महाबोधि मंदिर के हमलावर
।।विजय क्रान्ति।।(वरिष्ठ पत्रकार) बोधगया के मुख्य बौद्ध मंदिर में एक साथ 13 बम रखा जाना और उनमें से नौ का फटना एक ऐसी दुखद घटना है, जो कई सवाल और चिंताएं खड़ी करती है. इनमें से ज्यादा सवाल बौद्ध समुदाय और इसलाम के बीच टकराव से नहीं, भारत में सक्रिय इसलामी आतंकवादियों के नेतृत्व की […]
।।विजय क्रान्ति।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
बोधगया के मुख्य बौद्ध मंदिर में एक साथ 13 बम रखा जाना और उनमें से नौ का फटना एक ऐसी दुखद घटना है, जो कई सवाल और चिंताएं खड़ी करती है. इनमें से ज्यादा सवाल बौद्ध समुदाय और इसलाम के बीच टकराव से नहीं, भारत में सक्रिय इसलामी आतंकवादियों के नेतृत्व की समझदारी और भारत के आम मुसलमानों के नेतृत्व से जुड़े हैं.
हालांकि धमाकों की जांच कर रही सुरक्षा एजेंसियों ने अभी किसी विशेष संगठन के नाम पर उंगली नहीं रखी है, लेकिन जांच से संकेत मिल रहे हैं कि इस हमले के पीछे किसी मुसलिम आतंकवादी संगठन का हाथ है और ज्यादातर उंगलियां इंडियन मुजाहिदीन की दिशा में उठ रही हैं.
बोधगया का महाबोधि मंदिर कोई सामान्य बौद्ध मंदिर नहीं है. इस मंदिर का स्थान दुनिया भर के बौद्धों के लिए ठीक वैसा ही है, जैसा मुसलिम समाज के लिए मक्का का है. टीवी की फुटेज में विस्फोटों से गिरे मलबे में जिस पीपल के हरे पत्ते दिखाई दे रहे हैं, वह वही पेड़ है जिसके नीचे करीब ढाई हजार साल पहले महात्मा बुद्ध ने तप करके ज्ञान प्राप्त किया था. इस ज्ञान को पाने के बाद महात्मा बुद्ध ‘भगवान’ बुद्ध हो गये और हर पीपल के पेड़ का नाम ‘बोधिवृक्ष’ हो गया. इस पेड़ के नीचे प्रार्थना करने और मंदिर के दर्शन के लिए भारत के अलावा जापान, कोरिया, चीन, श्रीलंका और थाईलैंड समेत दर्जनों देशों से हर साल लाखों श्रद्धावान आते हैं.
समाचारों के विश्लेषण से लग रहा है कि बौद्धों के इस आस्था केंद्र पर आतंकवादियों ने इसलिए हमला किया, क्योंकि म्यांमार में कुछ कबीलों ने कई महीने पहले वहां के रोहिंग्या कबीले पर हमला किया था. गोया कि हमला करनेवाले बौद्ध धर्म से जुड़े थे और रोहिंग्या कबीले की आस्था इसलाम में है. इसलिए भारत में खुद को इसलाम का प्रतिनिधि घोषित करनेवाले एक आतंकवादी गुट ने फैसला कर लिया कि हजार मील दूर विदेश में रहनेवाले रोहिंग्या कबीले के साथ हुई ज्यादती का सही जवाब यह है कि भारत में बौद्ध आस्था के सबसे बड़े मंदिर पर बम फोड़ दिये जाएं. उन्होंने यह देखना जरूरी नहीं समझा कि उस झगड़े के पीछे स्थानीय आर्थिक कारण और कबीलाई विवाद ज्यादा थे, मुसलिम–गैर मुसलिम वाले कारण कम.
भारत के इसलामी आतंकवादी नेतृत्व के इस सोच को शह देने में अमेरिका की ‘टाइम’ पत्रिका के हाथ को भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. पत्रिका ने पिछले अंक के कवर पेज पर म्यांमार के एक गरमपंथी बौद्ध भिक्षु का चित्र छाप कर अपनी जो कवर स्टोरी पेश की थी, उसमें बताने की कोशिश की गयी थी कि रोहिंग्या कबीले पर हमला बौद्ध धर्म में उग्रवाद बढ़ने की निशानी है, जिसका निशाना मुसलमान थे. इसलाम और बौद्धों को आमने–सामने खड़े करने के इस खेल में ईसाई बहुल पश्चिमी देशों और इसलाम के बीच सैंकड़ों सालों से चले आ रहे टकराव की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता.
