।।पंकज कुमार पाठक।।
झारखंड में विधानसभा चुनाव संपन्न हुआ. इस विधानसभा चुनाव में किस पार्टी को कितनी सीटें मिली, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा, जितना यह कि कौन उम्मीदवार कहां से जीता और कौन कहां से हारा. चुनाव जीतने के लिए एक-एक उम्मीदवार ने अपनी ताकत झोंक दी थी. दिग्गज उम्मीदवारों ने भी न जाने कितनी गली-मुहल्लों में दिन-रात धूल फांके. लोगों से झूठे वादे किये. इनके चुनाव परिणाम खराब न हों, इसके लिए शराब की नदियां बहायी.
चुनाव जीत कर ‘ऐश’ कर सकें, इसलिए कई जगहों पर ‘कैश’ भी बांटे गये. करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये गये. कार्यकर्ता से लेकर मतदाता तक को ‘चिकन-भात’ और ‘मटन-भात’ खिलाये गये. इस ‘चुनावपूर्व दावत’ के चक्कर में न जाने कितने हजार की संख्या में मुर्गियों और बकरियों को मौत के घाट उतारा गया.
अब इसे इन बेजुबान जानवारों का ‘श्रप’ कहिए या झूठ बोलने का परिणाम या ‘मटन-चावल’ डकारने के बाद गद्दार बने मतदाताओं के कर्मो का फल, लेकिन इस चुनाव में एक से बढ़ कर एक दिग्गज हार गये. कई पार्टियों के तो ‘गुरु ’ गुड़ ही रह गये और चेला ‘चीनी’ बन कर उभर गये. चुनाव नतीजों के बाद हालात ऐसे हो गये कि गुरु, हार कर खामोश बैठे हुए हैं और चेला जीत कर भी, गुरु के हार के कारण जश्न नहीं मना पा रहा है. इनके कार्यालयों और घरों में रखे, मिठाइयों के डब्बे खुलने का इंजतार कर रहे हैं और मिठाइयां यह जान कर खराब होने लगीं कि नेताजी को आंसू पीने से फुरसत नहीं है, तो हम कहां से खाये जायेंगे.
जिनके गले में कभी जीत के बाद फूलों की माला लटका करती थी, उस गले के ऊपर का चेहरा ही आज नीचे लटका हुआ है. यकीन मानिए, इस कड़कड़ाती ठंड में उनके पसीने छूट रहे होंगे. खुद को ‘मिनी महात्मा गांधी’ समझनेवाले इन नेताओं को इस बार चुनाव में मुंह की खानी पड़ी. इन्हें समझ ही नहीं आ रहा है कि यह लोकतंत्र है या विरोधी उम्मीदवार का षड्यंत्र?