।।अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
अपराध और अपराधी से राजनीति का रिश्ता तोड़ने में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला क्या एक क्रांतिकारी कदम साबित होगा? शायद हां, शायद न’. शायद हां कुछ भरोसे से कही जा सकती है पर शायद न उतने भरोसे से कहना थोड़ा मुश्किल है. राजनीतिक दलों की अभी जो प्रतिक्रियाएं आयी हैं, उनसे शायद हां, शायद नवाली बात ही कही जा सकती है.
स्वागत सबने किया है, पर सिविल सोसाइटी व मीडिया जितने जोरदार ढंग से नेताओं ने नहीं. मुख्य विपक्षी दल भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने सांसदों और विधायकों को सजा के बाद भी बचाने की अब तक की व्यवस्था को कुछ विसंगतियों वाला तो बताया, पर फैसले को पढ़ने के बाद अंतिम राय देने की बात कही. कांग्रेस की ओर से कपिल सिब्बल ने तो विसंगति को भी नहीं कबूला और सीधे फैसले को पढ़ने व विचार करने की बात की. माकपा ने सुप्रीम कोर्ट से आदेश आने तक अयोग्यता की बात को अनुचित बताया. सभी दलों की राय गिनवाने बैठेंगे, तो इस फैसले से बना उत्साह काफूर हो जायेगा, जो गलत होगा.
देखना दिलचस्प होगा कि अदालत के इतने साफ फैसले के खिलाफ प्रमुख दल कोई कदम उठाते हैं या नहीं. कायदे से दो ही कदम उठाने को बचे हैं– अदालत से फैसले पर पुनर्विचार की अपील करना या संसद से संविधान संशोधन कराने का प्रयास. जाहिर है ये दोनों काम मुश्किल हैं और इनसे समाज में राजनेताओं की छवि और खराब होगी. इसीलिए हमने ‘शायद हां’ को थोड़ा उम्मीद भरा बताया था. पर अभी उतनी उम्मीद करना भी बेमानी है, क्योंकि राजनीति का अपराधीकरण कोई अनजाने में हुई परिघटना नहीं है– राजनेताओं ने चुन–चुन कर अपराधियों को टिकट दिये हैं.
अपराधियों को भी संसद–विधानसभाओं में पहुंचने का बहुत लाभ दिखने लगा है. उनके लिए सिद्धांत और नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं है. (बड़े–बड़े नेताओं के लिए भी यह चीज कम ही बची है.) वे संभावना वाले हर दल से नाता रखने और तोड़ने में वक्त नहीं लगाते. और जैसा रजनी कोठारी जैसे राजनीतिक पंडितों का मानना है कि पहले नेता अपराधी को पालते थे, पर जब से अपराधियों को असलियत का पता चला, वही नेताओं को पालने लगे हैं.
मामला अकेले अपराध और राजनीति के रिश्ते पर किसी एक अदालत की सामान्य सी टिप्पणी का नहीं है. बीते महीने भर में चार मामलों में सुप्रीम कोर्ट ही नहीं, हाइकोर्टो ने भी गंभीर मसलों पर साफ फैसले दिये हैं. एक मामले में राजनीतिक दलों के कामकज को आरटीआइ के दायरे में लाने का फैसला आया, जिसे सभी दलों की साझा चुनौती दी जा चुकी है. फिर तमिलनाडु में चुनावी वादों के तहत काफी सारा सामान मुफ्त बांटने से चुनावी लडाई में हो रही गड़बड़ पर कोर्ट का कुछ गोल–मटोल फैसला आया, जिसमें चुनाव आयोग से कहा गया है कि वह सभी दलों की सहमति से इस पर रोक लगाने का प्रयास करे. इसमें गेंद किसके पाले में आयी है और कौन आगे का कदम उठा रहा है, इस बारे में स्पष्टता नहीं है. चौथा फैसला इलाहाबाद हाइकोर्ट द्वारा जातीय आयोजनों पर रोक से संबंधित है. इसके भी ऑपरेटिव पार्ट का क्या मतलब है, अभी साफ होना बाकी है.
