न्यायिक फैसले और चुनाव सुधार
।। रविभूषण ।। (वरिष्ठ साहित्यकार) – चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार को लेकर समय–समय पर सरकार को जो कहा, अपराधियों के चुनाव न लड़ने की जो बात कही, सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया. – पिछले हफ्ते 10 और 11 जुलाई को उच्चतम न्यायालय और इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने जो […]
।। रविभूषण ।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
– चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार को लेकर समय–समय पर सरकार को जो कहा, अपराधियों के चुनाव न लड़ने की जो बात कही, सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया. –
पिछले हफ्ते 10 और 11 जुलाई को उच्चतम न्यायालय और इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने जो दो फैसले दिये हैं, वे भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं. भारतीय राजनीति लगभग तीन दशकों से पतन–मार्ग पर निरंतर चल कर अपनी साख, विश्वसनीयता और लोकोन्मुखता खोती जा रही है.
इंदिरा गांधी के कार्यकाल और विशेषत: अस्सी के दशक और दुष्टत्रयी (निजीकरण, उदारीकरण, भूमंडलीकरण) के दौर में भारतीय राजनीति में विकृतियां बढ़ी हैं. राजनीति में आने का मकसद बदल चुका है. लूट और झूठ के साथ फूट को भी राजनीति ने बढ़ावा दिया है. लोकतंत्र भ्रष्टतंत्र और अपराध तंत्र में बदल चुका है. अपराधियों की जगह जेल है, न कि संसद और विधानसभा. क्या नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में संसद में अपराधी थे? उनकी संख्या कितनी थी? आज राजनीति और लोकतंत्र चुनाव में सीमित–संकुचित होकर तमाम गंदगियों को आमंत्रित करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एके पटनायक और एसजे मुखोपाध्याय की खंडपीठ जनप्रतिनिधित्व कानून के उस प्रावधान को, जिसके अनुसार दागी नेताओं को फैसले के विरुद्ध ऊपरी अदालत में अपील दायर करने और उसके फैसले तक अपने पद पर बने रहने का अधिकार प्राप्त था, संविधान के समानता के अधिकार के विरुद्ध घोषित करते हुए सजा सुनाये जाने के दिन से ही सांसदों–विधायकों की सदस्यता समाप्त करने का आदेश दिया है. लिली थॉमस, जो उच्चतम न्यायालय में वकील और 85 वर्षीय एक वृद्ध महिला हैं, ने भी दूसरी याचिका दायर की थी और उसी समय एक गैर सरकारी संगठन ‘लोक प्रहरी’ ने भी दूसरी याचिका दायर की थी, जो अपराधी राजनीतिज्ञों के संबंध में थी.
2004 में पटना उच्च न्यायालय के जन चौकीदार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया वाले निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने कायम रखा. सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को समाज के लिए घातक बताया है. कानून की यह धारा अपराधी सांसदों–विधायकों को संरक्षण देती थी. सामान्य–जन के अधिकारों से भिन्न सांसदों–विधायकों को अपराध के मामले में विशेष अधिकार प्राप्त था. कानून के इस प्रावधान का एक बहाना था कि अदालत में याचिका लंबित है. फैसले में कई साल गुजर जाते थे. अपराधी बार–बार चुनाव लड़ते और जीतते रहते थे. अब दोषी ठहराये जाने की तारीख से ही, न कि फैसले से अयोग्यता प्रभावी होगी.
यह जानना जरूरी है कि राजनीति में अपराधी, बलात्कारी, हत्यारे, ठग और लुटेरे कब से आये? इनकी संख्या कब से बढ़ी? अपराध की राजनीति कब से फूली–फली? राजनीतिक दलों को किसी प्रकार–येन–केन–प्रकारेण चुनाव जीतने की चिंता रही. संसद में अपराधी और करोड़पति पहले बहुत नहीं थे. फिलहाल 30 प्रतिशत सांसद और 31 प्रतिशत विधायक दागी हैं. 543 सांसदों में से 162 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. कांग्रेस और भाजपा सहित प्राय: सभी प्रमुख क्षेत्रीय दलों सांसदों पर अपराध के मुकदमे हैं. उत्तर प्रदेश के 47 प्रतिशत विधायकों पर अपराध के आरोप हैं.
