पाकिस्तान और अफगानिस्तान में शरीया शासन चाहते हैं तालिबान!

मेजर जनरल अफसर करीम तालिबान ने ‘ऑपरेशन वजीरिस्तान’ चला रखा है. इस ऑपरेशन का मूल उद्देश्य यही है कि कैसे पाक में शरीया शासन स्थापित किया जाये. वजीरिस्तान में तालिबानियों का वर्चस्व चलता है, लेकिन हाल मे वहां पाक सेना ने काफी कहर ढाया है, जिसका जवाब तालिबान ने पेशावर में आकर दिया है. तालिबान […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 21, 2014 4:38 AM
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मेजर जनरल अफसर करीम
तालिबान ने ‘ऑपरेशन वजीरिस्तान’ चला रखा है. इस ऑपरेशन का मूल उद्देश्य यही है कि कैसे पाक में शरीया शासन स्थापित किया जाये. वजीरिस्तान में तालिबानियों का वर्चस्व चलता है, लेकिन हाल मे वहां पाक सेना ने काफी कहर ढाया है, जिसका जवाब तालिबान ने पेशावर में आकर दिया है. तालिबान को पाकिस्तान के दोहरे रवैये का नतीजा भी कह सकते हैं.
जब भी यह बात होगी कि तालिबान आखिर चाहता क्या है, तो तालिबान के दो धड़ों की बात होगी. पहला, पाकिस्तान का तालिबान और दूसरा, अफगानिस्तान का तालिबान. यहां पेशावर हमलों के बाद पाकिस्तानी तालिबान की बात करना ज्यादा प्रासंगिक है. हालांकि दोनों का बुनियादी उसूल एक ही है, वह है पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सत्ताओं पर अपना प्रभाव बनाना. लेकिन दोनों जगहों पर इन दोनों के लड़ने के अपने-अपने कारण हैं.
तहरीक-ए-तालिबान की लड़ाई मूलत: पाकिस्तान के अंदर की है. उसकी लड़ाई हमेशा पाकिस्तानी सेना से और पाकिस्तान की तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था से रही है. तालिबान का कहना है कि पाकिस्तान में शरिया कानून होना चाहिए. वह हमेशा से इसी बात पर लड़ता रहा है कि पाकिस्तान की आर्मी अमेरिका की बात क्यों मानती है. ऐसे कई और मुद्दे भी हैं, जिनको लेकर तालिबान ने ‘ऑपरेशन वजीरिस्तान’ चला रखा है. इस ऑपरेशन का मूल उद्देश्य यही है कि कैसे पाकिस्तान में शरीया शासन को स्थापित किया जाये. वजीरिस्तान में तालिबानियों का वर्चस्व कायम है. लेकिन हाल में वहां पाकिस्तानी सेना ने काफी कहर ढाया है, जिसका जवाब तालिबान ने पेशावर में आकर दिया है.
तालिबान को पाकिस्तान की सरकार और सेना के दोहरे रवैये का नतीजा भी कह सकते हैं. जकी उर रहमान लखवी और हाफिज सईद पाकिस्तान के लिए सरकारी आतंकवादी हैं. पाकिस्तान सरकार इनको कुछ नहीं कहती. पेशावर हमले के बाद भी ऐसा लगता है यह सब ऐसे ही चलता रहेगा.
उधर, अफगानिस्तान का तालिबान सिर्फ शरिया कानून के लिए नहीं, बल्कि अपना वजूद बचाये रखने के साथ-साथ पूरे अफगानिस्तान में प्रभावी होने की चाहत रखता है. इसलिए वह अफगानिस्तान सरकार से भी लड़ता आया है और अमेरिकी सेना से भी. वहां भविष्य में जिसकी भी सत्ता रहेगी, अफगानिस्तान का तालिबान उसी के साथ लड़ता रहेगा.
