ‘सामान्य बात’ मान कर बर्दाश्त करने का करीब-करीब आरोप लगा दिया है.
पाकिस्तान में बीते मंगलवार को पेशावर के एक स्कूल में हुए भयानक हमले ने एक बार फिर आतंक के शैतानी चेहरे को बेनकाब कर दिया है, जिससे पाकिस्तान पिछले एक दशक से अधिक समय से जूझ रहा है. शायद हमले में बड़ी संख्या में बच्चों के मारे जाने के कारण दुनिया भर में इसकी कड़ी निंदा हुई है, अन्यथा इन अतिवादियों, जिसकी मंशा अभी तक स्पष्ट नहीं हो सकी है, ने पूरे पाकिस्तान में लगातार कहर बरपाया है. इतने बड़े हमले की जिम्मेवारी लेनेवाले गिरोह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने सितंबर, 2001 में शुरू हुए ‘आतंक के विरुद्ध युद्ध’ के समय से ही पाकिस्तान में कई आतंकी वारदातों को अंजाम दिया है.
पेशावर घटना इस बात का रेखांकन है कि नॉन-स्टेट एक्टर्स द्वारा संचालित यह तंत्र पाकिस्तान के लिए कितना खतरनाक है. भारत समेत दुनिया भर से पीड़ितों को मिल रही सहानुभूति हमलावरों के लिए साफ संकेत है कि वे बिल्कुल अलग-थलग पड़ चुके हैं. बच्चों को निशाना बनाने की इस भयानक कार्रवाई ने पाकिस्तानी समाज को भी सोचने के लिए मजबूर कर दिया है. जिस तरह से मीडिया और सिविल सोसाइटी ने आतंक को लेकर चल रही राज्य की नीतियों को चुनौती दी है, उससे यह उम्मीद बंधी है कि सभ्य समाज में इस तरह की असंवेदनशीलता के लिए कोई जगह नहीं है. आतंक से तार-तार हो चुके समाज में सच कहने की हिम्मत एक सकारात्मक संकेत है. सड़कों पर विरोध कर रहे और हाथ में मोमबत्तियां लिये लोग यह अभिव्यक्त कर रहे हैं कि अब स्थिति असहनीय हो चुकी है. माहौल के आतंक के विरुद्ध आंदोलन में बदलने के भी आसार दिख रहे हैं. पाकिस्तान के अखबार ‘द नेशन’ ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ समेत पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के प्रमुख इमरान खान और सेना प्रमुख जनरल राहील शरीफ पर आतंक के विरुद्ध कमजोर नीतियां बनाने का साफ आरोप लगाया है. टिप्पणीकार और रक्षा विशेषज्ञ आयशा सिद्दीका ने ‘पाकिस्तान ट्रिब्यून’ में लिखा है कि इतनी बड़ी त्रसदी के बाद भी देश आतंक की चुनौती का सामना करने के लिए एकजुट नहीं हो पा रहा है और लोग अभी भी अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं.
भले ही देश के उत्तरी क्षेत्र में पाकिस्तान ने आतंकियों के विरुद्ध चर्चित ‘जर्ब-ए-अज्ब’ के नाम से सैन्य अभियान चलाया है और सैकड़ों आतंकियों को मारा है, लेकिन इतने वर्षो से फैला हुआ जाल पूरी तरह नहीं मिटाया जा सका है. पाकिस्तानी राज्य का कोई-न-कोई हिस्सा इन आतंकवादी समूहों को संरक्षण और समर्थन देता रहा है. इसी कारण से आज पाकिस्तान एक खतरनाक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है.
कुछ दशक पूर्व अफगानिस्तान पर सोवियत हमले के बाद पाकिस्तान ने मुजाहिदीनों का खुल कर साथ दिया था. पाकिस्तान अमेरिका और मुजाहिदीनों के बीच बिचौलिया बन गया था और वहां हथियारों की खरीद और अन्य खर्चो के लिए धन की खूब आमद हुई थी. एक समय बाद यह समर्थन पाकिस्तान पर ही भारी पड़ने लगा और इसलामाबाद तथा काबुल के बीच तनाव बढ़ने लगा था, जो 11 सितंबर, 2001 के हमले के बाद बहुत ही अधिक हो गया था. हामिद करजई की सरकार ने लगातार पाकिस्तान पर आतंक के खिलाफ खुल कर मदद नहीं करने और ओसामा बिन लादेन को शरण देने का आरोप लगाया था. आज जब पाकिस्तान इस हमले से दहल गया है, तो वह काबुल से तहरीक-ए-तालिबान के सरगना मुल्ला फजलुल्लाह को पकड़ने के लिए मदद मांग रहा है. पेशावर में बच्चों की हत्या करना जर्ब-ए-अज्ब का बदला था और यह बिना किसी पछतावे की भावना से किया गया.
