सोशल मीडिया और नेता

।। विश्वनाथ सचदेव ।।(वरिष्ठ पत्रकार) राजनीति की मंडी में सबकुछ बिकता है. नहीं, मैं ईमान या निष्ठा या सिद्धांतों की खरीद–फरोख्त की बात नहीं कर रहा. वोट खरीदने–बेचने की बात भी नहीं कर रहा. हम सब जानते हैं कि जबसे देश में वोट की राजनीति शुरू हुई है, हमारे यहां वोट बिकने की बातें होती […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 13, 2013 4:41 AM

।। विश्वनाथ सचदेव ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)

राजनीति की मंडी में सबकुछ बिकता है. नहीं, मैं ईमान या निष्ठा या सिद्धांतों की खरीदफरोख्त की बात नहीं कर रहा. वोट खरीदनेबेचने की बात भी नहीं कर रहा. हम सब जानते हैं कि जबसे देश में वोट की राजनीति शुरू हुई है, हमारे यहां वोट बिकने की बातें होती रही हैं. मतदान से पहले वाली रात नोटों की गड्डियों और शराब की बोतलों के बंटने की बात को एक मुहावरे की तरह स्वीकार कर लिया गया है. पर अब एक नया मुहावरा गया है, लाइक करने कायानी फेसबुक वाला लाइक. सोशल साइट का यह अजूबा अब हमारी राजनीति का एक हथियार मान लिया गया है.

जितना लाइक, उतनी लोकप्रियता और हमारे राजनीतिज्ञ इस लोकप्रियता को वोटरों को रिझाने का पैमाना मानने लगे हैं. यह लाइक उस सोशल मीडिया का हिस्सा है, जिसे दुनिया भर में एक नयी राजनीति के हथियार के रूप में देखा जाता है. पिछले दशक में इस सोशल मीडिया का असरकई देशों में देखा गया है. अन्ना हजारे का आंदोलन भी इसका उदाहरण है. इसी के चलते बहुत से राजनेता भी फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों का सहारा लेकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने में लुटे हुए हैं.

इसी कोशिश का हिस्सा वह खबर है, जिसमें कहा गया है कि हमारे राजनेता अब लोकप्रियता खरीदने में लगे हैं. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत फेसबुक पर लाइक खरीद करअपनी लोकप्रियता के बढ़ने का दावा कर रहे हैं. राजनीति वाले लाइक करने को फॉलोअर यानी अनुगामी होने का पर्याय मानते हैं. इसी सूत्र के आधार पर मान लिया गया है कि नरेंद्र मोदी सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति हैं.

एक जून तक गहलोत के अधिकृत फेसबुक एकाउंट में लाइककी कुल संख्या 1,69,066 थी, जो 30 जून को 2,14,639 हो गयी. वृद्धि की यह दर, सचमुच, बहुत ज्यादा है और राजस्थान में गहलोतसरकार से सत्ता छीनने के लिए आतुर भाजपा ने यह आरोप लगाया है कि गहलोत ने यह लाइकखरीदे हैं. खरीदे हैं का मतलब है कि किसी व्यक्ति या एजेंसी को पैसे देकर लाइककरनेवालों को जुटाया गया हैइस जुटाने का मतलब कोई इलेक्ट्रॉनिक तकनीक का सहारा लेना भी हो सकता है. भाजपा के सूत्रों ने यह भी पता लगा लिया है कि गहलोत के ताजा समर्थकों की सबसे बड़ी संख्या अब राजस्थान का कोई शहर नहीं, बल्कि इस्तांबुल है.

गहलोत खेमे का कहना है कि यह चाल मोदी के खेमे ने उन्हें बदनाम करने के लिए चली है. मतलब यह कि भाजपा ने गहलोत को बदनाम करने के लिए यह लाइकखरीद कर उनके खाते में डाल दिये हैं. इस आरोपप्रत्यारोप की सच्चई तो किसी गहरी जांच से ही सामने सकती है, लेकिन यह तथ्य अवश्य सामने गया है कि हमारे राजनेता सोशल मीडिया के माध्यम से राजनीति करने को अब जरूरी और लाभकारी समझने लगे हैं. लेकिन, क्या सोशल मीडिया राजनीति को सचमुच उतना प्रभावित कर सकता है, जितना मान लिया गया है?

हमारे देश में नरेंद्र मोदी को राजनीति में सोशल मीडिया का सहारा लेनेवालों में अग्रणी माना जाता है. लेकिन उनके गुजरात में ही उन्हें मिली सफलता में सोशल नेटवर्किग का कितना हाथ है? सवाल यही नहीं है कि गुजरात में कितने मतदाता सोशल नेटवर्किग से जुड़े हुए हैं, सवाल यह भी है कि कितने उससे प्रभावित होते हैं? अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा दो बार चुनाव जीते. उन्होंने भी सोशल नेटवर्किग की सहायता चुनावप्रचार के दौरान ली थी. लेकिन, उनके चुनाव समन्वयक का कहना है कि हमने सोशल मीडिया का उपयोग जमीनी धरातल पर किये गये अपने काम में मदद देने के लिए किया.

हाल ही में पाकिस्तान में चुनाव हुए थे. यदि सोशल मीडिया की लोकप्रियता ही किसी के चुनाव जीतने का आधार हो सकती है, तो सत्ता इमरान खान को मिलनी चाहिए थी. सोशल मीडिया में इमरान काफी लोकप्रिय हैं. मतलब साफ है कि सिर्फ सोशल मीडिया से मतदाता की राय नहीं बनती या नहीं बदलती. राजनेताओं और राजनीतिक दलों को अपनी क्षमतामहत्ता अपने ठोस कामों से साबित करनी होगी, तभी सोशल मीडिया की लोकप्रियता उन्हें कुछ सहारा दे सकती है.

लगता है कि हमारे राजनेता और राजनीतिक दल नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को उदाहरण समझ कर यह मानने लगे हैं कि सोशल मीडिया के माध्यम से वे जंग जीत सकते हैं, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि मतदाता अभी सोशल मीडिया पर राजनीतिक विमर्श को अक्सर फेंकूऔर पप्पूसे ऊपर नहीं मानता है

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