अरसा पहले उसी पेशावर में भारतीय विमान को अपहृत कर ले जाया गया था, मगर उस आर्तनाद को किसी ने नहीं सुना. यदि उसे सुन लिया गया होता, तो आज पेशावर के हजारों घरों से यह आर्तनाद नहीं निकलता.
उस दिन, जब दुनिया पेशावर के सैनिक स्कूल में तालिबान के नरपशुओं द्वारा मासूम बच्चों के भीषण संहार के दृश्य देख रही थी, मैं असम में ब्रह्नापुत्र के किनारे बैठा उसके पानी को निहार रहा था. कहते हैं कि तमाम क्षत्रिय राजाओं को अपने फरसे से वध करने के बाद परशुराम ने अपना परशु यानी फरसा इसी नद के जल में धोया था, जिससे इसका पानी लाल (लोहित) हो गया था, इसीलिए ब्रह्नापुत्र का एक नाम लोहित भी है. खून के रंग का पानी! ब्रह्नापुत्र के पानी का वह रंग समय ने धो दिया है, मगर लोक आस्था उसे भूली नहीं है. आज भी असम के सामान्य जन ब्रह्नापुत्र के जल में न नहाते हैं और न उसका पानी पीते हैं. साल में केवल एक दिन लोग इस नद में नहाते हैं, जिस दिन यह शाप-मुक्त होता है. शास्त्रों में तीन नद माने जाते हैं, सिंधु, शोणभद्र और ब्रrापुत्र. जिस सिंधु के तट पर सहस्नब्दियों पूर्व हमारे पूर्वजों ने मानव सभ्यता का बीजारोपण किया था, उसी सिंधु तट पर दानव सभ्यता आज तांडव नृत्य कर रही है. सिंधु नद भी अब गर्वोन्नत नहीं है. उसके तट पर भी नरपशुओं के कबीले मार-काट मचा रहे हैं, उस अल्लाह के नाम पर, जिसका पहला विशेषण ‘करुणा’ है. मदांधता ऐसी कि वे ही अपने को सृष्टि का नियंता मानने लगे हैं. वे दानवता में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए हिंसा को नृशंसतम बनाने के उपाय ढूंढ रहे हैं.
इन दिनों कई इसलाम-अभिमंत्रित देशों में जो कुछ हो रहा है, वह चकित कर देनेवाला है. सत्ता की बागडोर किसी के हाथ में हो, मगर कानून आतंकवादी संगठन चलाते हैं. वे अपने पंथ के लोगों को मार रहे हैं, उनकी बहू-बेटियों के साथ हैवानियत की पराकाष्ठा पार कर रहे हैं, उन्हें लूट का माल घोषित कर दस डॉलर में खुलेआम सड़कों पर बोली लगा कर बेच रहे हैं. इसलाम में जो मां को प्रतिष्ठा दी गयी है, उसे वे भूल चुके हैं. इसलाम में जो प्रेम और करुणा का पाठ है, उसे वे फाड़ कर फेंक चुके हैं. उर्दू में जो ‘अहमक’ शब्द है, उसका मूल संस्कृत ‘अहमेक’ है, यानी मैं ही एकमात्र हूं- एको अहं द्वितीयो नास्ति. संस्कृत में और उर्दू में भी यह अपमान-जनक शब्द बन गया है, क्योंकि आर्यो ने इसके स्थान पर बहुधावाद को महत्व दिया और कहा कि ‘एकं सद विप्रा बहुधा वदंति’ अर्थात् सत्य एक ही है, मगर ब्रह्नाविद् ऋषि-मुनि उसे विभिन्न रूपों में परिभाषित करते हैं. यही ऐसा सूत्र हमारे पूर्वजों ने हमारे हाथों में थमा दिया, जिसके सहारे हम समय की आंधियों में हरे बांस की तरह कहीं झुक कर तो कहीं तन कर आगे बढ़ते रहे. इसी मंत्र को शिवभक्त आचार्य पुष्पदंत ने अपने ‘शिव-महिम्न स्तोत्र’ में यों अभिव्यक्त किया है:
रुचीनां वैचित्र्यात् ऋजुकुटिल नाना पथजुषाम्
नृणाम् एको गम्य: त्वमसि पयसाम् अर्णव इव।
अर्थात् रुचियों की भिन्नता के कारण लोग सीधा-टेढ़ा मार्ग भले अपनाते हैं, मगर सभी को आप तक ही पहुंचना है, जैसे नदियां टेढ़ी-सीधी धार बना कर भी समुद्र को ही जाती हैं. अकसर अनजान लोग हिंदू धर्म की यह कह कर आलोचना करते हैं कि इसमें करोड़ों देवी-देवता हैं. हिंदू धर्म में नदी-पर्वत, लता-वृक्ष, पशु-पक्षी को भी देवता मान कर आदर दिया गया है. इसलिए कि वे हमारा उपकार करते हैं और उपकार के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना कृतज्ञता की परम सात्विक अभिव्यक्ति है. जहां तक ईश्वर को परिभाषित करने की बात है, महर्षि पतंजलि ने उस अपरिमेय तत्व को मात्र तीन शब्दों में वामन की तरह नाप दिया है: ‘सत्यं ज्ञानम् अनंतम् ब्रह्ना’. ब्रह्ना सत्य-स्वरूप है, ज्ञान-स्वरूप है और अनंत स्वरूप है. दुनिया में ईश्वर को नापते हुए जो भी परिभाषाएं की गयी हैं, वे सभी इस तीन शब्दों की व्यापकता के सामने छोटी पड़ जाती हैं. जो धर्म ईश्वर को इस व्यापक दृष्टिकोण से देख रहा है, उसके अनुयायी कभी ैअहमक नहीं हो सकते. और न बामियान में प्रेम और करुणा के प्रतीक-पुरुष भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा को विस्फोटकों से उड़ा सकते हैं.
