जनादेश पीडीपी-भाजपा के लिए ही है

2002 की तरह इस बार भी दोनों पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को ही बात करनी पड़ेगी. अब अगर ऐसा नहीं होता है, तो धार्मिक आधार पर दोनों क्षेत्रों के बीच दरार और चौड़ी होने व अलगाववादी आंदोलन को फिर से आक्सीजन मिल जाने का खतरा है. जम्मू-कश्मीर पर सबकी निगाहें हैं. जिस तरह का ध्रुवीकरण […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 26, 2014 5:30 AM

2002 की तरह इस बार भी दोनों पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को ही बात करनी पड़ेगी. अब अगर ऐसा नहीं होता है, तो धार्मिक आधार पर दोनों क्षेत्रों के बीच दरार और चौड़ी होने व अलगाववादी आंदोलन को फिर से आक्सीजन मिल जाने का खतरा है.

जम्मू-कश्मीर पर सबकी निगाहें हैं. जिस तरह का ध्रुवीकरण वहां हुआ है, उससे स्थिति पेचीदा हो गयी है. अब यह दोनों बड़े राजनीतिक दलों पीडीपी और भाजपा पर निर्भर करता है कि वे इस स्थिति का पार्टी-हित में फायदा उठाने की चाल चलेंगे या फिर जम्मू-कश्मीर के हित को देखते हुए फैसला करेंगे. फिलहाल जम्मू-कश्मीर के लिए कठिन वक्त चल रहा है. ऐसा क्यों है, यह समझने के लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजों को समझना जरूरी है.

मंगलवार को आये नतीजों में मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी है और भाजपा 25 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर आयी है. पीडीपी को 22.7 फीसदी वोट मिले हैं और भाजपा को 23 फीसदी. नेशनल कॉन्फ्रेंस को 20 फीसदी वोटों के साथ 15 और कांग्रेस को 18 फीसदी वोटों के साथ 12 सीटें मिली हैं. भाजपा का कहना है कि वोट प्रतिशत के लिहाज से वह सबसे बड़ी पार्टी है. लेकिन, यहीं पर पेच है. भाजपा को यह वोट जम्मू संभाग में ही मिले हैं, कश्मीर में उसका सिर्फ एक उम्मीदवार जमानत बचा पाया. पीडीपी को तीन सीटें जम्मू से भी मिली हैं, लेकिन उसके भी अधिकतर वोट कश्मीर संभाग से ही आये हैं. ऐसा क्यों हुआ, इसे समझने के लिए चुनाव प्रचार के दौरान इन पार्टियों द्वारा उठाये गये मुद्दों को समझना जरूरी है.

भाजपा ने नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस सरकार के कुशासन और विकास को अपना मुद्दा बनाया. लेकिन अंदर-अंदर ही जम्मू से हिंदू मुख्यमंत्री बनाने और अनुच्छेद 370 हटाने के लिए भाजपा को जिताने की बातें भी की गयीं. नतीजा यह रहा कि जम्मू की हिंदू बहुल लगभग सभी सीटें भाजपा ने जीत लीं और वह भी इतने अच्छे अंतर से कि उसका वोट प्रतिशत पूरे राज्य में सबसे ज्यादा हो गया. दूसरी तरफ कश्मीर में पीडीपी ने नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस सरकार के कुशासन के साथ-साथ सेल्फ रूल, सेना हटाये जाने और आम्र्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट को हटाने को मुद्दा बनाया. दोनों ही संभागों में नेकां-कांग्रेस सरकार के खिलाफ माहौल था और साथ में इन पार्टियों द्वारा उठाये गये मुद्दों की अपील. नतीजा दोनों संभागों में सत्तारूढ़ दल हार गये. दोनों संभागों में कॉमन फैक्टर था नेकां-कांग्रेस से लोगों की नाराजगी. यहां एक बात और ध्यान देने की है और वह है अलगाववादियों का रुख. चुनाव की घोषणा से काफी पहले अलगाववादियों को उमर अब्दुल्ला ने चेताया था कि वे चुनाव बायकाट न करें और यदि वे ऐसा करेंगे तो भाजपा को ही फायदा मिलेगा. इसका असर भी हुआ और वोटिंग बढ़ गयी. जम्मू-कश्मीर से जुड़े राजनीतिक फैसलों में इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है. मुफ्ती की पीडीपी ने जो जमीन कश्मीर में बनायी है, उसमें अलगाववादियों की जमीन का अतिक्रमण भी है. लेकिन इसका अर्थ यह निकालना कि मुफ्ती अलगाववादी हैं, गलत होगा. यहां तक कि पाकपरस्त अलगाववादी नेता तक अपनी राजनीति के लिए मुफ्ती को चुनौती के तौर पर लेते हैं, फारूक व उमर अब्दुल्ला या भाजपा को नहीं.

