यह गरीबी और गैरबराबरी

।।कृष्ण प्रताप सिंह।। (वरिष्ठ पत्रकार) संयुक्त राष्ट्र की रेजिडेंट कोऑर्डिनेटर लीस ग्रैंड का कहना है कि भारत गरीबी उन्मूलन के संयुक्त राष्ट्र के सहस्नब्दी विकास लक्ष्य की दिशा में ‘उचित गति’ से अग्रसर है और 2015 तक इसे प्राप्त कर लेगा. उनके कथन का आधार संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा तैयार करायी गयी वह रिपोर्ट है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 10, 2013 1:51 AM

।।कृष्ण प्रताप सिंह।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

संयुक्त राष्ट्र की रेजिडेंट कोऑर्डिनेटर लीस ग्रैंड का कहना है कि भारत गरीबी उन्मूलन के संयुक्त राष्ट्र के सहस्नब्दी विकास लक्ष्य की दिशा में उचित गतिसे अग्रसर है और 2015 तक इसे प्राप्त कर लेगा. उनके कथन का आधार संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा तैयार करायी गयी वह रिपोर्ट है, जिसके अनुसार देश में व्यापक स्तर पर फैली गरीबी 1994 के 49 प्रतिशत से घट कर 2005 में 42 प्रतिशत तक आयी और 2010 में केवल 33 प्रतिशत रह गयी है.


उत्तराखंड
में हुई मौतों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों को गलत बताने में एक पल भी लगानेवाली हमारी सरकार ने इस रिपोर्ट पर मूछें ऐंठने की मुद्रा अख्तियार कर ली है. लेकिन क्या कड़वाकड़वा थू और मीठामीठा गप करते हुए इन अनुकूल आंकड़ों की आड़ में इस कड़वे सच को छिपाया जा सकता है कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा 12 से 20 रुपये रोज पर गुजरबसर करने को अभिशप्त है, तब भी गरीबों की नियति नहीं बदली है. (अजरुन सेन गुप्ता समिति का यह बहुप्रचारित निष्कर्ष मुहावरे की तरह इस्तेमाल होता हुआ घिस सा गया है). इतना ही नहीं, अब तो गरीबों की पहचान और संख्या, दोनों विवादास्पद बना दी गयी हैं.


विडंबना
देखिए कि सरकार संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के इन आंकड़ों को लेकर ऐसे वक्त में खुश हो रही है, जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा जारी किये गये ताजा आंकड़े कई मायनों में उक्त रिपोर्ट को सिर्फ झुठला रहे हैं, बल्कि गरीबी उन्मूलन के सरकारी प्रयासों की दशा और दिशा पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं. एनएसएसओ के आंकड़े इस अर्थ में ज्यादा विचलित करनेवाले हैं, कि उनकी रोशनी में देश की कुल जनसंख्या में गरीबों का प्रतिशत थोड़ा बहुत घटा हो तो घटा हो, पर गरीबों की पंक्ति में सबसे पीछे खड़े, यानी अंतिम व्यक्ति की हालत सुधरने के बजाय और भी खराब ही हुई है. वे अब भी गांवों में 17 रुपये और शहरों में 23 रुपये रोज पर ही अपना दिन गुजारने को मजबूर हैं.

यह स्थिति तब है, जबकि रुपये की कीमत डॉलर के ही नहीं, गरीबों की दिनप्रतिदिन महंगी होती दालरोटी के मुकाबले भी गिरती जा रही है. गरीब समझ ही नहीं पा रहा कि जो सरकार उसके प्रति इतनी दयालू है, कि खाद्य सुरक्षा कानून बनने के बाद उसे तीन रुपये किलो गेहूं देने को बेचैन दिख रही है और इसके लिए सवा लाख करोड़ रुपये खर्च करने को तैयार है, भले ही वह आमतौर पर सब्सिडियों के लगातार बढ़ते जाने का रोना रोरोकर उनमें कटौती करती रहती हो, उसी के राज में अभी गेहूं का आटा 22 से 25 रुपये किलो क्यों बिक रहा है?


आंकड़े
बताते हैं कि इस दौरान सबसे गरीब व्यक्ति की गरीबी का ही नहीं, गैरबराबरी का त्रस भी बढ़ा है. गांव के सबसे अमीर पांच प्रतिशत लोग 4,481 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च करने की स्थिति में गये हैं, जबकि शहर का सबसे अमीर पांच प्रतिशत तबका 10,282 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीना खर्च करने में सक्षम हो गया है. इस लिहाज से गांवों शहरों के सबसे अमीर और सबसे गरीब व्यक्तियों के खर्च में बढ़ता अंतर ही नहीं, शहरों के सबसे अमीर व्यक्ति का गांवों के सबसे अमीर व्यक्ति से ढाई गुना अमीर होना भी विचलित करता है. गांव के सबसे अमीर शहर के सबसे अमीर के खर्च में राष्ट्रीय औसत के लिहाज से भी जो फर्क है, वह दोगुने से थोड़ा ही कम है. इसका अर्थ यही तो है, कि ग्रामोन्मुखी नीतियों की आड़ में समृद्घि की सारी सहूलियतें शहरों के नाम लिखी जा रही हैं और गांवों की नियति बना दी गयी है कि वे आकांक्षा प्रतीक्षा के द्वंद्व को ङोलते और हांफते हुए उनके पीछेपीछे दौड़ें.


गैरबराबरी
की इंतिहा देखिएसौ अग्रणी कॉरपोरेट घरानों का देश की 90 प्रतिशत संपदा पर प्रत्यक्ष परोक्ष नियंत्रण है, जबकि एक तिहाई ग्रामीण आबादी भूमिहीन निर्धन है. सालाना पांच करोड़ से ज्यादा आय और अत्यंत मूल्यवान स्थायी संपत्ति के मालिक महाअमीरों की संख्या करीब सवा लाख है. इस महाअमीर तबके का ऊपरी हिस्सा भ्रष्ट शासनतंत्र से जुड़ा हुआ है और यही काला धन पैदा करने में भी अव्वल है.

कालेधन के मामले में देश शीर्ष पर पहुंचा हुआ है, तो इसी तबके के कारण. इसी के कारण देश की नजर आनेवाली सरकारी अर्थव्यवस्था की तुलना में भूमिगत अर्थव्यवस्था कई गुना बड़ी हो चली है. कॉरपोरेट, राजनेता नौकरशाह गठजोड़ द्वारा स्विसबैंकों में ही जो धन जमा किया गया है, वह भारत की समूची राष्ट्रीय आय से भी ज्यादा है. किसे नहीं मालूम कि अमीरी का रास्ता गैरबराबरी और गरीबी का रास्ता भी होता है!

Next Article

Exit mobile version