फिलहाल तालिबान का अस्तित्व पाकिस्तान और अफगानिस्तान से बाहर कहीं नहीं है और अभी यह कहीं और फैल भी नहीं सकते, क्योंकि इनका मुख्य उद्देश्य शरिया व्यवस्था को स्थापित करने के बीच आड़े आनेवाली सेना से लोहा लेना है. हालांकि अन्य देशों में अलकायदा और इसके जैसे कुछ और संगठन सक्रिय हैं, जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबान के साथ मिल कर लड़ते हैं. वे चाहे तालिबान हों या आइएसआइएस, ये आतंकवादी कहते हैं कि उनका मजहब इसलाम को न माननेवाले लोगों को मारने की इजाजत देता है. ऐसा मजहब वे कहां से लाये हैं, इस बारे में किसी को कुछ नहीं पता. पुराने दौर में हुई लड़ाइयों की मिसालें देकर वे लोगों को मारने की तस्दीक करते हैं, जो उन्हीं के मजहब के खिलाफ है. इस बात को पता नहीं क्यों वे समझ नहीं पाते. दुनिया के लिए ये एक मुसीबत की तरह हैं. मुझे समझ में नहीं आता कि आखिर से ऐसे लोग पैदा हुए हैं, जो इंसानों को मारने को अपना मजहब बताते हैं.
सोचनेवाली बात यह है कि वहां की अवाम का भी कुछ हिस्सा तालिबान का साथ देता है. यही वजह है कि पाकिस्तान सरकार का किसी-किसी क्षेत्र में तो कोई मतलब ही नहीं है. उन हिस्सों में ऐसा लगता है कि सरकार तालिबानियों की ही है. तथ्यों पर गौर करें, तो पाकिस्तान सरकार सिर्फ इसलामाबाद से लेकर रावलपिंडी के आसपास तक ही नजर आती है. पंजाब के कुछ हिस्सों में है सरकार चलती है, बाकी किसी हिस्से में नहीं चलती. इसलिए पाकिस्तान सरकार के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है तालिबान से सामना करना. तालिबान चूंकि पाकिस्तान के भीतर ही है, इसलिए उसके वर्चस्व को खत्म करने का एक ही तरीका है कि वहां की अवाम इस बात को समझे कि वे जो कर रहे हैं, ठीक नहीं है. न ही शरिया के नजरिये से न ही इंसानियत के नजरिये से. लेकिन, मुश्किल यह है कि आधे लोग तो उनका साथ देनेवाले हैं. बाकी लोग सेना और सरकार के साथ हैं. कोई एक थोड़ा कम हो तो उसे कमजोर किया जा सकता है, लेकिन यहां तो लड़ाई बराबर की नजर आ रही है. यह उनके आपस की लड़ाई है, जिसे बाहर से कोई खत्म नहीं कर सकता.
बहुत से लोगों को यह लगता है कि तालिबान का विस्तार हो सकता है, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता, क्योंकि अगर ये पाकिस्तान और अफगान से बाहर निकलेंगे, तो इनका विस्तार नहीं, बल्कि खात्मा हो जायेगा. जिस दिन ये भारत की तरफ बढ़ेंगे, उस दिन से इनकी उलटी गिनती भी शुरू हो जायेगी. पाकिस्तान में तो उन्हें आधे लोगों का साथ मिल सकता है, लेकिन भारत में एक भी नागरिक का समर्थन नहीं मिल सकता है. हालांकि भारत के सामने तालिबान की चुनौती है, खास कर कश्मीर में है, लेकिन यह चुनौती अफगानिस्तान के साथ भारत के सहयोग के चलते है. चीन और पाकिस्तान मिल कर सोच रहे हैं कि अफगानिस्तान में भारत को किसी प्रकार की दखल से दूर रखा जाये. अब इसमें भारत की क्या डिप्लोमेटिक भूमिका होती है, इसी बात पर यह चुनौती निर्भर करेगी.
(बातचीत : वसीम अकरम)
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