सपने दिखाने की सियासत से कौन बचायेगा
पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार 2015 का दिल्ली चुनाव सिर्फ बदलाव की हवा बहानेवाले दो नायकों के जीत के सपनों का नहीं होना चाहिए, बल्कि किन रास्तों पर देश को चलना है, वह रास्ता दिखानेवाला होना चाहिए. यह मान कर न चला जाये कि एक की उड़ान को थामने भर के लिए दूसरे को जिता […]
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
2015 का दिल्ली चुनाव सिर्फ बदलाव की हवा बहानेवाले दो नायकों के जीत के सपनों का नहीं होना चाहिए, बल्कि किन रास्तों पर देश को चलना है, वह रास्ता दिखानेवाला होना चाहिए. यह मान कर न चला जाये कि एक की उड़ान को थामने भर के लिए दूसरे को जिता दें.
दिल्ली से दिल्ली तक के रास्ते का ही इंतजार हर किसी को है. इसलिए अब सबको 2015 का इंतजार है. 2014 ने केंद्र से लेकर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर तक की सियासत तो पलट दी. हर जगह कांग्रेस सत्ता में थी और अब हर जगह बीजेपी की सत्ता है; या बननेवाली है. कांग्रेस हर जगह बूरी तरह पिटी, और हर जगह भगवा खूब लहराया.
लेकिन याद कीजिए, तो बदलाव की पहली नींव दिल्ली में ही पड़ी थी और वह साल 2014 नहीं, बल्कि 2013 था. और जनता ने जिस कांग्रेस का सूपड़ा साफ किया, उसी जनता ने पहला पत्थर कांग्रेस के खिलाफ दिल्ली में ही उठाया. तो 2014 के बीतते ही पहला सवाल हर किसी के जेहन में यही आयेगा कि जिस दिल्ली ने कांग्रेस की जमी-जमायी 15 बरस की सत्ता को उखाड़ फेंका, क्या वही दिल्ली एक बार फिर दिल्ली के तख्त तले दिल्ली सरीखे केंद्रशासित राज्य के जरिये ही देश को कुछ नया पैगाम दे सकती है? या फिर मोदी-मोदी की गूंज दिल्ली को भी हड़प लेगी. दिल्ली को लेकर असल मुश्किल यहीं से शुरू होती है कि क्या साल भर के भीतर दिल्ली के हालात देश को चुनौती दे सकते हैं, या फिर देश के साथ कदमताल करने के लिए दिल्ली तैयार है?
बिहार चुनाव से पहले मोदी सरकार का चुनावी विकल्प बनने की तैयारी में जनता परिवार भी खुद को धारदार बना रहा है. लेकिन दिल्ली का सवाल चुनावी विकल्प बनना या बनाना नहीं, बल्कि विकास के नाम पर धारदार होती सत्ता को सामाजिक-आर्थिक बिसात पर चुनौती देना और सत्ता में सिमटती जनता की मजबूरी को मुक्त कराना है. यह सवाल दिल्ली चुनाव में कैसे उठ सकता है या इसे कौन उठा सकता है, यह अपने आप में सवाल है.
जाहिर है, ऐसे मोड़ पर दिल्ली के पन्नों को पलटें, तो 14 फरवरी, 2014 के बाद तीन महीने तक दिल्ली में हारी कांग्रेस की अगुवाई में दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने सत्ता संभाली और बीते सात महीनों से बीजेपी की अगुवाई में नजीब जंग ही दिल्ली को चला रहे हैं. यानी जिस शीला दीक्षित के विकास की अंधेरी गली को दिल्ली वालों ने पलट दिया, उसी दिल्ली वालों के सामने 28 दिसंबर, 2013 से 14 फरवरी, 2014 के बाद अपने दर्द का जिक्र करनेवाला कोई आया ही नहीं. और इसी दौर में देश के सारे चुनावी परदे बदल गये. तो दिल्ली का मतलब है क्या और होगा क्या?
दरअसल, केंद्र की मनमोहन सरकार के घपले-घोटालों की सूची के बीच अन्ना आंदोलन ने पहली बार देश के सामने यह सवाल रखा कि सत्ता का मतलब राजा बनना नहीं होता. और जनता ने जैसे ही अन्ना के चश्मे से संसद और सत्ता को देखना शुरू किया, तो उसे लगा कि उसकी ताकत तो लोकतंत्र की चौखट पर सत्ता से भीख मांगने के अलावा कुछ है ही नहीं. आंदोलन की बड़ी ताकत सत्ताधारियों को सेवक मानने और खुले तौर पर कहने की सोच से उभरी. सत्ता पाने और सरकार चलाने के रुतबे में कांग्रेसियों की आंखें फिर भी ना खुलीं कि सत्ता उनका जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है. और सत्ता पाने के लिए लालायित बीजेपी भी कमोबेश उसी अंदाज में निकल रही थी कि कांग्रेस के बाद सत्ता पाना तो उसी का अधिकार है.