जाहिर है जब चुनावी खर्च, सरकार और उसके बहाने आम लोगों पर चुनावी वादों के बोझ, राजनीति के अपराधीकरण, जाति–मजहब के इस्तेमाल, उनके सांगठनिक काम में पारदर्शिता जैसे कई सारे मुद्दे एक साथ आ गये हैं, तो ये चुनाव सुधार की जरूरत को स्थापित करते हैं. एक स्तर पर यह बात बहुत अच्छी लगती है कि सभी पक्षों पर सबका ध्यान है. यह शायद उससे भी अच्छी बात है कि सिविल सोसाइटी (जिसके लोगों ने हाल के ज्यादातर फैसलों से जुड़े मामलों को कोर्ट के सामने लाया), न्यायपालिका व मीडिया अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की गड़बड़ियों और बीमारियों को जानती है और सतर्क है. इन्हीं लोगों ने कालेधन, अपराध, जाति–धर्म जैसी बुराइयों से संसद और विधानसभाओं ही नहीं, लोकतांत्रिक सरकारों के कामकाज और स्वरूप के बिगड़ने का शोर भी मचाया है. पर यह कहने में हर्ज नहीं कि जब तक राजनेता, राजनीतिक दल और सीधे मतदाता पहल नहीं करेगा, तब तक ज्यादा कुछ नहीं होनेवाला है. यही मुख्य खिलाड़ी हैं और अगर इन्होंने खेल बिगाड़ा है तो यही खेल सुधारने की असली ताकत भी रखते हैं. चुनाव सुधार को अदालतों, चुनाव आयोग, सूचना अधिकार कानून और मीडिया के सहारे अंतिम नतीजे तक नहीं पहुंचाया जा सकता.
एक बड़ा उदाहरण बिहार का है, जहां नीतीश कुमार ने कोई बहुत दावा नहीं किया, शोर नहीं मचाया, पर अपराधियों के मुकदमों की पैरवी के समय सरकारी पक्ष की तरफ से ढील न देने की नीति चलायी और बिहार का फर्क हर किसी ने महसूस किया– भले अब पहले जैसी तेजी नहीं दिख रही है. उत्तर प्रदेश में भी मायावती राज में हल्का फर्क दिखा, क्योंकि उन्होंने खुली पक्षधरता से बचने का प्रयास किया. दूसरी ओर यह तथ्य भी है कि सिविल सोसाइटी, चुनाव आयोग और अदालतों की सक्रियता के बावजूद आज तक सिर्फ एक विधायक गलत चुनावी तरीके अपनाने (पेड न्यूज की सेवा लेने) का दोषी करार दिया गया है. आज लगभग हर सांसद अपने चुनाव खर्च का ब्योरा गलत देता है, लेकिन सारे कानून, सारी सक्रियता कुछ नहीं बिगाड़ पाते. यह सही है कि टीएन शेषन के समय से चुनाव आयोग की सक्रियता ने चुनाव पर बहुत असर डाला है, लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि तब से चुनाव पर होनेवाले खर्च में बेतहाशा वृद्धि हुई है, अपराधियों का संसद और विधानसभा तक पहुंचना बढ़ गया है. बाकी कई गड़बड़ियां भी बढ़ी हैं, जबकि हमारा चुनाव आयोग दुनिया में सबसे ताकतवर है और संयोग से शेषन के बाद के अधिकतर चुनाव आयुक्त अच्छे आये है.
असल में यह न उन लोगों का दोष है, न अदालतों का. यह मीडिया और सिविल सोसाइटी के आंदोलनों का दोष तो हो ही नहीं सकता, जिनकी सक्रियता से ये मुद्दे उभरे हैं. असल में यह दोष लोकतंत्र व हमारी शासन व्यवस्था में शक्ति के बंटवारे को न समझने या अनुपयुक्त पक्ष द्वारा सक्रिय होने का है. चुनाव आयोग हो, अदालत या फिर सूचना आयुक्त, इनके अधिकार और कार्यक्षेत्र तय हैं. सबसे ऊपर कानून बनाने का काम है और उसे करनेवालों को न पक्की नौकरी है, न पक्का कार्यकाल. उन्हें हर पांच साल पर जनादेश लेना होता है और जनादेश से सबसे ज्यादा ताकत होती है. अब राजनीति में छोटे कद के, छोटी सोच के लोग भर गये हैं, वरना सरकार और संसद में बैठे लोगों को कोर्ट के फैसले का मुंह न देखना पड़ता. अदालत तर्क, सबूत और गवाह पर फैसला करती है, राजनेता के लिए समझ और विवेक सबसे ऊपर होते हैं.
अब इन फैसलों से इतना ही होगा कि राजनेताओं पर दबाव बढ़ेगा और लोग भी इसके लिए दबाव बढ़ाने पर मजबूर होंगे. अदालत, चुनाव आयोग, मीडिया और सिविल सोसाइटी की भूमिका यही जागृति बढ़ाने भर की है.