दुर्भाग्य से किसी भी समाज के अतिवादी नेतृत्व को ऐसे मौकों पर भड़काना आसान होता है. म्यांमार के सवाल पर भारत के इसलामी आतंकवादी संगठनों के नेता इस चाल में आ गये दिखते हैं. इससे पहले अफगानिस्तान में अपने शासनकाल के दौरान अलकायदा ने बामियान की ऐतिहासिक बौद्ध प्रतिमाओं को बमों से उड़ा कर दुनिया भर के बौद्धों की आस्था पर हमला किया था. लेकिन तब भी दुनिया के किसी देश में बौद्धों ने अपने गुस्से को इसलाम विरोधी हिंसा के रास्ते व्यक्त नहीं किया था और आज भी किसी हिंसक बौद्ध प्रतिक्रिया की आशंका नहीं के बराबर है.
बोधगया पर आतंकी हमले ने जहां एक ओर भारत के आतंकवादी मुसलिम नेतृत्व की समझ पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं, वहीं देश के आम मुसलमान को नये सिरे से यह सोचने का अवसर प्रदान किया है कि क्या ये आतंकवादी पूरे भारतीय मुसलिम समाज के सच्चे प्रतिनिधि हो सकते हैं? यह भी कि ऐसे दकियानूसी और मानवविरोधी नजरिया रखनेवाले उग्रपंथी लड़ाकू लोगों के माध्यम से इसलाम की जो छवि दुनिया के सामने बन रही है, क्या वह इसलाम के प्रति ज्यादती नहीं है? बोधगया जैसे शांति के विश्व प्रतीक पर ऐसा शर्मनाक हमला होने के बाद आम भारतीय मुसलमानों के सामने यह सवाल फिर से खड़ा हो गया है कि वे अपने समाज की छवि और दिशा को आतंकवादी सोचवाले लोगों के हाथों में सौंपना चाहेंगे?
भारत और पाकिस्तान के इसलामी उग्रवादियों की इस दलील को यदि एक बार मान भी लिया जाये कि दुनिया में किसी भी जगह मुसलमानों पर हुए हमले का बदला लेना हर सच्चे मुसलमान का फर्ज है, तो उन्हें अपने मुसलिम भाइयों के कुछ सवालों का जवाब भी देना चाहिए. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि पाकिस्तान में, जो इसलाम का पवित्र देश है, नमाज पढ़ते दर्जनों मुसलमानों को या स्कूल की बस में बैठे दर्जनों बच्चों को एके-47 और बमों से सिर्फ इसलिए क्यों भून दिया जाता है कि वे शिया हैं?
म्यांमार और यूरोप में छोटी–छोटी बातों पर खून–खराबे को तैयार उग्रपंथी इसलामी नेताओं को दुनियाभर के अपने शांतिप्रिय मुसलिम भाई–बहनों को यह भी बताना चाहिए कि चीन में चल रहे इसलाम विरोधी सरकारी दमन के खिलाफ उनका मुंह और बंदूक क्यों नहीं खुलती? इस महीने के शुरू में चीन की पुलिस और सेना ने वहां के शिंजियांग प्रांत में दर्जनों उइगुर मुसलिम युवाओं को बीच बाजार गोली से उड़ा दिया. लेकिन भारत समेत दुनिया भर के किसी भी चरमपंथी मुस्लिम नेता के मुंह से चीन की आलोचना का एक शब्द नहीं फूटा. यह वही शिंजियांग प्रांत है, जो 1949 तक रिपब्लिक ऑफ ईस्ट तुर्किस्तान के नाम से एक स्वतंत्र देश था. चीनी कब्जे के बाद इसे शिंजियांग नाम दिया गया, जिसका चीनी भाषा में अर्थ है नया इलाका. जुलाई, 2009 में वहां से गुआंगदोंग में मजदूरी के लिए भेजे गये सात उइगुर युवाओं की हान चीनी मजदूरों की भीड़ ने डंडे और पत्थरों से सिर्फ इसलिए हत्या कर दी वे चीनी मालिकों के कारखानों में कम मजदूरी पर काम करने को तैयार थे.
जवाब में काशगर और दूसरे शहरों में उइगुर युवाओं ने लगभग दो सौ चीनी सैनिकों व वहां आकर बसे हान चीनियों की हत्या कर डाली. जवाबी कार्रवाई में चीनी सेना और वहां लाकर बसाये गये हान नागरिकों ने हिंसा का जो खेल खेला था, उसमें उइगुर सूत्रों के मुताबिक लगभग 800 मुसलिम उइगुर मारे गये थे. उस समय भी भारत, पाकिस्तान या दूसरे देशों के उत्साही मुसलिम नेता और इसलाम समर्थन के नाम पर राजनीति करनेवाले सैक्युलरिस्ट नेता अपने मुंह बंद किये बैठे रहे थे.
ऐसे में यह भी आशंका होती है कि कहीं मुसलिम आतंकवादियों की आस्था इसलाम या अपने मुसलिम समाज के बजाय उस पैसों में तो नहीं हैं, जो उन्हें हर बमबाजी के बाद अपने विदेशी आकाओं से मिलते हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो बोधगया की यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना भारत के उग्रवाद समर्थक और शांतिप्रिय मुसलिम समाज, दोनों के लिए अपने भीतर झांकने का एक अवसर है.