एक बार फिर अच्छे दिनों की आस
पिछले छह महीनों में अच्छे दिनों की याद थोड़ी धुंधली हो गयी थी. झारखंड का चुनाव परिणाम आते ही एक बार फिर जनता में अच्छे दिन की आस जग गयी है. राज्य गठन के बाद से ही लगातार बुरे दिनों में रहने के कारण झारखंडी अच्छे दिनों को भूल से गये हैं. अब तो वे […]
पिछले छह महीनों में अच्छे दिनों की याद थोड़ी धुंधली हो गयी थी. झारखंड का चुनाव परिणाम आते ही एक बार फिर जनता में अच्छे दिन की आस जग गयी है. राज्य गठन के बाद से ही लगातार बुरे दिनों में रहने के कारण झारखंडी अच्छे दिनों को भूल से गये हैं. अब तो वे विश्वास भी नहीं करते कि अच्छे दिन होते भी हैं.
छह महीनों में राज्य के बाहर रह रहे देशज भाइयों ने भले अच्छे दिन का स्वाद चखा हो, लेकिन ‘अबुआ राज’ में अभी तक यह कहीं दिखायी नहीं दिया. चुनाव परिणाम के बाद दुख के बादल छंटने चाहिए. आधी शताब्दी से झारखंड में ही रच बस गये हमारे काका को तो अब ऐसा ही लगने लगा है. आज सवेरे केसरिया तिलक लगाये काका को देख कर पता नहीं क्यों कुछ भी अजीब नहीं लगा. काका तो हर मंगलवार को केसरिया तिलक लगाते हैं. बजरंग बली का दिन जो ठहरा.
लेकिन आज उनके तिलक की चमक में अच्छे दिनों की आस छिपी दिखायी दी. वैसे जनता- जनार्दन की राय से यह लगभग साफ हो गया है कि अच्छे दिन आयेंगे! पर यह स्पष्ट नहीं है कि कब आयेंगे? क्या इसके लिए कोई मुहूर्त निकालना पड़ेगा? या अचानक ‘भए प्रकट कृपाला’ की तरह प्रकट होंगे. आयेंगे भी तो कौन पहचानेगा? झारखंड में तो जनता की अच्छे दिन से जान-पहचान तक नहीं है. उनको तो अच्छे दिन के मापदंड भी नहीं मालूम. क्या अच्छे दिन सभी के लिए एक जैसे ही आयेंगे? या अडानी-अंबानी के लिए विशेष रूप से आयेंगे. जनता के लिए तो चुनाव परिणाम ही अच्छे दिन की तरह है. जीत के जश्न में नेताओं और उनके छुटभैयों द्वारा प्रायोजित लड्ड, हड़िया, मुरगा, खस्सी के साथ दिन अच्छा हो गया.
कल से तो फिर वही रोज कुआं खोदना, रोज पानी पीना. इसमें अच्छे दिन या बुरे दिन के बारे में सोचने तक की फुरसत नहीं होगी. वैसे भी जनता पिछले एक माह से खुद को सचमुच ही जनार्दन मानने लगी थी. बड़े-बड़े नेताओं को अपने सामने नतमस्तक देख कर उसका मिजाज सातवें आसमान पर चढ़ गया था. अब जितना जल्दी वह जमीन पर उतर जाये, उतना बेहतर है. सपनों की दुनिया से अपनी दुनिया में लौट जाये तो ही उसके लिए अच्छा दिन होगा. गरीब को तो रोज रोटी मिल जाए तो ही वह मान पायेंगे कि उनके लिए अच्छे दिन आ गये, पर अमीर के लिए तो ब्रेड-बटर भी मायने नहीं रखता.
फिर दोनों के लिए एक साथ अच्छे दिन कैसे आयेंगे? जनता के लिए अच्छे दिन आ जायेंगे, तो नेताओं को कौन पूछेगा? ऐसा नहीं है कि अच्छे दिन आना ही नहीं चाहते. वो तो बेचारे तैयार बैठे हैं, पर हमारे पसंदीदा नेता ही उनकी राह में रोड़े अटकाने से बाज नहीं आते. दरअसल अच्छे दिन के भी काफी बुरे दिन चल रहे थे. अब पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि इस बार कम से कम झारखंड के अच्छे दिन जरूर आयेंगे. जो भी हो, दिल बहलाने को ये ख्याल अच्छा है.
लोकनाथ तिवारी
प्रभात खबर, रांची
lokenathtiwary@gmail.com