21 क्षेत्रीय दलों के सांसद अपराध के मामलों में घिरे हैं. मणिपुर को छोड़ कर लगभग सभी राज्य इसमें शामिल हैं. झारखंड के 81 विधायकों में से 59 पर आरोप हैं. राज्यसभा में भी लगभग 40 सांसदों पर अपराध के आरोप हैं. 4,807 सांसदों–विधायकों में से 1,460 ने अपने पर आपराधिक मुकदमे की बात शपथ–पत्र में कही है. संसद और विधानसभाओं में निजीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में ऐसे जन–प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ी है. चौदहवीं लोकसभा में 125 सांसदों पर अपराध के मुकदमे थे. इसके पहले 1997 में मात्र 40 सांसदों पर आपराधिक मामले थे. लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा में बढ़ कर यह संख्या 162 हो गयी.
चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार को लेकर समय–समय पर सरकार को जो कहा, अपराधियों के चुनाव न लड़ने की जो बात कही, सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया. सुप्रीम कोर्ट के 2002 के आदेश पर, जिसमें उम्मीदवारों को आपराधिक रिकॉर्ड सहित आर्थिक स्थिति आदि की जानकारी देनी थी, सरकार ने एक अध्यादेश ला दिया था.
आज हम सुप्रीम कोर्ट के कारण उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड, आर्थिक हालत, शैक्षिक योग्यता आदि से परिचित हैं. अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से आडवाणी, लालू, मुलायम, येदियुरप्पा, कलमाडी, अमित शाह, जयललिता, कनिमोझी, ए राजा, मायावती आदि मुश्किल में पड़ेंगे. पिछले 16 वर्ष से राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव पर मुकदमा अभी चल ही रहा है.
वकील मोतीलाल यादव की जनहित याचिका पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच के न्यायमूर्ति उमानाथ सिंह और महेंद्र दयाल की खंडपीठ ने 11 जुलाई को जाति आधारित राजनीतिक रैलियों पर जो फैसला दिया है, वह स्वागतयोग्य है. बिहार और उत्तर प्रदेश जाति आधारित राजनीतिक रैलियों के बड़े गढ़ हैं. विगत 25 वर्ष में यह राजनीति अधिक फैली है.
जाति आधारित रैलियां भी संविधान के खिलाफ हैं. क्षेत्रीय दलों के उभार और वर्चस्व के पीछे जातीय समीकरण प्रमुख हैं. राजनीतिक दलों ने जाति और धर्म के आधार पर समाज को विभाजित किया है. यह विभाजनकारी और द्वेषपरक राजनीति है. उत्तर प्रदेश में जातीय रैलियों पर पाबंदी लगा दी गयी है. लोकसभा और विधानसभा की कोई एक सीट ऐसी नहीं है, जिसमें केवल एक जाति विशेष के ही मतदाता हों. नेता एक जाति विशेष का न होकर पूरे समाज का होता है. जाति आधारित रैलियों पर प्रतिबंध फिलहाल उत्तर प्रदेश में लगाया गया है. बसपा ने पिछले मई–जून में 38 ब्राह्मण सम्मेलन किये हैं. सात जुलाई को लखनऊ में उसने एक बड़ी ब्राह्मण रैली की. इसके अलावा भाईचारा कांफ्रेंस भी होनी थी.
जाति रैलियां सामाजिक एकता के लिए नुकसानदेह हैं. इससे सामाजिक एकता कायम नहीं, बाधित होती है. अपराधमुक्त और जातिमुक्त राजनीति की चिंता राजनीतिक दलों को नहीं है. यह तात्कालिक और उड़न–छू पूंजी के दौर की खासियतें हैं. अपराधोन्मुख और जाति आधारित राजनीति से क्या समाज को लाभ पहुंचेगा? सजा प्राप्त सामान्य व्यक्ति जब चुनाव लड़ने के अयोग्य है, तब उसका प्रतिनिधि सजा पाने के बाद चुनाव लड़ने के योग्य किस तर्क से है?
संसद संकल्प लेकर उसे पूरा नहीं करती. आजादी की स्वर्णजयंती (1997) पर संसद ने राजनीति के अपराधीकरण को दूर करने का संकल्प लिया था, जिसे पूरा नहीं किया. क्या अब सारे उचित काम न्यायालय के जिम्मे हैं? सरकार क्यों है और क्यों है संसद और विधानसभा– इस पर राजनीतिक दलों को आत्ममंथन करना होगा.