तय हो भारत रत्न देने का पैमाना
एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में हमें यह नजरिया भी बदलना चाहिए कि किसी को सम्मान नहीं मिला या उनकी पांच हजार फुट की मूर्ति नहीं बनी, तो देश ने उन्हें सम्मान नहीं किया. किसी भी सम्मान की पवित्रता के लिए इस नापाक ख्याल को मिटाना जरूरी है. भारत रत्न अब मानो कोई राजनीतिक रत्न […]
एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में हमें यह नजरिया भी बदलना चाहिए कि किसी को सम्मान नहीं मिला या उनकी पांच हजार फुट की मूर्ति नहीं बनी, तो देश ने उन्हें सम्मान नहीं किया. किसी भी सम्मान की पवित्रता के लिए इस नापाक ख्याल को मिटाना जरूरी है.
भारत रत्न अब मानो कोई राजनीतिक रत्न हो गया है. इसकी पात्रता केंद्र में मौजूद सरकार की राजनीतिक निष्ठा से तय होने लगी है. ऐसा नहीं है कि यह आज हुआ है या आज ही इस तरह के सवाल उठ रहे हैं. ‘भारत रत्न’ की पात्रता को लेकर सवालों का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना इसके दिये जाने का. अटल बिहारी वाजपेयी के साथ महामना मदन मोहन मालवीय को भी ‘भारत रत्न’ दिये जाने के बाद फिर से यह सवाल उठ रहा है कि आखिर इसके पात्र व्यक्ति को यह किस हद तक ‘बैक डेट’ से दिया जा सकता है?
नोबेल पुरस्कार व्यक्ति को उसके जीवनकाल में दिया जाता है. भारत रत्न के साथ भी ऐसा कुछ क्यों नहीं हो? कुछ लोग पूछेंगे कि मालवीय जी के समय ही यह सवाल क्यों उठा, आंबेडकर और सरदार पटेल को दिये जाने के वक्त क्यों नहीं? उठा तब भी था, मगर कुछ हुआ नहीं. इस बार भी उठा है और इस बार भी कुछ नहीं होगा. दरअसल, हमारी राजनीति ने ऐसे दोहरे मानक कायम किये हैं कि आप एक की आलोचना करते हुए दूसरे के समर्थक नजर आने लगते हैं. राजनीति कोई नयी परिपाटी कायम नहीं करती. नेहरू यूरोप की यात्रा पर थे और उनके पीछे राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने भारत रत्न दिये जाने का ऐलान कर दिया. वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब इसी तर्ज पर ऐलान की योजना बनी, पर उन्होंने मना कर दिया कि इसे अपनी सरकार तय करे, उचित नहीं होगा. अब हुआ वही जो नेहरू के वक्त हुआ और जो वाजपेयी ने नहीं चाहा.
मालवीय जी का योगदान ‘भारत रत्न’ का इंतजार नहीं कर रहा था. कई नेता कह रहे हैं कि उन्हें यह बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. देरी और नाइंसाफी की जोड़ी ऐसी है कि इसके आगे हर दलील कमजोर लगने लगती है. लेकिन, इस लिहाज से तो गांधी के साथ भी अन्याय हो गया! टैगोर, गोखले, तिलक, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सर सैय्यद अहमद, प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि अनेक शख्सीयतों के साथ अन्याय हुआ, जिसे कभी भी कोई दल सत्ता में आकर भुनाने लग सकता है. कल कोई दल इसकी भी मांग कर सकता है कि सावित्री बाई फुले को क्यों नहीं दिया गया. लड़कियों की पढ़ाई के लिए उन्होंने जो किया, वह एक शानदार उदाहरण है. कुछ लोग झांसी की रानी से लेकर अकबर और चाणक्य को भी ‘भारत रत्न’ की सूची में शामिल करने लगे हैं. ऐसे तो यह सिलसिला कहीं रुकेगा ही नहीं. आजादी के सारे नायक ‘भारत रत्न’ हैं. हम उनके योगदानों का मूल्यांकन ‘भारत रत्न’ के आधार पर नहीं कर सकते. इसलिए जरूरी है कि कम-से-कम उन नायकों को भारत रत्न देने पर विचार न करें, जो आजादी से पहले ही दिवंगत हो चुके हैं.
मेजर ध्यानचंद को आज तक भारत रत्न नहीं मिला. यूपीए के समय मुखर आवाज में ध्यानचंद के लिए भारत रत्न की मांग करनेवाले नेता भी अब चुप हो गये हैं, जबकि सरकार एक साथ तीन लोगों को भारत रत्न दे सकती है. सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न दिये जाने के मौके पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसके लिए जोर-शोर से आवाज उठायी थी. दिल्ली में एक रैली हुई थी. मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार ध्यानचंद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया भी था. इसी अगस्त में गृह मंत्रलय ने मेजर ध्यानचंद का नाम भी प्रधानमंत्री को भेजा था. तब भाजपा ने इसका खूब श्रेय लिया था, जबकि यूपीए सरकार के वक्त भी पीएमओ को ऐसा प्रस्ताव भेजा गया था. फिर भी आज ध्यानचंद के लिए कहीं कोई आवाज नहीं है.
प्रधानमंत्रियों को भारत रत्न दिये जाने पर भी पुनर्विचार होना चाहिए, क्योंकि जनता उन्हें इस पद के लिए चुन कर सबसे बड़ा सम्मान दे चुकी होती है. नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव, वाजपेयी के बाद नरसिम्हा राव के लिए भी मांग होने लगी है. जेएमएम घूस कांड को परे रख कर क्या राव को भारत रत्न दिया जा सकता है? और आपातकाल लगानेवाली इंदिरा गांधी से क्या भारत रत्न वापस ले लिया जाना चाहिए, या सिख दंगों के कारण राजीव गांधी को भारत रत्न दिया जाना विवादित रहेगा?
यहां सवाल उठाने का मकसद किसी के योगदान को कम करना नहीं है, लेकिन भारत रत्न के लिए एक मान्य पैमाना तो बनना चाहिए, जिससे लगे कि इसके चयन पर नागरिकों की मुहर है, न कि सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी की भावुकता हावी है. अगर पैमाना होता, तो पात्रता रखने के बाद भी वाजपेयी को अपनी पार्टी की सरकार का इंतजार नहीं करना पड़ता. साथ ही एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में हमें यह नजरिया भी बदलना चाहिए कि किसी को सम्मान नहीं मिला या उनकी पांच हजार फुट की मूर्ति नहीं बनी, तो देश ने उनका सम्मान नहीं किया. किसी भी सम्मान की पवित्रता के लिए इस नापाक ख्याल को मिटाना बहुत जरूरी है.
रवीश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
RAVISH@ndtv.com