आम आदमी पार्टी ने 2013 में सत्ता की बात कभी कही ही नहीं और दिल्ली के तख्तोताज पर नजर जमाये नरेंद्र मोदी को भी इसका एहसास हुआ कि सत्ता पाने के लिए सेवक होकर चुनाव जीतना आसान है. और दोनों जगहों पर सत्ता पलटने में जनता ने सेवकों का ही साथ दिया. अपने-अपने घेरे में सपने दोनों ने जगाये. केजरीवाल के सपने सत्ता के तौर-तरीके बदल कर सत्ता चलाने के थे, तो नरेंद्र मोदी के सपने सुविधाओं का पिटारा खोलनेवाले रहे. केजरीवाल जनता को भागीदार बना कर राजा-प्रजा की लकीर को खत्म करने का सपना दिखा रहे थे. मोदी राजा बन कर रात-रात भर जाग कर जनता का हित साधने का सपना पैदा कर रहे थे. दोनों के निशाने पर भ्रष्टाचार था. दोनों ने खुद को पाक-साफ साबित करने के लिए सत्ताधारियों को ही निशाने पर लिया. दोनों ही अपने-अपने घेरे में खूब सफल हुए, और दोनों ने ही देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को ही हराया.
लेकिन, अब न तो 2013 है, न ही 2014. अब 2015 शुरू हो रहा है और संयोग से दिल्ली में टकराना इन्हीं दोनों को है, क्योंकि कांग्रेस नहीं है. राजनीतिक प्रयोग की नयी बिसात है. सपनों को जगाने का जमावड़ा है. चुनाव कैसे जीता जाता है, इसकी खुली प्रयोगशाला पार्टी संगठन के नायाब प्रयोग हैं. हर वोटर के दिल में सपनों को जगाने की चाहत है और सत्ता हर हाल में मिल जाये, इसके लिए सेवकों की कतार है. 2013 की सियासी टकराव की धारा 2015 में 360 डिग्री घूम कर फिर वहीं आ खड़ी हुई है, जहां उसे नये प्रयोग करने होंगे. व्यवस्था बदलने की ठाननी होगी.
दूरियां बढ़ाती बाजार-व्यवस्था को थामना होगा. विकास के सपने तले जिंदगी की त्रसदियों के सच को समझना होगा. दो जून की रोटी के लिए संघर्ष और जमा देनेवाली ठंड में बिन छत जीने की मजबूरी वाले हालात किसने खड़े किये, उस सियासत से भी टकराना होगा. हक के सवाल सत्ता से बड़े होते हैं, यह मानना होगा. चुनावी जीत के बाद की सत्ता चंद हाथों के जरिये सपने पूरा करनेवाले एहसास पर ना टिके, इसके लिए दिल्ली को तैयार होना ही होगा. लेकिन यहीं पर बड़ा सवाल है कि यह सब संभव होगा कैसे?
एक तरफ केंद्र सरकार अगर खुद को चुनाव जीतने के कारखाने में बदल लेने पर आमादा है, तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भी अब चुनाव जीतने की कवायद में खुद को प्रोफेशनल बनाने पर तुली है. तो फिर वह रास्ता कैसे निकलेगा, जिसमें जिक्र स्वराज का होना है- जहां रोजगार और विकास के सपने नहीं चाहिए, बल्कि मौजूदा व्यवस्था के तौर-तरीकों को बदलते हुए राज्य को स्वावलंबी बनाने की दिशा में उठते कदम हों. सूचना क्रांति के नित नये माध्यमों के जरिये सिर्फ अपनी बात हर किसी के कानों में गूंजाने भर का ना हो. 2015 का दिल्ली चुनाव सिर्फ बदलाव की हवा बहानेवाले दो नायकों के जीत के सपनों का नहीं होना चाहिए, बल्कि किन रास्तों पर देश को चलना है, वह रास्ता दिखानेवाला होना चाहिए. यह मान कर न चला जाये कि एक की उड़ान को थामने भर के लिए दूसरे को जीता दें.
सियासत के ऐसे चुनावी प्रयोग ही बीते साठ बरस का सच हैं. इसलिए मनाइए कि 2015 में दिल्ली जैसा छोटा-सा राज्य ही कोई राह दिखा दे, तो लोकतंत्र की जय कहा जाये. नहीं तो भरोसा फिर डिगेगा और जनता का गुस्सा फिर किसी आंदोलन के इंतजार में लोकतंत्र को नये सिरे से जीने के लिए तैयार हो जायेगा.