मर्यादाओं से बेपरवाह यह राजनीति!
दुनिया में खेले जानेवाले हर खेल के अपने कायदे-कानून होते हैं. बॉक्सिंग से लेकर क्रिकेट तक हर खेल में खिलाड़ियों के लिए एक चौहद्दी बनायी जाती है, जिसे रिंग या सीमा रेखा कहा जाता है. क्या मान्य है, क्या वजिर्त- सबकी एक नियमावली होती है. खिलाड़ियों से खेल को इन नियमों के तहत खेलने की […]
दुनिया में खेले जानेवाले हर खेल के अपने कायदे-कानून होते हैं. बॉक्सिंग से लेकर क्रिकेट तक हर खेल में खिलाड़ियों के लिए एक चौहद्दी बनायी जाती है, जिसे रिंग या सीमा रेखा कहा जाता है. क्या मान्य है, क्या वजिर्त- सबकी एक नियमावली होती है. खिलाड़ियों से खेल को इन नियमों के तहत खेलने की अपेक्षा की जाती है और ऐसा नहीं करने पर ‘फाउल’ करार दिया जाता है. खेल में जिसे नियम कहते हैं, राजनीति में उसे मर्यादा कहा जा सकता है.
चूंकि राजनीति के खेल में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका शब्दों की होती है, इसलिए राजनेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे कम से कम अपने बयानों में मर्यादाओं का ध्यान रखेंगे. बोधगया में हुए आतंकी हमले के बाद के राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों पर निगाह दौड़ाएं, तो एहसास होगा कि भारतीय राजनीति में मर्यादाओं के लिए ज्यादा जगह नहीं बची है. खासकर तब जब चुनाव नजदीक हों, मर्यादा को स्थगित रखने में ही राजनीतिक दल अपना हित देखते हैं.
एक ऐसे समय में जब बिहार और भारत ही नहीं, पूरा विश्व बौद्ध धर्म के हृदय स्थल पर हुए हमले से सन्न था, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह इस हमले का ‘मोदी कनेक्शन’ ढूंढ़ने में व्यस्त थे. सोमवार की सुबह उन्होंने ट्वीट करके पूछा कि ‘क्या यह महज संयोग है कि बिहार में आतंकवादी हमला नरेंद्र मोदी के उस बयान के ठीक बाद हुआ है, जिसमें नीतीश कुमार सरकार को सबक सिखाने की चेतावनी दी गयी थी!’ हमले में ‘इंडियन मुजाहिदीन’ का हाथ होने की आशंका पर भी दिग्विजय सिंह ने सवाल दागा कि ‘क्या बिना पूरी जांच के मुसलमानों के शामिल होने की बात नहीं की जा रही है?’ यह बयान देते वक्त दिग्विजय यह भूल रहे थे कि इस तरह से वे भारतीय मुसलमान को इंडियन मुजाहिदीन का समतुल्य करार दे रहे हैं.
इसे बेहद असंवेदनशील और गैर-जिम्मेदाराना बयान कहा जा सकता है. बोधगया हमले का संबंध नरेंद्र मोदी से जोड़ने की दिग्विजय की कोशिश की तुलना कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर के दौरान गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के उस विवादास्पद बयान से की जा सकती है, जिसमें उन्होंने संघ और भाजपा पर आतंकवादी कैंप चलाने का आरोप लगाया था. हालांकि बाद में शिंदे को इस बयान के लिए माफी मांगनी पड़ी थी. दरअसल, पिछले कुछ वर्षो से दिग्विजय सिंह आतंकवाद को मजहबी रंगों के हिसाब से बांटने की लगातार कोशिश करते रहे हैं. इसके पीछे की मंशा को समझा जा सकता है, पर यह बात समझ से परे है कि क्या राजनीतिक लाभ के लिए मर्यादा की हर सीमा को लांघने की इजाजत दी जा सकती है!