एक दशक से अधिक समय से पाकिस्तान घरेलू आतंक की चुनौतियों का सामना कर रहा है, जो देश में बढ़ते अमेरिका-विरोधी माहौल के साथ खतरनाक होता जा रहा है. अतिवादी समूह पाकिस्तान को अस्थिर करने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. विगत बारह वर्षो में 55 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और यह सिलसिला लोकतांत्रिक सरकार के बने छह बरस बीत जाने के बाद भी जारी है. अगर आतंकी गिरोह पाकिस्तानी सेना को अमेरिकियों का सहयोगी मानते, तो वे लोकतांत्रिक सरकार के लिए जगह बनाते, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. कुछ वर्षो से इन गिरोहों ने सरकार को पीछे धकेल दिया है. उन्होंने परवेज मुशर्रफ पर राष्ट्रपति रहते दो बार हमला किया, पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या की, सेना और आइएसआइ के कई ठिकानों और कार्यालयों पर हमला किया है.
पाकिस्तान में मदरसों का अनियंत्रित विस्तार हुआ है. अमेरिका-विरोधी भावना, भारत के प्रति कटुता और आतंकियों के प्रति कार्रवाई ने मदरसों को सामाजिक समर्थन मुहैया कराया है. वहां अनेक समस्याएं होने के कारण मदरसों का प्रभाव कम नहीं हो रहा है. यह सही है कि सभी मदरसे अतिवाद का प्रसार नहीं करते, लेकिन ये अतिवादी आम तौर पर ऐसी ही जगहों से निकल कर आते हैं. मदरसों के प्रसार के पीछे सरकारी स्कूलों के तंत्र का ध्वस्त होना भी बड़ा कारण है. पाकिस्तान बनने के बाद से ही देश के बड़े हिस्से पर पाकिस्तान के संघीय सरकार का नियंत्रण नहीं रहा है. साक्षरता की दृष्टि से 120 देशों में इसका स्थान 113वां है. एक आकलन के मुताबिक, देश में करीब 24 हजार पंजीकृत मदरसे हैं, जबकि अपंजीकृत मदरसों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है. मदरसों में लगभग 30 लाख बच्चों के शिक्षा ग्रहण करने का अनुमान है. मदरसों के आधुनिकीकरण या नियमन की कोशिशें असफल रही हैं. मदरसे ऐसी कोशिशों को दखलअंदाजी मानते हैं. अगर जेहाद बुराई के खिलाफ कार्रवाई है, तो क्या पाकिस्तान इस श्रेणी में आता है! जिन्ना ने जिन लोगों के लिए पाकिस्तान बनाया था, वे कई कारणों से आज इसके विरुद्ध हो गये हैं. इस असंतोष का सबसे बड़ा कारण लोकतंत्र का असफल होना और सेना का राज्य की सबसे ताकतवर इकाई बनना है.
आतंक के विरोध में पाकिस्तानी राज्य-व्यवस्था के विभिन्न अंग एक साथ नहीं हैं, लेकिन माना जा रहा है कि पेशावर की त्रसदी एका का आधार बन सकती है. इस तरह की भयानक बर्बरता न सिर्फ जनता, बल्कि राज्य की चेतना को भी ङिांझोड़ सकती है. एक सकारात्मक संकेत यह है कि पाकिस्तान की मीडिया ने इस मुद्दे पर बहुत तल्खी भरा तेवर दिखाया है. इसने सरकार पर जर्ब-ए-अज्ब चलाने के बावजूद आतंक को एक ‘सामान्य बात’ मान कर बर्दाश्त करने का करीब-करीब आरोप लगा दिया है. नवाज शरीफ सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती आतंक के विरुद्ध एक पारदर्शी नीति बनाने की है. आतंक-विरोधी लोगों की नजर में इमरान खान की हैसियत भी कम हुई है, क्योंकि उन्हें अतिवादियों के प्रति नरम माना जाता है. नवाज शरीफ के लिए भी आतंकवादियों का मुकाबला करना आसान नहीं होगा, क्योंकि वे उनके परोक्ष समर्थन से ही पिछला चुनाव जीत पाये हैं. लेकिन, आनेवाले दिनों में उन पर ठोस कदम उठाने के लिए दबाव बढ़ेगा.अब यह देखनेवाली बात है कि वे कोई कार्रवाई करते हैं या नहीं. परंतु, पाकिस्तान की त्रसदी पेशावर के साथ थमी नहीं है.
शुजात बुखारी
वरिष्ठ पत्रकार
shujaat7867@gmail.com