धोती ठीक है, पर लुंगी बन कर रह जाती है!
।। जावेद इस्लाम ।। (प्रभात खबर, रांची) श्री राम चाचा और रहीम चाचा, दोनों झक सफेद धोती में पधारे तो मेरे मुंह से हठात निकल गया, ‘‘बीएचयू के दीक्षांत समारोह से आ रहे हैं क्या?’’ धोती संभालते हुए दोनों चहके, ‘‘बरात गये थे, कन्यापक्ष की ओर से धोती मिली है.. खैर, ये बताओ लग कैसे […]
।। जावेद इस्लाम ।।
(प्रभात खबर, रांची)
श्री राम चाचा और रहीम चाचा, दोनों झक सफेद धोती में पधारे तो मेरे मुंह से हठात निकल गया, ‘‘बीएचयू के दीक्षांत समारोह से आ रहे हैं क्या?’’ धोती संभालते हुए दोनों चहके, ‘‘बरात गये थे, कन्यापक्ष की ओर से धोती मिली है.. खैर, ये बताओ लग कैसे रहे हैं?’’ मैंने तपाक से कहा, ‘‘फिल्म पड़ोसन में किशोर कुमार की तरह.’’ अपनी ‘तारीफ’ सुन कर दोनों खिल उठे. मुझे भी एक बरात की याद आ गयी.
20-25 साल पहले एक मित्र के भाई की बरात में जाना हुआ था. विदाई के समय कन्यापक्ष ने हम बरातियों को भी इसी तरह की धोती भेंट की थी. लौटने के बाद मैंने मित्रमंडली के सामने प्रस्ताव रखा कि सभी मित्र शाम को धोती बांध कर एक साथ बाजार निकलें, तो मजा आ जायेगा. खूब चर्चा होगी. इस पर मित्रों ने फिस्स से हंस दिया और प्रस्ताव एक को छोड़ सर्वमत से गिर गया.
किसी ने कहा, धोती बांधनी नहीं आती. किसी ने कहा, कभी पहनी नहीं. और तो और, एक मित्र ने कहा, फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता लगेगी. हालांकि, सभी मित्र हिंदू हैं और बेशक राष्ट्रवादी हैं, पर कोई धोती पहनने को तैयार नहीं हुआ. हमने इन धोतियों को बाद में घर में लुंगी की तरह इस्तेमाल किया.
पर, चंद दिनों पहले यह जान कर खुशी हुई कि इस साल बीएचयू–आइआइटी के दीक्षांत समारोह में ‘धोतीवादी राष्ट्रवाद’ का झंडा लहराया गया. संस्थान से निकलनेवाले छात्रों ने धोती धारण कर डिग्री ली. मेरे मन में सवाल कुलबुला रहा है कि क्या ये नव–दीक्षित इंजीनियर बंधु आगे भी धोती धारण करेंगे? और क्या वे धोती पहन कर ही काम करेंगे? या हमारी मित्रमंडली की तरह बाद में धोती का इस्तेमाल घर में लुंगी की तरह करेंगे?
मैंने ये सवाल श्रीराम चाचा से पूछे, तो उन्होंने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि इस बारे में तो मिसाइलवाले पूर्व राष्ट्रपति ही बता पायेंगे, जिन्होंने काला ‘पश्चिमी लबादा’ हटवा कर उजली ‘भारतीय धोती’ पहनवायी है. फिर उन्होंने उलटे मुझसे ही सवाल किया, ‘‘यदि मिसाइल मैन दीक्षांत समारोह की जगह किसी खेल–कूद के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि होते तो क्या होता? क्या खिलाड़ियों को भी धोती–कुरता में मैदान में उतरना पड़ता, क्योंकि जर्सी–निकर वगैरह तो शुद्ध भारतीय या राष्ट्रीय चीज नहीं हैं?’’
तभी रहीम चाचा बीच में कूदे, ‘‘ज्यादा सवाल, शंका मत करो. नहीं तो ‘लाठीवादी राष्ट्रवादी’ आयेंगे, तो अपने ढंग से तुम दोनों को सब समझा देंगे. मामला मिसाइल मैन और राष्ट्रीय परिधान का है. थोड़ा सोच–समझ कर रहो. अपने देश में तरह–तरह के राष्ट्रवादियों की भरमार है. अगर किसी राष्ट्रवादी ने तुम दोनों को ‘कुत्ते का बच्च’ समझ कर गाड़ी से कुचल दिया, तो उन्हें बस जरा–सा अफसोस होगा. उनसे किसी पछतावे की उम्मीद न करना.’’