।। अजय सिंह ।।
(मैनेजिंग एडिटर, गवर्नेस नाउ)
– साहित्य में किरदार गढ़ना आसान होता है, पर राजनीति में असली किरदार जनता गढ़ती है. बिहार की राजनीति में ‘हार की जीत’ के किरदार का वास्तविक निर्णय अब जनता के हाथ में है. –
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी– ‘हार की जीत’. बाबा भारती, डाकू खड़ग सिंह और सुल्तान घोड़े की. खड़ग सिंह का दिल बाबा भारती के घोड़े पर आ गया. भिखारी के भेष में उसने बाबा भारती से उनका घोड़ा सुल्तान छीन लिया. बाबा भारती ने खड़ग सिंह से विनती की कि वह यह बात किसी को न बताये. वजह थी कि लोगों का विश्वास उठ जायेगा.
कहानी के अंत में खड़ग सिंह का दिल पसीज गया और उसने सुल्तान घोड़े को बाबा भारती के अस्तबल में पहुंचा दिया. साहित्यकार सुदर्शन की यह कालजयी रचना मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक मूल्यों की शाश्वतता को प्रमाणित करती है. पर साहित्यिक रचना एक आदर्श काल्पनिक दुनिया को जीवंतता का स्वरूप देती है.
वास्तविक दुनिया में बाबा भारती, डाकू खड़ग सिंह और सुल्तान घोड़े की खोज मृग मरीचिका ही हो सकती है. ‘हार की जीत’ का सार आधारित है ‘विश्वासघात’ या ‘धोखे’ पर. धोखा देना, धोखा खाना और धोखा खाने के बाद संभलना. यह कहानी प्रासंगिक है बिहार के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में. आज के राजनीतिक मुहाबरों में ‘धोखा’ शब्द का जम कर इस्तेमाल किया जा रहा है. खास कर बीजेपी ने इस पर एकाधिकार जैसा कर लिया है. नरेंद्र मोदी से लेकर सुशील मोदी तक सबकी जुबान पर यह शब्द जैसे चिपक सा गया है.
आखिरकार 18 साल की दोस्ती के बाद इस तरह बेबफाई के इल्जाम लगाने की पृष्ठभूमि क्या है? 1995 में बीजेपी के मुंबई अधिवेशन के समय लालकृष्ण आडवाणी ने अस्पताल में भरती जॉर्ज फर्नाडीस से भेंट की. यह वह दौर था, जब बीजेपी राजनीतिक रूप से अछूत थी. भेंट के दौरान आडवाणी ने जॉर्ज को न्योता दिया अपनी पार्टी के सम्मेलन में आने का. जॉर्ज के अस्वस्थ होने के कारण नीतीश कुमार उस सम्मेलन में गये थे. और यहीं से शुरू हुआ बीजेपी के अस्पृश्यता के दौर का अंत.
1992 के बाबरी विध्वंस के बाद सांप्रदायिकता का मुद्दा चरम पर था. फिर भी 1996 में बीजेपी ने चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी को आगे रखा. अयोध्या और अन्य विवादित मुद्दे बीजेपी के घोषणापत्र में सिर्फ दिखावे के लिए उल्लेखित थे. हकीकत में ‘रामलला हम आयेंगे, मंदिर वहीं बनायेंगे’ जैसे उत्तेजक नारे गढ़नेवाली बीजेपी ने इस मुद्दे को दरकिनार कर दिया. चुनाव से पूर्व एक साक्षात्कार में वाजपेयी ने इस लेखक से कहा था ‘इस चुनाव में अयोध्या कोई मुद्दा नहीं है.’ वास्तव में चुनाव वाजपेयी की सर्वग्राह्यता और नरसिंह राव शासन में हुए भ्रष्टाचार व बढ़ी महंगाई के मुद्दे पर लड़ा जा रहा था.
बीजेपी की ग्राह्यता उसके बाद उत्तरोत्तर बढ़ती गयी. 1998 के चुनाव में मुख्य मुद्दा था एनडीए का एजेंडा. 1999 और 2004 के लोकसभा चुनावों में भी यह एजेंडा ही उसका चुनावी घोषणापत्र था. 2004 में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष वेंकैया नायडू का मशहूर तकिया–कलाम था ‘एक हाथ में बीजेपी का झंडा और दूसरे हाथ में एनडीए का एजेंडा.’ इस एजेंडे में न तो राम मंदिर का जिक्र था, न ही अन्य विवादित मुद्दों का. इन सबसे अलग एक ‘शाइनिंग इंडिया’ का नारा बुलंद हुआ था.