जिस दिन तालिबानी हैवानों ने बुद्ध की उस ऐतिहासिक और कलात्मक प्रतिमा को भूमिसात किया था, उसी दिन दुनिया को आज के पेशावर कांड की परिकल्पना कर लेनी चाहिए थी. उसी पेशावर में भारतीय विमान को अपहृत कर ले जाया गया था, मगर उस आर्तनाद को किसी ने नहीं सुना. यदि उसे सुन लिया गया होता, तो आज पेशावर के हजारों घरों से यह आर्तनाद नहीं निकलता.
महाभारत युद्ध के अंतिम चरण में अपने परम मित्र दुर्योधन के पराभव से क्रुद्ध होकर कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने युद्ध के सर्वस्वीकृत शास्त्रीय नियमों को ताक पर रखते हुए रात के सन्नाटे में, पांडवों के शिविर में घुस कर, गहरी नींद में सो रहे द्रौपदी के पांच पुत्रों को पांचों पांडव समझ कर तलवार के घाट उतार डाला था. उसी तरह, जैसे आज तालिबानों ने सैनिक स्कूल में परीक्षा दे रहे 132 बच्चों को अंधाधुंध गोलियां चल कर मार डाला है. कुछ ही वर्ष पहले रूस में भी इसी पंथ के कुछ सिरफिरे नरपशुओं ने छह सौ से अधिक मासूमों और बेगुनाहों को मार डाला था. यह घटना भी इतिहास की साधारण घटना नहीं थी, मगर दुनिया की महाशक्तियों ने ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया. आज की स्थिति यह है कि इसलामी देशों में पाशविक तत्व अपनी बर्बरता की विजय-पताका फहराने के लिए सभ्यता को कलंकित करनेवाले कुकृत्य कर रहे हैं.
महाभारत का इतिहासकार कहता है कि अश्वत्थामा उस समय मरा नहीं था. धर्मवीर भारती जी ने ‘अंधा युग’ में रक्त-रंजित, चिरजीवी अश्वत्थामा का विद्रूप चित्रण किया है. महाभारत के कालखंड से निकल कर वह कहां गया, यह किसी को पता नहीं. अश्वत्थामा मरा नहीं, वह सात चिरजीवियों में शामिल है. हनुमान की तरह, अपने मामा कृपाचार्य की तरह. अश्वत्थामा की संतानें रक्तबीज की तरह दिनोंदिन बढ़ रही हैं. रक्तबीज भी राक्षस ही था, जिसका एक बूंद रक्त धरती पर गिरने से एक और रक्तबीज पैदा हो जाता था. उसे भी मारा महाकाली ने, उसके शरीर से गिरते खून को अपनी लंबी जीभ से पीकर. महाकाली महाकाल की शक्ति है. महाकाल ही ‘सत्य-ज्ञान-अनंत ब्रrा’ है. उस महाकाल को ही अपनी सीमित दृष्टि से हम समय कह सकते हैं. रक्त-रंजित अश्वत्थामा की रक्तबीज संतानें भी तभी तक अपनी नरपशुता दिखायेंगी, जब तक महाकाली अपनी लंबी जीभ नहीं पसारती.
ब्रrापुत्र के तट पर अकेले बैठा मैं उस पार आचार्य शंकरदेव द्वारा स्थापित पीठ के ऊपर उस तेजोमय कृष्ण को देख रहा हूं, जो गीता में स्वयं को मृत्यु के रूप में वर्णित करते हैं. असमिया में ‘तेज’ का अर्थ रक्त ही होता है, यह तेजपुर जाकर पता चला.
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
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