वोट की ताकत

अनुज कुमार सिन्हा झारखंड के मतदाताओं ने अपना फैसला सुना दिया है. भाजपा गंठबंधन की सरकार बनने जा रही है, बहुमत से. ऐसा पहली बार हो रहा है. 14 सालों में झारखंड की जो स्थिति बनी है, उससे जनता बेचैन थी और मौके की तलाश में थी. पूर्व मुख्यमंत्री अजरुन मुंडा का खरसांवा से, मुख्यमंत्री […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 24, 2014 7:01 AM

अनुज कुमार सिन्हा

झारखंड के मतदाताओं ने अपना फैसला सुना दिया है. भाजपा गंठबंधन की सरकार बनने जा रही है, बहुमत से. ऐसा पहली बार हो रहा है. 14 सालों में झारखंड की जो स्थिति बनी है, उससे जनता बेचैन थी और मौके की तलाश में थी. पूर्व मुख्यमंत्री अजरुन मुंडा का खरसांवा से, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का दुमका से, पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का दो-दो जगहों से, पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा का मझगांव से और पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो का सिल्ली से हार जाना चौंकानेवाला है. कई मंत्री, पूर्व मंत्री, कई दिग्गज हारे. यही लोकतंत्र की ताकत है. यही एक-एक वोट की कीमत है. यह राजनेताओं के लिए सबक भी है.

जनता जब नाराज होती है, उसका धैर्य खत्म हो जाता है, तो मत से बदला लेती है. झारखंड के मतदाताओं को अनेक दिग्गज समझ नहीं सके. चुनाव परिणाम ने कई संकेत दिये हैं. खरसांवा और सिल्ली में विकास के काम हुए, दिखते भी हैं, फिर भी वहां अजरुन मुंडा/सुदेश महतो को हार का सामना करना पड़ा. इसका सीधा अर्थ यह है कि काम पर अन्य फैक्टर भारी पड़ा. बड़े पद पर होने के बाद जब कोई बड़ा नेता अतिव्यस्त हो जाता है, तो वह अपने क्षेत्र के मतदाताओं से कट जाता है, समय नहीं दे पाता, जनता को यह बात खलती है. बड़े नेताओं से अपनेक्षाएं ज्यादा होती हैं और यह जब पूरी नहीं होती, तो मतदाता विरोध में खड़ा हो जाते हैं. यहां भी यही हुआ है. आज झारखंड राजनीति बिल्कुल नये मोड़ पर खड़ी है, जहां यह लगभग तय है कि सत्ता किसी नये व्यक्ति (जो अब तक मुख्यमंत्री न बने हों) के हाथ में होगी.

इस बात की उम्मीद की जा रही थी कि भाजपा गंठबंधन की बड़ी जीत होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बहुमत मिला, लेकिन प्रचंड नहीं. एक तो झारखंड मुक्ति मोरचा ने जिस तरीके से चुनाव लड़ा, उसकी कल्पना भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने नहीं की थी. सुनियोजित योजना के तहत. झामुमो अपने संदेश को अपने वोटर्स तक पहुंचाने में सफल रहा. यही कारण है कि अकेले चुनाव लड़ने के बावजूद झामुमो घाटे में नहीं रहा. यह बताने में सफल रहा कि भाजपा का मुकाबला झामुमो ही कर सकता है. चुनाव के पूर्व जेवीएम में जिस तरह की भगदड़ रही, उससे जेवीएम उबर नहीं सका. कांग्रेस रेस में थी भी नहीं. इसका लाभ झामुमो को भविष्य में मिलेगा, जब कांग्रेस का बड़ा वोट बैंक (भाजपा विरोधी) उसकी ओर शिफ्ट होगा.

झारखंड में भाजपा विरोधी दलों का एक गंठबंधन नहीं बनने का भी लाभ भाजपा को मिला. इस चुनाव में अगर भाजपा ने टिकट बंटवारे में गलतियां न की होती, तो सात से आठ सीट और जीत सकती थी. मिशन-50 भी संभव हो सकता था, लेकिन अपनी ही गलतियों और अति आत्मविश्वास के कारण भाजपा सामान्य बहुमत तक थम गयी. यह विवाद का विषय है कि आजसू-भाजपा गंठबंधन के कारण दोनों को लाभ हुआ या घाटा, लेकिन इतना तय है कि कई सीटों पर भितरघात हुआ. कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हुई और वे निकले ही नहीं. यह भी सत्य है कि कुछ सीटों को छोड़ दें, तो भाजपा के लोगों ने आजसू के लिए और आजसू ने भाजपा प्रत्याशियों के लिए जी-जान से काम नहीं किया. जो भी हो, अब मतदात़ाओं ने अपना फैसला दे दिया है. अब गेंद भाजपा के पाले में है.

चर्चा अब यह नहीं है कि सरकार किसकी बनेगी. कौन होगा मुख्यमंत्री? यह बहस का मुद्दा है. भाजपा के दिल्ली के नेता (मूलत: नरेंद्र मोदी और अमित शाह) ही यह फैसला लेंगे. फैसला आसान नहीं होगा. भाजपा को अकेले कोई बहुत बड़ा बहुमत नहीं मिला है. गंठबंधन के साथ सरकार बनाने का आंकड़ा पार हुआ है. इसलिए भाजपा नेतृत्व को यह तय करना होगा कि झारखंड में मुख्यमंत्री का नाम तय करने के वक्त क्या आदिवासी या गैर-आदिवासी फैक्टर को भी ध्यान में रखना है या नहीं. अब तक झारखंड में जो भी सीएम हुए हैं, सभी आदिवासी ही हुए हैं. चाहे वह भाजपा के हों या झामुमो के. यह भाजपा को तय करना है कि वह क्या चाहती है. चुनाव के दौरान भाजपा के नेताओं ने जो संदेश दिये थे या हरियाणा-महाराष्ट्र में भाजपा ने जो कुछ किया, उससे लगता है कि भाजपा दिल्ली से नेता नहीं थोपेगी. विधायकों के बीच से ही चयन करेगी.

ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार में शामिल भाजपा के दो बड़े नेता जयंत सिन्हा और सुदर्शन भगत इस दौड़ से अलग हो सकते हैं. राज्य भाजपा में कई बड़े नाम हैं. अगर पार्टी बगैर आदिवासी या गैर-आदिवासी सोंचे सिर्फ नेता पर बात करती है तो उसके पास रघुवर दास, सरयू राय , सीपी सिंह जैसे नेता हैं. लेकिन भाजपा अगर कोई जोखिम नहीं लेना चाहती है और आदिवासी मुख्यमंत्री ही चाहती है, तो उसके पास अजरुन मुंडा, बड़कुंवर गागराई के बाद शिवशंकर उरांव (गुमला) विकल्प हो सकते हैं.

सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि संघ का इसमें कितना हस्तक्षेप होता है. हरियाणा-महाराष्ट्र में जिस तरीके से मुख्यमंत्री का चयन किया गया, उससे यही संदेश जाता है कि मोदी-शाह अपने विश्वासपात्र / पूर्व परिचित को ज्यादा तरजीह देते हैं. ऐसे में जहां रघुवर दास संगठन में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं, वहीं सरयू राय मोदी की मूर्ति कमेटी के सदस्य हैं और साथ काम कर चुके हैं. उधर शिवशंकर उरांव जहां जेएनयू से पढ़े हुए हैं और संघ परिवार से आते हैं. जो भी हो, मोदी-शाह की जोड़ी अप्रत्याशित फैसले लेने के लिए जानी जाती है. इसलिए कोई और नाम भी कहीं से उछल जाये, तो ताज्जुब नहीं.

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