दरअसल बीजेपी नेतृत्व को इस बात का विश्वास था कि पार्टी ने मध्यमार्गी राजनीतिक शक्ति की जगह ले ली है, जहां सांप्रदायिकता और भड़काऊ मुद्दों की जगह नहीं थी. 2002 के गुजरात दंगों के बावजूद पार्टी नेतृत्व की पुरजोर कोशिश थी विवादित मुद्दों से दूर रहने की. बीजेपी की कोशिश थी एक जिम्मेवार राजनीतिक दल के रूप में उभरने की.
आखिर क्या वजह थी बीजेपी के अपनी विचारधारा से अलग हट जाने की? दरअसल बीजेपी नेता, खास कर आडवाणी व वाजपेयी बाबरी मसजिद विध्वंस से आहत थे. वजह साफ थी. इससे पार्टी की छवि एक ‘अविश्वसनीय’ (अनट्रस्टवर्दी) पार्टी के रूप में बनी. राष्ट्रीय एकता परिषद के अलावा सुप्रीम कोर्ट में बीजेपी नेतृत्व ने वचन दिया था कि अयोध्या में कार सेवा का असर मसजिद पर नहीं होगा.
6 दिसंबर को संघ, उसके संघठनों और बीजेपी ने इस विश्वास को तोड़ दिया. इसके राजनीतिक परिणाम प्रतिकूल थे. 1993 में उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में पार्टी चुनाव हार गयी. राजस्थान में किसी तरह जोड़–तोड़ करके भैरो सिंह मुख्यमंत्री बने. इन घटनाओं को यहां उद्धृत करने का अभिप्राय यह बताना है कि मसजिद गिराना भाजपा को भारी पड़ा. हिंदू जनता ने भी उसकी आक्रामकता का तिरस्कार किया.
अब बात करें नीतीश कुमार की. 2004 के लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद नीतीश ने एक विशेष साक्षात्कार (स्टार न्यूज) में साफ कहा था कि गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को न हटा पाना भारी गलती थी. 2004 में हार का कारण भी यही माना गया. इसके बाद 2005 में दो बार हुए विधानसभा चुनावों, 2009 में लोकसभा चुनाव और 2010 में फिर विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को बिहार से दूर रखने का निर्णय बीजेपी नेतृत्व का था. कई मायनों में यह निर्णय उचित था.
बिहार में बीजेपी की आक्रामकता सामाजिक समीकरण बिगाड़ सकती थी. खगड़िया, किशनगंज, बेगूसराय जैसे कई जिलों में मुसलिम मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया. यह सहयोग बीजेपी की विचारधारा को था, नरेंद्र मोदी को नहीं. यह सर्वग्राह्य राजनीति के लिए दिया गया सहयोग था.
ऐसा नहीं है कि बीजेपी नेतृत्व को इसका अहसास न हो. 2005 से 2012 तक सुशील मोदी स्वयं इसी मत के थे और दिल्ली में पार्टी के मेंटर अरुण जेटली भी कमोबेश यही विचार रखते थे. यही वजह थी कि जेटली के यहां खाने की मेज पर पूर्व भाजपा अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने दावे के साथ नीतीश कुमार से कहा, ‘अगर आप चाहेंगे तो भी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते.’ तब भी नीतीश कुमार ने साफ कहा था कि बीजेपी द्वारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 का चुनाव लड़ने की स्थिति में वे एनडीए का साथ छोड़ देंगे.
इस सब वादों के बाद गोवा में नरेंद्र मोदी की ताजपोशी साफ संकेत दे रही थी कि पार्टी नेतृत्व विवश था और मोदी के नेतृत्व की घोषणा महज एक औपचारिकता रह गयी थी. बाद के घटनाक्रमों ने इसे सही साबित किया. अब से कुछ दिन बाद मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की घोषणा भी हो जायेगी. पार्टी की ओर से अयोध्या, धारा 370 और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे उठाये जाने लगे हैं. इशरत जहां के एनकाउंटर को देश में एक भावनात्मक मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही है. इस तरह बीजेपी कमोबेश 1990-91 की अस्पृश्यता की स्थिति में पहुंच चुकी है.
नरसिंह राव ने 1992 में दीवार पर लिखी इबारत पढ़ने में भूल की. 6 दिसंबर की घटना उसका परिणाम थी. नीतीश कुमार ने 2014 में वैसी भूल करने से इनकार कर दिया. शायह वह जानते थे कि राजनीति में बाबा भारती का किरदार निभाना समाज के लिए घातक हो सकता है. साहित्य में किरदार गढ़ना आसान होता है, पर राजनीति में असली किरदार जनता गढ़ती है. बिहार की राजनीति में ‘हार की जीत’ के किरदार का वास्तविक निर्णय अब जनता के हाथ में है.