अब नतीजों के हिसाब से जायें तो कश्मीर के लोगों ने पीडीपी को जनादेश दिया है और जम्मू के लोगों ने भाजपा को. ऐसे में इनमें से कोई भी पार्टी यदि नेकां या कांग्रेस की मदद लेती है, तो यह राज्य के लिए खतरनाक होगा. साथ में चुनाव की जो विश्वसनीयता पिछले तीन बार से बनी है, उसको भी चोट पहुंचेगी. यह बात पीडीपी व भाजपा के साथ-साथ नेकां-कांग्रेस को भी समझनी पड़ेगी. जो तसवीर नतीजों से उभरी है, उसमें सरकार के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समीकरण पीडीपी और भाजपा का ही है. पीडीपी व भाजपा की वैचारिक दिशा अलग-अलग है. दोनों कश्मीर मसले पर एक-दूसरे से विपरीत रुख रखती हैं. लेकिन यह भी सच है कि कश्मीर व जम्मू के लोग भी कश्मीर के मसले पर परस्पर विरोधी रुख रखते हैं. अब तक राज्य की मुख्यधारा की राजनीति में लगभग समान विचार वाले राजनीतिक दल ही चुनाव में प्रासंगिक संख्या हासिल करते थे, जबकि इस बार इन दलों से विपरीत ध्रुव पर खड़ी दिखाई देनेवाली भाजपा नंबर दो की पार्टी बन कर उभरी है.

यदि पीडीपी और भाजपा मिल कर सरकार बनाते हैं, तो न कश्मीर की जनता के जनादेश का अपमान होगा और न जम्मू के लोगों के जनादेश का. इन दोनों के साथ आने से दोनों दलों के तमाम अतिवादी रवैयों में स्वाभाविक रूप से नरमी आयेगी, जो जम्मू-कश्मीर के साथ ही राष्ट्रहित में भी होगा. यह बात सही है कि यह समीकरण बनाने के लिए बहुत ईमानदारी और परिपक्व राजनीतिक क्षमता की जरूरत होगी, लेकिन यह बात भी सही है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद से ज्यादा ईमानदार और परिपक्व राजनीतिज्ञ जम्मू-कश्मीर में कोई दूसरा नहीं है. भाजपा नेतृत्व और मुफ्ती, दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों के मतदाताओं को समझा सकते हैं कि पीडीपी-भाजपा के साथ रहने से कैसे लोगों को ज्यादा फायदा होगा. विकास के मामले में भी और राजनीतिक रूप से भी. 2002 के चुनाव के बाद मुफ्ती ने हारी हुई बाजी धैर्यपूर्वक अपने हक में कर ली थी. गौरतलब है कि गुलाम नबी आजाद ने अपने स्तर पर जरूरी संख्या जुटा ली थी और यह दावा कर रहे थे कि उनके नेतृत्व में ही सरकार बनेगी, क्योंकि कांग्रेस की सीटें पीडीपी से ज्यादा हैं. कोई दूसरा व्यक्ति होता तो आजाद के इस दबाव में साथ आने को तैयार हो जाता. पर, मुफ्ती अपनी बात पर अड़े रहे कि पीडीपी को कश्मीर ने जनादेश दिया है और मसला कश्मीर का है, इसलिए मुख्यमंत्री कश्मीर का ही होना चाहिए. यही हुआ भी. हां, 2002 की तरह इस बार भी दोनों पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को ही बात करनी पड़ेगी. अब अगर ऐसा नहीं होता है, तो धार्मिक आधार पर दोनों क्षेत्रों के बीच दरार और चौड़ी होने व अलगाववादी आंदोलन को फिर से आक्सीजन मिल जाने का खतरा है.

और अंत में..

मुङो ताज्जुब हो रहा है कि जनता दल के घटकों को एकजुट करने में लगे नेताओं का ध्यान मुफ्ती की ओर क्यों नहीं जा रहा है. मुफ्ती मोहम्मद सईद जनता दल की वीपी सरकार में गृह मंत्री थे. वे जनता दल के बड़े नेता और अल्पसंख्यक चेहरा रहे हैं. जनता परिवार के मौजूदा नेताओं में एकाध को छोड़ कर उनकी जितनी स्वच्छ-ईमानदार नेता व कर्मठ प्रशासक वाली छवि वाले नेता नहीं हैं. और फिर मुफ्ती जनता परिवार का मुसलिम चेहरा भी बन सकते हैं और वह भी कश्मीर से. उम्मीद है कि जनता परिवार के नेताओं के साथ-साथ भाजपा भी इस एंगल को देख रही होगी.

राजेंद्र तिवारी

कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर

rajendra.tiwari@prabhatkhabar.in

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